कविता संग्रह >> रंग दे बसंती रंग दे बसंतीराजेश चेतन
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शहीद-ए-आजम भगत सिंह को अर्पित काव्यांजलि...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
उनका
मकसद था
आवाज़ को दबाना
अग्नि को बुझाना
सुगंध को कैद करना
तुम्हारा मकसद था
आवाज़ बुलंद करना
अग्नि को हवा देना
सुगंध को विस्तार देना
वे क़ायर थे
उन्होंने तुम्हें असमय मारा
तुम्हारी राख को ठंडा होने से पहले ही
प्रवाहित कर दिया जल में
जल ने
अग्नि को और भड़का दिया
तुम्हारी आवाज़ शंखनाद में तबदील हो गई
कोटि-कोटि जनता की प्राणवायु हो गए तुम
आवाज़ को दबाना
अग्नि को बुझाना
सुगंध को कैद करना
तुम्हारा मकसद था
आवाज़ बुलंद करना
अग्नि को हवा देना
सुगंध को विस्तार देना
वे क़ायर थे
उन्होंने तुम्हें असमय मारा
तुम्हारी राख को ठंडा होने से पहले ही
प्रवाहित कर दिया जल में
जल ने
अग्नि को और भड़का दिया
तुम्हारी आवाज़ शंखनाद में तबदील हो गई
कोटि-कोटि जनता की प्राणवायु हो गए तुम
राजगोपाल सिंह
समर्पण
पूज्य दादा स्व. श्री लहरी मल जैन को, जिन्होंने वीरों व क्रांतिकारियों
की कहानी सुनाकर राष्ट्र प्रेम के संस्कारों का बीजारोपण किया।
श्रद्धांजलि
भिवानी, हरियाणा में मेरा जन्म हुआ। मेरे बाबा श्री लहरी मल जैन जीवन के
अंतिम वर्षों में नेत्र रोग का शिकार होने के कारण बिल्कुल भी नहीं देख
पाते थे। अंग्रेजों के समय के पढ़े-लिखे होने के कारण हिन्दी, उर्दू व
अंग्रेजी पर उनका पूरा अधिकार था। मेरे मुहल्ले के विद्यार्थी उनसे पढ़ने
आते थे। शाम के समय वे बालकों को क्रांतिकारियों व वीरों की कहानी सुनाया
करते थे, अत: वे कहानियां सुनते-सुनते बचपन से ही मेरे जीवन में राष्ट्र
प्रेम का बीजारोपण हुआ। मेरे जन्म के समय हरियाणा का उदय नहीं हुआ था, अत:
मेरा जन्म पंजाब में हुआ। पंजाब के इस वीर के बारे में मेरे मन में बचपन
से ही अत्यन्त श्रद्धा रही।
एक दिन अचानक मुझे डायमंड प्रकाशन के श्री नरेन्द्र वर्मा जी एक गोष्ठी में मिले और मैंने जैसे ही उनसे भगत सिंह की जन्म शताब्दी की चर्चा की उन्होंने तुरंत कहा इस अवसर पर एक काव्य संग्रह प्रकाशित किया जाना चाहिए। मैं अपने कवि मित्रों का आभारी हूँ जिन्होंने अपनी रचनाएं इस संग्रह के लिए अर्पित की हैं। विशेष रूप से मैं श्रीमती वीरेन्द्र सिन्धु का जो कि सात समन्दर पार लंदन में रहती हैं परन्तु उनका दिल भारत के लिए धड़कता है, उन्होंने इस संग्रह की भूमिका लिखकर इस कृति के मूल्य को और बढ़ा दिया है। मैं उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। भगत सिंह की जन्म शताब्दी पर ये कवियों की ओर से एक विनम्र श्रद्धांजलि है। इसमें अगर कुछ अच्छा है तो वह सब मेरे कवि मित्रों व प्रबुद्ध पाठकों का है और यदि कोई त्रुटि है तो वह मेरी अपनी है। शहीद-ए-आजम भगत सिंह को अर्पित इस काव्यांजलि को पाठक स्वीकार करेंगे, ये विश्वास है।
एक दिन अचानक मुझे डायमंड प्रकाशन के श्री नरेन्द्र वर्मा जी एक गोष्ठी में मिले और मैंने जैसे ही उनसे भगत सिंह की जन्म शताब्दी की चर्चा की उन्होंने तुरंत कहा इस अवसर पर एक काव्य संग्रह प्रकाशित किया जाना चाहिए। मैं अपने कवि मित्रों का आभारी हूँ जिन्होंने अपनी रचनाएं इस संग्रह के लिए अर्पित की हैं। विशेष रूप से मैं श्रीमती वीरेन्द्र सिन्धु का जो कि सात समन्दर पार लंदन में रहती हैं परन्तु उनका दिल भारत के लिए धड़कता है, उन्होंने इस संग्रह की भूमिका लिखकर इस कृति के मूल्य को और बढ़ा दिया है। मैं उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। भगत सिंह की जन्म शताब्दी पर ये कवियों की ओर से एक विनम्र श्रद्धांजलि है। इसमें अगर कुछ अच्छा है तो वह सब मेरे कवि मित्रों व प्रबुद्ध पाठकों का है और यदि कोई त्रुटि है तो वह मेरी अपनी है। शहीद-ए-आजम भगत सिंह को अर्पित इस काव्यांजलि को पाठक स्वीकार करेंगे, ये विश्वास है।
राजेश चेतन
भूमिका
भगतसिंह जी की पुण्य स्मृति में
मेरा सौभाग्य है कि मैंने उसी परिवार में जन्म लिया। भगतसिंह की माताजी और
मेरी दादी माता विद्यावती की गोद में बैठकर अपने ताया के संबंध में
संस्मरण सुनने का अवसर मुझे मिला। अपने दादा सरदार किशनसिंह जी के
सान्निध्य में मेरा अक्षरबोध हुआ।
माता विद्यावती जी को हम सब बेबेजी कह कर बुलाते थे। जब भी उनसे भगतसिंह जी के बारे में पूछते उनका चेहरा गौरवान्वित हो उठता, आँखों में एक विशेष चमक आ जाती और वे हंस-हंस कर हमें इस तरह बताने लगतीं जैसे अभी कल की ही घटनाएँ हों। वे बताती थीं कि भगतसिंह कितने प्रसन्न और मस्त रहा करते थे। किसी भी परिस्थिति में उदास नहीं होते थे।
1927 में एक झूठे मुकदमे में फंसाये जाने पर उनकी पहली गिरफ्तारी हुई। उनको एक महीने तक हवालात में रखा गया। बाद में जमानत पर उन्हें छुड़वाया गया और उनके लिए एक डेरीफार्म खोल दिया गया। भगतसिंह तांगे से लाहौर जाते और कई बार दो-दो, तीन-तीन दिन तक वापस न आते। भारतमाता सोसाइटी की गतिविधियों में जुट जाते। कुछ दिनों बाद लौटते तो माँ उनसे कहतीं ‘‘तुम घर नहीं लौटते और पीछे नौकर कुछ खयाल नहीं रखते, इस तरह तो बहुत नुकसान होता है।’’ बेबेजी रोने लगतीं तो वे हंसते-मस्ती करते गाने लगते- ‘वंड दे गरीबां नूं, बेबे वंड दे गरीबां नूं,
इह घर कम्म नहीं आना, बेबे वंड दे गरीबां नूं।’’
(ओ मां गरीबों में बांट दो, यह घर और किसी काम नहीं आएगा)
और यह सब देखकर बेबेजी रोते-रोते हंसने लग जातीं।
मेरे पिता सरदार कुलतारसिंह तो अपने बड़े भाई के प्रति समर्पण भाव से उनकी भरपूर चर्चा करते। भगतसिंह के साथ बिताए क्षणों की यादें अंतिम समय उनके मस्तिष्क पर ज्यों की त्यों बनी रहीं। भगतसिंह को फांसी की सजा सुनाई जा चुकी थी। परिवार के साथ उनकी अंतिम मुलाकात 3 मार्च 1931 को हुई। सभी उदास थे, परन्तु 23 वर्षीय भगतसिंह सदैव की तरह प्रसन्न रहते थे। फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद उनका वजन बढ़ गया था। उनसे विदा लेते समय तब 12 वर्षीय कुलतारसिंह जी की आँखों में आँसू थे। यह देखकर भगतसिंह मन ही मन दुखी हुए और उसी दिन उन्होंने एक पत्र लिखा जिसके कुछ उल्लेखनीय अंश हैं:
माता विद्यावती जी को हम सब बेबेजी कह कर बुलाते थे। जब भी उनसे भगतसिंह जी के बारे में पूछते उनका चेहरा गौरवान्वित हो उठता, आँखों में एक विशेष चमक आ जाती और वे हंस-हंस कर हमें इस तरह बताने लगतीं जैसे अभी कल की ही घटनाएँ हों। वे बताती थीं कि भगतसिंह कितने प्रसन्न और मस्त रहा करते थे। किसी भी परिस्थिति में उदास नहीं होते थे।
1927 में एक झूठे मुकदमे में फंसाये जाने पर उनकी पहली गिरफ्तारी हुई। उनको एक महीने तक हवालात में रखा गया। बाद में जमानत पर उन्हें छुड़वाया गया और उनके लिए एक डेरीफार्म खोल दिया गया। भगतसिंह तांगे से लाहौर जाते और कई बार दो-दो, तीन-तीन दिन तक वापस न आते। भारतमाता सोसाइटी की गतिविधियों में जुट जाते। कुछ दिनों बाद लौटते तो माँ उनसे कहतीं ‘‘तुम घर नहीं लौटते और पीछे नौकर कुछ खयाल नहीं रखते, इस तरह तो बहुत नुकसान होता है।’’ बेबेजी रोने लगतीं तो वे हंसते-मस्ती करते गाने लगते- ‘वंड दे गरीबां नूं, बेबे वंड दे गरीबां नूं,
इह घर कम्म नहीं आना, बेबे वंड दे गरीबां नूं।’’
(ओ मां गरीबों में बांट दो, यह घर और किसी काम नहीं आएगा)
और यह सब देखकर बेबेजी रोते-रोते हंसने लग जातीं।
मेरे पिता सरदार कुलतारसिंह तो अपने बड़े भाई के प्रति समर्पण भाव से उनकी भरपूर चर्चा करते। भगतसिंह के साथ बिताए क्षणों की यादें अंतिम समय उनके मस्तिष्क पर ज्यों की त्यों बनी रहीं। भगतसिंह को फांसी की सजा सुनाई जा चुकी थी। परिवार के साथ उनकी अंतिम मुलाकात 3 मार्च 1931 को हुई। सभी उदास थे, परन्तु 23 वर्षीय भगतसिंह सदैव की तरह प्रसन्न रहते थे। फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद उनका वजन बढ़ गया था। उनसे विदा लेते समय तब 12 वर्षीय कुलतारसिंह जी की आँखों में आँसू थे। यह देखकर भगतसिंह मन ही मन दुखी हुए और उसी दिन उन्होंने एक पत्र लिखा जिसके कुछ उल्लेखनीय अंश हैं:
लाहौर सैन्ट्रल जेल
3 मार्च 1931
3 मार्च 1931
अजीज कुलतार
आज तुम्हारी आँखों के आँसू देखकर बहुत दु:ख हुआ। तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था। तुम्हारे आँसू मुझसे सहन नहीं होते। बरखुरदार हिम्मत से शिक्षा प्राप्त करना और सेहत का ख्याल रखना, और क्या कहूँ। अच्छा रुखसत।
खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं। हौसले से रहना नमस्ते।
आज तुम्हारी आँखों के आँसू देखकर बहुत दु:ख हुआ। तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था। तुम्हारे आँसू मुझसे सहन नहीं होते। बरखुरदार हिम्मत से शिक्षा प्राप्त करना और सेहत का ख्याल रखना, और क्या कहूँ। अच्छा रुखसत।
खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं। हौसले से रहना नमस्ते।
तुम्हारा भाई
भगतसिंह
भगतसिंह
8 अप्रैल 1929 को दिल्ली में स्थित केन्द्रीय असैम्बली में जो अब
पार्लियामेंट कहलाती है भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने इंकलाब जिन्दाबाद के
नारे लगाते हुए बम फेंका था। लेकिन किसी को मारने के उद्देश्य से नहीं,
बल्कि इस दावे के साथ कि ‘‘बहरों को सुनने के लिए
जोरदार
धमाके की जरूरत होती है।’’ आत्मसमर्पण करके गिरफ्तारी
दी।
अगले ही दिन देश भर के समाचार पत्रों में यह घटना छा गई। तब से ही बच्चे-बच्चे की जुबान से इंकलाब जिन्दाबाद और भगतसिंह जिन्दाबाद का नारा गूंजता चला आ रहा है। भारत के सन्दर्भ में भगतसिंह और इंकलाब (क्रांति) पर्यायवाची बन गए हैं। उनकी गिरफ्तारी के बाद सेशन जज की अदालत में उनका बयान क्रांति की उनकी परिभाषा को सुस्पष्ट करता है। उन्होंने कहा था-
‘‘पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है। क्रांति क्या है ? क्रांति में घातक संघर्षों का अनिवार्य स्थान नहीं है। न ही उसमें व्यक्तिगत रूप से प्रतिशोध लेने की ही गुंजाइश है। क्रांति, बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है। क्रांति से हमारा प्रयोजन यह है कि अन्याय पर आधारित वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन होना चाहिए।’’
ऐसी क्रांति की उनके आह्वान ने देश की तत्कालीन परिस्थितियों में विदेशी दासता से मुक्ति के अभियान में बलिदान देने की भावना जन-जन के हृदय में जगाई। उसके बाद लाहौर हाईकोर्ट में उनका एक और ऐतिहासिक बयान है जिसमें भगतसिंह ने अपने लक्ष्य को विस्तार के साथ स्पष्ट किया है। इनकी गहराई में जाने की महती आवश्यकता है कि कितनी कम उम्र में उन्होंने इस प्रकार विश्व भर में हुई क्रांतियों संबंधी विशद अध्ययन कर लिया था जिनके उदाहरण उन्होंने भरी अदालतों में दिए।
जेल में राजनीतिक कैदियों को सही दर्जा दिलाने के लिए उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर लम्बी भूख हड़ताल की जिसमें 63 दिनों बाद उनके क्रांतिकारी सहयोगी यतीन्द्ननाथ दास शहीद हो गए। भूख हड़ताल चलती रही और ज्यों-ज्यों समाचार पत्रों में इसकी खबरें छपीं देश भर में हाहाकार मचा। इनके समर्थन में लोगों के घरों में एक वक्त का चूल्हा तक जलना बंद हो गया। अंत में न्याय का ढोंग करते हुए अंग्रेज शासकों द्वारा जब भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई तो समूचे भारत में रोष की लहर दौड़ गई। सर्वत्र उन्हें फाँसी न दिए जाने की मांगें उठीं पर अपने प्राणों का बलिदान करने को कटिबद्ध ये महावीर अडिग थे।
जनता के प्रबल विरोध के बावजूद 23 मार्च 1931 को संध्या 7 बजकर 30 मिनट पर भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गई। उनके पार्थिव शरीर उनके परिवारों को न सौंपे जाकर टुकड़े-टुकड़े करके बोरियों में भरकर, रात के अंधेरे में जेल की दीवार के पीछे के रास्ते बाहर ले जाकर ट्रंक में लाद दिए गए। लाहौर में उन्हें फिरोजपुर ले जाया गया और अंधेरे में ही मिट्टी का तेल छिड़क कर जला दिया गया। अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में बहा दिया गया।
लोगों को भनक मिल गई। रोष का तूफान उमड़ा और देश का कोई नगर गांव ऐसा नहीं बचा जहाँ भगत सिंह का दिया गया नारा ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ नहीं गूंजा। हर दिल में उनका नाम था। हर घर और दुकान पर उनका चित्र लगा था। सब जगह वे ही वे थे। चित्र, पर्चे पोस्टर जिनमें भगतसिंह की चर्चा थी सरकार ने जब्त कर लिए लेकिन जिस तरह से लोगों के दिलो-दिमाग में समाते चले गए भगतसिंह इस पर उसका कोई बस न चला।
सदियों से भारत में वीर गाथाएं लोकगीतों से पीढ़ी दर पीढ़ी कही जाती रही हैं। बीसवीं शताब्दी में देश के लिए पुष्ट विचारवान संकल्प और वीरता के साथ बलिदान देने वाले भगतसिंह के बारे में जितने गीत, कविताएं, पुस्तकें लिखी गई हैं और फिल्में बनी हैं शायद ही किसी और वीर शहीद का इस प्रकार स्मरण किया गया हो। उनके जन्म शताब्दी वर्ष में प्रतीक स्वरूप अनेक नई पुस्तकें सामने आ रही हैं। इसी क्रम में श्री राजेश चेतन के सुयोग्य संपादन में विश्व भर के जाने माने कवियों की वीर रस प्रधान कविताओं का यह संग्रह ‘‘रंग दे बसंती चोला’’ समायोचित और सराहनीय प्रस्तुति है।
भगतसिंह की राष्ट्र-साधना की पूर्ति के प्रतीक 23 मार्च को उनके बलिदान दिवस पर भगतसिंह और समस्त शहीदों के प्रति अपने श्रद्धाभाव को अभिव्यक्त देने वाले कवियों की लेखिनी से निकले शब्द निश्चय युवापीढ़ी को भगतसिंह की तरह देश के लिए बड़े से बड़ा बलिदान देने की ऊर्जा प्रदान करेंगे।
अगले ही दिन देश भर के समाचार पत्रों में यह घटना छा गई। तब से ही बच्चे-बच्चे की जुबान से इंकलाब जिन्दाबाद और भगतसिंह जिन्दाबाद का नारा गूंजता चला आ रहा है। भारत के सन्दर्भ में भगतसिंह और इंकलाब (क्रांति) पर्यायवाची बन गए हैं। उनकी गिरफ्तारी के बाद सेशन जज की अदालत में उनका बयान क्रांति की उनकी परिभाषा को सुस्पष्ट करता है। उन्होंने कहा था-
‘‘पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है। क्रांति क्या है ? क्रांति में घातक संघर्षों का अनिवार्य स्थान नहीं है। न ही उसमें व्यक्तिगत रूप से प्रतिशोध लेने की ही गुंजाइश है। क्रांति, बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है। क्रांति से हमारा प्रयोजन यह है कि अन्याय पर आधारित वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन होना चाहिए।’’
ऐसी क्रांति की उनके आह्वान ने देश की तत्कालीन परिस्थितियों में विदेशी दासता से मुक्ति के अभियान में बलिदान देने की भावना जन-जन के हृदय में जगाई। उसके बाद लाहौर हाईकोर्ट में उनका एक और ऐतिहासिक बयान है जिसमें भगतसिंह ने अपने लक्ष्य को विस्तार के साथ स्पष्ट किया है। इनकी गहराई में जाने की महती आवश्यकता है कि कितनी कम उम्र में उन्होंने इस प्रकार विश्व भर में हुई क्रांतियों संबंधी विशद अध्ययन कर लिया था जिनके उदाहरण उन्होंने भरी अदालतों में दिए।
जेल में राजनीतिक कैदियों को सही दर्जा दिलाने के लिए उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर लम्बी भूख हड़ताल की जिसमें 63 दिनों बाद उनके क्रांतिकारी सहयोगी यतीन्द्ननाथ दास शहीद हो गए। भूख हड़ताल चलती रही और ज्यों-ज्यों समाचार पत्रों में इसकी खबरें छपीं देश भर में हाहाकार मचा। इनके समर्थन में लोगों के घरों में एक वक्त का चूल्हा तक जलना बंद हो गया। अंत में न्याय का ढोंग करते हुए अंग्रेज शासकों द्वारा जब भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई तो समूचे भारत में रोष की लहर दौड़ गई। सर्वत्र उन्हें फाँसी न दिए जाने की मांगें उठीं पर अपने प्राणों का बलिदान करने को कटिबद्ध ये महावीर अडिग थे।
जनता के प्रबल विरोध के बावजूद 23 मार्च 1931 को संध्या 7 बजकर 30 मिनट पर भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गई। उनके पार्थिव शरीर उनके परिवारों को न सौंपे जाकर टुकड़े-टुकड़े करके बोरियों में भरकर, रात के अंधेरे में जेल की दीवार के पीछे के रास्ते बाहर ले जाकर ट्रंक में लाद दिए गए। लाहौर में उन्हें फिरोजपुर ले जाया गया और अंधेरे में ही मिट्टी का तेल छिड़क कर जला दिया गया। अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में बहा दिया गया।
लोगों को भनक मिल गई। रोष का तूफान उमड़ा और देश का कोई नगर गांव ऐसा नहीं बचा जहाँ भगत सिंह का दिया गया नारा ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ नहीं गूंजा। हर दिल में उनका नाम था। हर घर और दुकान पर उनका चित्र लगा था। सब जगह वे ही वे थे। चित्र, पर्चे पोस्टर जिनमें भगतसिंह की चर्चा थी सरकार ने जब्त कर लिए लेकिन जिस तरह से लोगों के दिलो-दिमाग में समाते चले गए भगतसिंह इस पर उसका कोई बस न चला।
सदियों से भारत में वीर गाथाएं लोकगीतों से पीढ़ी दर पीढ़ी कही जाती रही हैं। बीसवीं शताब्दी में देश के लिए पुष्ट विचारवान संकल्प और वीरता के साथ बलिदान देने वाले भगतसिंह के बारे में जितने गीत, कविताएं, पुस्तकें लिखी गई हैं और फिल्में बनी हैं शायद ही किसी और वीर शहीद का इस प्रकार स्मरण किया गया हो। उनके जन्म शताब्दी वर्ष में प्रतीक स्वरूप अनेक नई पुस्तकें सामने आ रही हैं। इसी क्रम में श्री राजेश चेतन के सुयोग्य संपादन में विश्व भर के जाने माने कवियों की वीर रस प्रधान कविताओं का यह संग्रह ‘‘रंग दे बसंती चोला’’ समायोचित और सराहनीय प्रस्तुति है।
भगतसिंह की राष्ट्र-साधना की पूर्ति के प्रतीक 23 मार्च को उनके बलिदान दिवस पर भगतसिंह और समस्त शहीदों के प्रति अपने श्रद्धाभाव को अभिव्यक्त देने वाले कवियों की लेखिनी से निकले शब्द निश्चय युवापीढ़ी को भगतसिंह की तरह देश के लिए बड़े से बड़ा बलिदान देने की ऊर्जा प्रदान करेंगे।
वीरेन्द्र सिंधु
शहीद भगतसिंह की भतीजी
लेखिका ‘‘युगद्रष्टा भगतसिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे’’
लन्दन यू. के.
शहीद भगतसिंह की भतीजी
लेखिका ‘‘युगद्रष्टा भगतसिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे’’
लन्दन यू. के.
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लोगों की राय
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