विविध >> भारतीय पुलिस भारतीय पुलिसकिरण बेदी
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21 अक्टूबर ! पुलिस सेवा के लिए महत्त्वपूर्ण दिवस है। यह वो दिन है जब आम नागरिक पुलिस को नजदीक से जान सके।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भारतीय पुलिस जैसा मैंने देखा ......
किरण बेदी एक संवेदनशील पुलिस अधिकारी हैं। उन्होंने खाकी वर्दी को नयी गरिमा प्रदान की है। समाज में गैर–बराबरी, अन्याय और जुल्म उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं होते। ‘जैसा मैंने देखा’ संकलन में उन्होंने अपने व्यक्तिगत अनुभवों को आधार बनाकर यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि कारगर और प्रभावशाली हस्तक्षेप व्यवस्था और सामाजिक कुरीतियों के शिकार और खासकर महिलाओं को उनका हक दिलवाया जा सकता है और उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ने को प्रेरित किया जा सकता है। एक बार पढ़ना शुरू करने पर आप इसे छोड़ नहीं पाएंगे।
यह पुस्तक क्यों
जैसा मैंने देखा, सुना तथा महसूस किया उस पर मेरी क्या प्रतिक्रिया होती ?—चाहती तो नजरअंदाज कर सकती थी, टाल सकती थी या उस पर अपनी बात कह सकती थी। मेरे लिए यह जरूरी हो गया था कि जो कुछ मैंने अंदर महसूस किया, उसको लिखूं। इसलिए मैंने ‘ट्रिब्यून’ तथा पंजाब केसरी’ में लिखने का विचार बनाया। इसके अलावा अन्य समाचार-पत्रों के आग्रह को भी स्वीकार किया। फिर ये मेरी सोच तथा चिन्तन का हिस्सा बन गये।
हर लेख को मैंने अपना दिल दिमाग एक करके लिखा। ऐसा करने के बाद मैंने ऐसे पक्षी की तरह महसूस किया जो उड़ने के लिए स्वतंत्र हो।
मेरे लेखों का दूसरों के लिए कितना महत्त्व है यह मैं नहीं जानती लेकिन जो कुछ मैंने देखा तथा सुना उसे मैंने लिखने की जरूरत महसूस की। ऐसा मैं आगे भी करती रहूंगी।
हर लेख को मैंने अपना दिल दिमाग एक करके लिखा। ऐसा करने के बाद मैंने ऐसे पक्षी की तरह महसूस किया जो उड़ने के लिए स्वतंत्र हो।
मेरे लेखों का दूसरों के लिए कितना महत्त्व है यह मैं नहीं जानती लेकिन जो कुछ मैंने देखा तथा सुना उसे मैंने लिखने की जरूरत महसूस की। ऐसा मैं आगे भी करती रहूंगी।
आभार
आभार
मैं तहे दिल से श्री हरि जय सिंह, तत्कालीन संपादक, द ट्रिब्यून तथा श्रीमती किरण चोपड़ा, डायरेक्टर, पंजाब केसरी का आभार व्यक्त करती हूं जिनके आग्रह पर मैंने ‘रिफ्लेक्शन’ तथा ‘चेतना’ स्तम्भों में लगातार योगदान दिया।
मैं श्री रुपिंदर सिंह, सह-सम्पादक, द ट्रिब्यून व अतुल भारद्वाज का भी आभार व्यक्त करना चाहूंगी जिन्होंने स्तंभ को इस प्रकार व्यवस्थित किया कि जिसे पाठकों ने बेहद सराहा तथा अतुल जी ने बड़े ही शानदार ढंग से हिन्दी अनुवाद किया।
सुश्री कामिनी गोगिया तथा श्री सुरेश त्यागी की भी आभारी हूं जिनके सहयोग के बगैर मैं अपने कार्य को समय से अंजाम नहीं दे पाती।
मैं अपने परिवार के सहयोग को भी भुला नहीं पाऊंगी जिनके सहयोग के बगैर रिफ्लेक्ट करना संभव नहीं था। मैं श्री नरेन्द्र कुमार, मैनेजिंग डायरेक्टर, फ्यूजन बुक्स की भी आभारी हूँ जिन्होंने मेरे अनुभवों को हिन्दी में पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया।
मैं श्री रुपिंदर सिंह, सह-सम्पादक, द ट्रिब्यून व अतुल भारद्वाज का भी आभार व्यक्त करना चाहूंगी जिन्होंने स्तंभ को इस प्रकार व्यवस्थित किया कि जिसे पाठकों ने बेहद सराहा तथा अतुल जी ने बड़े ही शानदार ढंग से हिन्दी अनुवाद किया।
सुश्री कामिनी गोगिया तथा श्री सुरेश त्यागी की भी आभारी हूं जिनके सहयोग के बगैर मैं अपने कार्य को समय से अंजाम नहीं दे पाती।
मैं अपने परिवार के सहयोग को भी भुला नहीं पाऊंगी जिनके सहयोग के बगैर रिफ्लेक्ट करना संभव नहीं था। मैं श्री नरेन्द्र कुमार, मैनेजिंग डायरेक्टर, फ्यूजन बुक्स की भी आभारी हूँ जिन्होंने मेरे अनुभवों को हिन्दी में पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया।
1
पुलिस कीर्ति दिवस
क्या आप जानते हैं कि पुलिस कीर्ति दिवस क्या है ? और यह किस दिन मनाया जाता है ? मुझे संदेह है कि लोगों को इस दिन और इसके महत्त्व के बारे में थोड़ा बहुत ही पता होगा। गत 21 अक्टूबर को मनाए गए इस दिवस पर मीडिया की अनुपस्थिति से सचमुच मुझे बहुत दुःख हुआ। पुलिस के सम्मान के प्रतीक इस दिवस को मीडिया ने एकदम महत्त्वहीन करार दिया वाकई यह दुःखी करने वाली बात है। हर राज्य का पुलिस बल उन बहादुर पुलिस वालों की याद में इस दिवस का आयोजन करता है, जिन्होंने जनता एवं शांति की रक्षा के लिए अपना जीवन कुर्बान कर दिया। ज्यादातर यही होता है कि इन परेडों में लोगों की उपस्थिति बहुत कम होती है। मैं दिल्ली पुलिस द्वारा आयोजित परेडों की गवाह रह चुकी हूं। मैंने इस परेड की कवरेज के लिए एक-दो मीडिया कर्मियों को तो जरूर देखा है, परंतु शाम की खबरों हेतु ‘टेलीविजन कवरेज’ के लिए वहां कोई भी मीडिया कर्मी उपस्थित नहीं था। यहां तक कि अगले दिन अधिकतर समाचार पत्रों ने भी इस दिवस के बारे में कोई खबर नहीं छापी। अतः मैंने अपने आपसे पूछा ऐसा क्यों हुआ ? इस, देश के 13 लाख से ज्यादा कर्मचारियों (पुलिस कर्मियों) के इस महत्त्वपूर्ण दिन को मीडिया कैसे नकार सकता है ?
प्रतिवर्ष लगभग 1000 पुलिसकर्मी अपना फर्ज निभाते हुए शहीद होते हैं, लेकिन इनमें से किसी को भी अपने कार्यों और फर्ज को अंजाम देते हुए शहीद हो जाने पर मीडिया की ओर से सराहना नहीं मिलती, न ही उनके बलिदानों की कहानी लोगों तक पहुँचती है। दरअसल फर्ज की बेदी पर अपनी जान कुर्बान करने वाले ये सिपाही छिपे हुए नायक होते हैं।
5 नवम्बर 1963 को जयपुर में पुलिस स्मारक का उद्घा़टन करते हुए पंडित नेहरू जी ने कहा था—‘हम प्रायः पुलिसकर्मी को अपना फर्ज पूरा करते देखते रहते हैं और अक्सर हम उनकी आलोचना करते हैं। उन पर आरोप भी लगाते हैं जिनमें से कुछ सच भी साबित हो जाते हैं, कुछ गलत, पर हम भूल जाते हैं कि ये लोग कितना कठिन कार्य करते हैं। आज हमें उनकी सेवा के उस नजरिए को देखना है जिसमें वो दूसरों की जान व माल की रक्षाके बदले अपनी जिन्दगी से समझौता कर लेते हैं।’’ देश के प्रथम प्रधानमंत्री के 1963 में पुलिस कर्मियों के बारे में यही उद्गार थे।
आज हम 2003 में हैं और विगत वर्ष इस उत्सव पर देश के किसी भी नेता ने राष्ट्र के नाम कोई संदेश नहीं दिया, न तो प्रधानमंत्री ने और न ही गृहमंत्री ने इस गरिमापूर्ण अवसर पर कुछ कहा (कम से कम सार्वजनिक स्तर पर सरकार की ओर से कुछ भी किए जाने की सूचना जनता को नहीं है)। यह दिवस संकल्प का दिवस था। विशेषकर तब जब संपूर्ण देश की आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी हर पुलिस अधिकारी की योग्यता पर निर्भर है। इस अवसर के लिए कुछ ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता है जो इस प्रकार हैं :
21 अक्टूबर को राष्ट्रीय पुलिस दिवस घोषित किया जाए।
देश की राजधानी में पुलिस स्मारक होना चाहिए जहां से राष्ट्रपति राष्ट्र की ओर से बहादुर शहीदों को श्रृद्धांजलि दें। उन्हें याद करें।
प्रांतीय स्तर पर भी हर राज्य में ऐसे स्मारक बनाए जाएं, ताकि राज्यपाल नागरिकों की तरफ से पुलिस के शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित कर सकें।
इन राष्ट्रीय व प्रांतीय स्मारकों को असाधारण सेवा व देशभक्ति का प्रतीक माना जाना चाहिए।
वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को ड्यूटी चार्ज सौंपने व लेने का कार्य भी इसी दिवस को शुरू करना होगा।
दूसरे देशों में जब इन दिवसों का आयोजन होता है तो वहां इसे पूरे सप्ताह तक मनाया जाता है। इसमें कुछ और गतिविधियां भी शामिल की जाती हैं जिसमें सामाजिक व राजनीतिक नेता अपने विचार प्रकट करते हैं।
टेलीविजन के दर्शकों को शायद स्मरण होगा कि 11 सितम्बर 2001 की घटना के तुरंत बाद अमरीकी राष्ट्रपति बुश ने कांग्रेस को संबोधित करते अपनी जेब से एक पदक निकाला व दिखाया। ये एक पुलिसकर्मी का पदक था जो विश्व व्यापार केन्द्र में अपनी सेवा के दौरान शहीद हुआ था। ये पदक राष्ट्रपति बुश को उस पुलिसकर्मी की माता ने तब दिया था जब वे उसके परिवार से मिलने गए थे। राष्ट्रपति द्वारा पदक दिखाने और उस पुलिसकर्मी की सेवा का जिक्र करने पर कांग्रेस के सभी सदस्यों ने उस पुलिसकर्मी की सेवा और संपूर्ण बल के प्रति अपना सम्मान, आभार और श्रद्धांजलि व्यक्त की। आज हमारे पुलिसकर्मी ठुकराए हुए, वंचित, असुरक्षा की भावना लिए हुए व थके हुए हैं। अगर वे ईमानदार हैं तो वे अकेले हैं। अगर वे शहीद होते हैं तो उनका परिवार अकेले ही दुःख झेलता है। देश उन्हें भूल जाता है। इसमें हैरानी नहीं होनी चाहिए कि जब दुनियादारी में निपुण कुछ पुलिसकर्मी अपने व अपने परिवार के सुरक्षित वर्तमान व भविष्य के लिए अपने आपको समर्पण से रोकते हैं और इसके लिए वो राष्ट्र सुरक्षा के साथ समझौता भी करते हैं।
21 अक्टूबर पुलिस सेवा के लिए महत्त्वपूर्ण दिवस है। ये वो दिन है जब आम नागरिक पुलिस को नजदीक से जान सके और बहादुर नौजवानों को इस सेवा से जुड़ने के लिए कैसे उत्साहित कर पाएँगे। हमारे लिए बहुत जरूरी है कि हम उन रास्तों को हमेशा याद रखें जिन पर चलकर हमें ये मालूम हुआ है कि एक राष्ट्र के रूप में हम कौन हैं और क्या हैं।
प्रतिवर्ष लगभग 1000 पुलिसकर्मी अपना फर्ज निभाते हुए शहीद होते हैं, लेकिन इनमें से किसी को भी अपने कार्यों और फर्ज को अंजाम देते हुए शहीद हो जाने पर मीडिया की ओर से सराहना नहीं मिलती, न ही उनके बलिदानों की कहानी लोगों तक पहुँचती है। दरअसल फर्ज की बेदी पर अपनी जान कुर्बान करने वाले ये सिपाही छिपे हुए नायक होते हैं।
5 नवम्बर 1963 को जयपुर में पुलिस स्मारक का उद्घा़टन करते हुए पंडित नेहरू जी ने कहा था—‘हम प्रायः पुलिसकर्मी को अपना फर्ज पूरा करते देखते रहते हैं और अक्सर हम उनकी आलोचना करते हैं। उन पर आरोप भी लगाते हैं जिनमें से कुछ सच भी साबित हो जाते हैं, कुछ गलत, पर हम भूल जाते हैं कि ये लोग कितना कठिन कार्य करते हैं। आज हमें उनकी सेवा के उस नजरिए को देखना है जिसमें वो दूसरों की जान व माल की रक्षाके बदले अपनी जिन्दगी से समझौता कर लेते हैं।’’ देश के प्रथम प्रधानमंत्री के 1963 में पुलिस कर्मियों के बारे में यही उद्गार थे।
आज हम 2003 में हैं और विगत वर्ष इस उत्सव पर देश के किसी भी नेता ने राष्ट्र के नाम कोई संदेश नहीं दिया, न तो प्रधानमंत्री ने और न ही गृहमंत्री ने इस गरिमापूर्ण अवसर पर कुछ कहा (कम से कम सार्वजनिक स्तर पर सरकार की ओर से कुछ भी किए जाने की सूचना जनता को नहीं है)। यह दिवस संकल्प का दिवस था। विशेषकर तब जब संपूर्ण देश की आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी हर पुलिस अधिकारी की योग्यता पर निर्भर है। इस अवसर के लिए कुछ ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता है जो इस प्रकार हैं :
21 अक्टूबर को राष्ट्रीय पुलिस दिवस घोषित किया जाए।
देश की राजधानी में पुलिस स्मारक होना चाहिए जहां से राष्ट्रपति राष्ट्र की ओर से बहादुर शहीदों को श्रृद्धांजलि दें। उन्हें याद करें।
प्रांतीय स्तर पर भी हर राज्य में ऐसे स्मारक बनाए जाएं, ताकि राज्यपाल नागरिकों की तरफ से पुलिस के शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित कर सकें।
इन राष्ट्रीय व प्रांतीय स्मारकों को असाधारण सेवा व देशभक्ति का प्रतीक माना जाना चाहिए।
वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को ड्यूटी चार्ज सौंपने व लेने का कार्य भी इसी दिवस को शुरू करना होगा।
दूसरे देशों में जब इन दिवसों का आयोजन होता है तो वहां इसे पूरे सप्ताह तक मनाया जाता है। इसमें कुछ और गतिविधियां भी शामिल की जाती हैं जिसमें सामाजिक व राजनीतिक नेता अपने विचार प्रकट करते हैं।
टेलीविजन के दर्शकों को शायद स्मरण होगा कि 11 सितम्बर 2001 की घटना के तुरंत बाद अमरीकी राष्ट्रपति बुश ने कांग्रेस को संबोधित करते अपनी जेब से एक पदक निकाला व दिखाया। ये एक पुलिसकर्मी का पदक था जो विश्व व्यापार केन्द्र में अपनी सेवा के दौरान शहीद हुआ था। ये पदक राष्ट्रपति बुश को उस पुलिसकर्मी की माता ने तब दिया था जब वे उसके परिवार से मिलने गए थे। राष्ट्रपति द्वारा पदक दिखाने और उस पुलिसकर्मी की सेवा का जिक्र करने पर कांग्रेस के सभी सदस्यों ने उस पुलिसकर्मी की सेवा और संपूर्ण बल के प्रति अपना सम्मान, आभार और श्रद्धांजलि व्यक्त की। आज हमारे पुलिसकर्मी ठुकराए हुए, वंचित, असुरक्षा की भावना लिए हुए व थके हुए हैं। अगर वे ईमानदार हैं तो वे अकेले हैं। अगर वे शहीद होते हैं तो उनका परिवार अकेले ही दुःख झेलता है। देश उन्हें भूल जाता है। इसमें हैरानी नहीं होनी चाहिए कि जब दुनियादारी में निपुण कुछ पुलिसकर्मी अपने व अपने परिवार के सुरक्षित वर्तमान व भविष्य के लिए अपने आपको समर्पण से रोकते हैं और इसके लिए वो राष्ट्र सुरक्षा के साथ समझौता भी करते हैं।
21 अक्टूबर पुलिस सेवा के लिए महत्त्वपूर्ण दिवस है। ये वो दिन है जब आम नागरिक पुलिस को नजदीक से जान सके और बहादुर नौजवानों को इस सेवा से जुड़ने के लिए कैसे उत्साहित कर पाएँगे। हमारे लिए बहुत जरूरी है कि हम उन रास्तों को हमेशा याद रखें जिन पर चलकर हमें ये मालूम हुआ है कि एक राष्ट्र के रूप में हम कौन हैं और क्या हैं।
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