नारी विमर्श >> स्त्री शक्ति स्त्री शक्तिकिरण बेदी
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जैसा मैंने देखा संकलन में उन्होंने अपने व्यक्तिगत अनुभवों को आधार बनाकर यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि कारगर और प्रभावशाली हस्तक्षेप व्यवस्था और सामाजिक कुरीतियों के शिकार और खासकर महिलाओं को उनका हक दिलवाया जा सकता है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
स्त्री शक्ति जैसा मैंने देखा ......
किरण बेदी एक संवेदनशील पुलिस अधिकारी हैं। उन्होंने खाकी वर्दी को नयी गरिमा प्रदान की है। समाज में गैर–बराबरी, अन्याय और जुल्म उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं होते। ‘जैसा मैंने देखा’ संकलन में उन्होंने अपने व्यक्तिगत अनुभवों को आधार बनाकर यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि कारगर और प्रभावशाली हस्तक्षेप व्यवस्था और सामाजिक कुरीतियों के शिकार और खासकर महिलाओं को उनका हक दिलवाया जा सकता है और उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ने को प्रेरित किया जा सकता है। एक बार पढ़ना शुरू करने पर आप इसे छोड़ नहीं पाएंगे।
यह पुस्तक क्यों
जैसा मैंने देखा, सुना तथा महसूस किया उस पर मेरी क्या प्रतिक्रिया होती ?—चाहती तो नजरअंदाज कर सकती थी, टाल सकती थी या उस पर अपनी बात कह सकती थी। मेरे लिए यह जरूरी हो गया था कि जो कुछ मैंने अंदर महसूस किया, उसको लिखूं। इसलिए मैंने ‘ट्रिब्यून’ तथा पंजाब केसरी’ में लिखने का विचार बनाया। इसके अलावा अन्य समाचार-पत्रों के आग्रह को भी स्वीकार किया। फिर ये मेरी सोच तथा चिन्तन का हिस्सा बन गये।
हर लेख को मैंने अपना दिल दिमाग एक करके लिखा। ऐसा करने के बाद मैंने ऐसे पक्षी की तरह महसूस किया जो उड़ने के लिए स्वतंत्र हो।
मेरे लेखों का दूसरों के लिए कितना महत्त्व है यह मैं नहीं जानती लेकिन जो कुछ मैंने देखा तथा सुना उसे मैंने लिखने की जरूरत महसूस की। ऐसा मैं आगे भी करती रहूंगी।
हर लेख को मैंने अपना दिल दिमाग एक करके लिखा। ऐसा करने के बाद मैंने ऐसे पक्षी की तरह महसूस किया जो उड़ने के लिए स्वतंत्र हो।
मेरे लेखों का दूसरों के लिए कितना महत्त्व है यह मैं नहीं जानती लेकिन जो कुछ मैंने देखा तथा सुना उसे मैंने लिखने की जरूरत महसूस की। ऐसा मैं आगे भी करती रहूंगी।
1
धुँधला फिर भी गतिशील
मुझे याद है, पिताजी ने मेरी बहन को उसके जन्मदिन पर एक एंटीक कैमरा भेंट किया था। वह कैमरा एक बार में एक ही निगेटिव निकाल सकता था। कैमरा उसी समय इस्तेमाल करने की इच्छा से, उसने हम सब को एक साथ खड़ा किया और शॉट लेने को तैयार हो गई। हालांकि वह एक साउंड रिकॉर्डर था लेकिन फिर भी उसने हमसे कहा कि हम सब ‘चीज़’ कहें। उसने क्लिक करने में पूरा समय लिया। तस्वीर सामने आई तो वह चौंक गई।
तस्वीर काफी धुँधली थी। वह चिल्लाई—‘सब चले गए’। औरतों की दुनिया में भी बहुत कुछ बदल गया है। दुनिया अब पहले जैसी नहीं रही। यह नाटकीय रूप से अच्छाई और बुराई के लिए लगातार बदली है। एक जगह ऐसी है, जहाँ पर बुरे रूप में बदली है। वह है ‘अफगानिस्तान’। मैंने टी.वी. में एक ऐसा दृश्य देखा, जिसे भुलाया नहीं जा सकता—नीले बुर्के वाली महिलाओं के एक समूह की टांगों व पीठ पर कोड़े बरसाये जा रहे थे। उनका कसूर यह था कि वे किसी मर्द (चौधरी) के बिना सड़क पर पाई गई थीं।
एक और मामले में, एक औरत का अंगूठा सिर्फ इसलिए काट दिया गया क्योंकि उसने नेलपॉलिश लगा रखी थी। औरतें अब लोगों के बीच दिखाई नहीं देतीं। पहले अफगानिस्तानी औरतों के पति जब युद्ध के लिए जाते थे तो वे घर से बाहर काम पर जाती थीं लेकिन अब वे घरों से बाहर काम नहीं कर सकतीं। शिक्षा भी मर्दों के कब्जे में है। वहां आज 2002 में मुश्किल से 15 महिलाएँ पढ़-लिख पाती हैं। उनकी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के लिए कोई महिला डॉक्टरों के पास नहीं जा सकती। मैंने टी.वी. पर एक अफगान नर्स का इंटरव्यू देखा था। वह काबुल में नर्स रह चुकी थी। उसने बताया कि उसे बच्चों का पेट भरने के लिए सड़कों पर भीख तक मांगनी पड़ी। वह इससे अधिक क्या कर सकती थी।
आज धर्म और उसके गलत इस्तेमाल के नाम पर, तालिबान ने औरतों को गुलाम बना रखा है। हकीकत में तिहाड़ जेल की कैदी महिलाओं को भी अफगानी महिलाओं से ज्यादा आज़ादी है।
अब मैं बहन द्वारा खींची गई तस्वीर और कैमरे पर लौटती हूँ। जहाँ तक और अफगानी महिलाएँ गहरे कुएँ में छिपी हैं वहीं असंख्य औरतें ऊँचाइयों तक जा रही हैं। उन्हें पूरी शिक्षा व प्रशिक्षण मिल रहा है। वे अपने रास्ते और मंजिलें खुद चुन रही हैं। वे खुद आगे आ रही हैं या सहारा ले रही हैं। कोई भी क्षेत्र उनकी पहुँच से अछूता नहीं है। चाहे वह डिफेंस, सरकारी प्रशासन, शिक्षा, सृजनशीलता, कार्पोरेट प्रबंध, विज्ञान, मेडीकल शोध व शारीरिक शक्ति प्रदर्शन का ही क्षेत्र क्यों न हो। यह उपलब्ध संसाधनों के बेहतर उपयोग का मुद्दा है।घरेलू मोर्चे पर भी, तस्वीर काफी हद तक बदली है औरतें साथी के चुनाव में भी आजादी मांग रही हैं। अब दहेज दिखाने के पंडाल नहीं सजते। परिवार छोटे हैं। महिलाओं को मातृत्व का सही समय चुनने की आजादी है ताकि वे मातृत्व और पेशे के बीच संतुलन बना सकें। इस वर्ग की महिलाओं के लिए हालात बदले हैं या उन्होंने उन हालातों को अपने लिए बदला है। वे धुंधलके से बाहर आई हैं। लेकिन ऐसी किस्मत और साहस वाली महिलाएँ कम ही हैं।
भारत में काफी बड़ा महिला वर्ग अब भी धुँधलके में ही जी रहा है। आज भी उन्हें शिक्षा का मतलब नहीं पता। उन्हें अपनी मर्जी से शिक्षा पाने का हक तक नहीं ? वह किससे, कब और कहाँ शादी करेंगी ? क्या उसके पति और सास-ससुर उसे घर से बाहर काम करने की आजादी देंगे ? क्या उसका अपनी कमाई पर हक होगा ? क्या वह जरूरत पड़ने पर मायके वालों की मदद कर पाएगी ? क्या उसका पति की कमाई पर हक होगा ? क्या उसे मातृत्व से जुड़े अधिकार मिलेंगे ? क्या वह नौकरी की मांग पर पति के घर से दूर नहीं रह सकती है ? क्या वह घरेलू मदद के लिए किसी को रख सकती है ? क्या वह जरूरत पड़ने पर मायके लौट सकती हैं या फिर वह उसका घर नहीं रहेगा ?
भारत में महिलाओं के लिए तस्वीर कुछ बदली तो है लेकिन अब भी बहुत सी औरतें धुंधलके में हैं। ये प्रश्न उन्हीं अंधेरों के परिणाम हैं।
भारत में महिलाओं के लिए तस्वीर बदली तो है लेकिन अब भी बहुत सी औरतें धुंधलके में हैं।
तस्वीर काफी धुँधली थी। वह चिल्लाई—‘सब चले गए’। औरतों की दुनिया में भी बहुत कुछ बदल गया है। दुनिया अब पहले जैसी नहीं रही। यह नाटकीय रूप से अच्छाई और बुराई के लिए लगातार बदली है। एक जगह ऐसी है, जहाँ पर बुरे रूप में बदली है। वह है ‘अफगानिस्तान’। मैंने टी.वी. में एक ऐसा दृश्य देखा, जिसे भुलाया नहीं जा सकता—नीले बुर्के वाली महिलाओं के एक समूह की टांगों व पीठ पर कोड़े बरसाये जा रहे थे। उनका कसूर यह था कि वे किसी मर्द (चौधरी) के बिना सड़क पर पाई गई थीं।
एक और मामले में, एक औरत का अंगूठा सिर्फ इसलिए काट दिया गया क्योंकि उसने नेलपॉलिश लगा रखी थी। औरतें अब लोगों के बीच दिखाई नहीं देतीं। पहले अफगानिस्तानी औरतों के पति जब युद्ध के लिए जाते थे तो वे घर से बाहर काम पर जाती थीं लेकिन अब वे घरों से बाहर काम नहीं कर सकतीं। शिक्षा भी मर्दों के कब्जे में है। वहां आज 2002 में मुश्किल से 15 महिलाएँ पढ़-लिख पाती हैं। उनकी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के लिए कोई महिला डॉक्टरों के पास नहीं जा सकती। मैंने टी.वी. पर एक अफगान नर्स का इंटरव्यू देखा था। वह काबुल में नर्स रह चुकी थी। उसने बताया कि उसे बच्चों का पेट भरने के लिए सड़कों पर भीख तक मांगनी पड़ी। वह इससे अधिक क्या कर सकती थी।
आज धर्म और उसके गलत इस्तेमाल के नाम पर, तालिबान ने औरतों को गुलाम बना रखा है। हकीकत में तिहाड़ जेल की कैदी महिलाओं को भी अफगानी महिलाओं से ज्यादा आज़ादी है।
अब मैं बहन द्वारा खींची गई तस्वीर और कैमरे पर लौटती हूँ। जहाँ तक और अफगानी महिलाएँ गहरे कुएँ में छिपी हैं वहीं असंख्य औरतें ऊँचाइयों तक जा रही हैं। उन्हें पूरी शिक्षा व प्रशिक्षण मिल रहा है। वे अपने रास्ते और मंजिलें खुद चुन रही हैं। वे खुद आगे आ रही हैं या सहारा ले रही हैं। कोई भी क्षेत्र उनकी पहुँच से अछूता नहीं है। चाहे वह डिफेंस, सरकारी प्रशासन, शिक्षा, सृजनशीलता, कार्पोरेट प्रबंध, विज्ञान, मेडीकल शोध व शारीरिक शक्ति प्रदर्शन का ही क्षेत्र क्यों न हो। यह उपलब्ध संसाधनों के बेहतर उपयोग का मुद्दा है।घरेलू मोर्चे पर भी, तस्वीर काफी हद तक बदली है औरतें साथी के चुनाव में भी आजादी मांग रही हैं। अब दहेज दिखाने के पंडाल नहीं सजते। परिवार छोटे हैं। महिलाओं को मातृत्व का सही समय चुनने की आजादी है ताकि वे मातृत्व और पेशे के बीच संतुलन बना सकें। इस वर्ग की महिलाओं के लिए हालात बदले हैं या उन्होंने उन हालातों को अपने लिए बदला है। वे धुंधलके से बाहर आई हैं। लेकिन ऐसी किस्मत और साहस वाली महिलाएँ कम ही हैं।
भारत में काफी बड़ा महिला वर्ग अब भी धुँधलके में ही जी रहा है। आज भी उन्हें शिक्षा का मतलब नहीं पता। उन्हें अपनी मर्जी से शिक्षा पाने का हक तक नहीं ? वह किससे, कब और कहाँ शादी करेंगी ? क्या उसके पति और सास-ससुर उसे घर से बाहर काम करने की आजादी देंगे ? क्या उसका अपनी कमाई पर हक होगा ? क्या वह जरूरत पड़ने पर मायके वालों की मदद कर पाएगी ? क्या उसका पति की कमाई पर हक होगा ? क्या उसे मातृत्व से जुड़े अधिकार मिलेंगे ? क्या वह नौकरी की मांग पर पति के घर से दूर नहीं रह सकती है ? क्या वह घरेलू मदद के लिए किसी को रख सकती है ? क्या वह जरूरत पड़ने पर मायके लौट सकती हैं या फिर वह उसका घर नहीं रहेगा ?
भारत में महिलाओं के लिए तस्वीर कुछ बदली तो है लेकिन अब भी बहुत सी औरतें धुंधलके में हैं। ये प्रश्न उन्हीं अंधेरों के परिणाम हैं।
भारत में महिलाओं के लिए तस्वीर बदली तो है लेकिन अब भी बहुत सी औरतें धुंधलके में हैं।
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