नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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कालिदास द्वारा रचित संस्कृत कृतियों का हिन्दी में रूपान्तर...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कालिदास संस्कृत साहित्य के सबसे बड़े कवि हैं। उन्होंने तीन काव्य और तीन
नाटक लिखे हैं। उनके ये काव्य रघुवंश, कुमारसम्भव और मेघदूत हैं और नाटक
अभिज्ञान शाकुन्तल, मालविकाग्निमित्र और विक्रमोर्वशीय हैं। इनके अतिरिक्त
ऋतुसंहार भी कालिदास का ही लिखा हुआ कहा जाता है। इतना ही नहीं, लगभग
पैंतीस अन्य पुस्तकें भी कालिदास-रचित कही जाती हैं। ये सब रचनाएँ कालिदास
के काव्य-सौन्दर्य पर एक दृष्टिपात भर करने लगे हैं। इन तीन नाटकों और तीन
काव्यों को तो असंदिग्ध रूप से कालिदास-रचित ही माना जाता है।
कालिदास का स्थान और काल
परन्तु विद्वानों में इस बात पर ही गहरा मतभेद है कि यह कालिदास कौन थे ?
कहां के रहने वाले थे ? और कालिदास नाम का एक ही कवि था, अथवा इस नाम के
कई कवि हो चुके हैं ? कुछ विद्वानों ने कालिदास को उज्जयिनी-निवाली माना
है, क्योंकि उनकी रचनाओं में उज्जयिनी, महाकाल, मालवदेश तथा क्षिप्रा आदि
के वर्णन अनेक स्थानों पर और विस्तार-पूर्वक हुए हैं। परन्तु दूसरी ओर
हिमालय, गंगा और हिमालय की उपत्यकाओं का वर्णन भी कालिदास ने विस्तार से
और रसमग्न होकर किया है। इससे कुछ विद्वानों का विचार है कि ये महाकवि
हिमालय के आसपास के रहने वाले थे। बंगाली विद्वानों ने कालिदास को बंगाली
सिद्ध करने का प्रयत्न किया है और कुछ लोगों ने उन्हें कश्मीरी बतलाया है।
इस विषय में निश्चय के साथ कुछ भी कह पाना कठिन है कि कालिदास कहां के
निवासी थे। भारतीय कवियों की परम्परा के अनुसार उन्होंने अपने परिचय के
लिए अपने इतने बड़े साहित्य में कहीं एक पंक्ति भी नहीं लिखी। कालिदास ने
जिन-जिन स्थानों का विशेष रूप से वर्णन किया है, उनके आधार पर केवल इतना
अनुमान लगाया जा सकता है कि कालिदास ने उन स्थानों को भली-भांति देखा था।
इस प्रकार के स्थान एक नहीं, अनेक हैं; और वे एक-दूसरे से काफी दूर-दूर
हैं। फिर भी कालिदास का अनुराग दो स्थानों की ओर विशेष रूप से लक्षित होता
है-एक उज्जयिनी और दूसरे हिमालय की उपत्यका। इससे मोटे तौर पर इतना अनुमान
किया जा सकता है कि कालिदास के जीवन का पर्याप्त समय इन दोनों स्थानों में
व्यतीत हुआ होगा। और यदि हम इस जनश्रुति में सत्य का कुछ भी अंश मानें कि
कालिदास विक्रमादित्य की राजसभा के नवरत्नों में से एक थे, तो हमारे लिए
यह अनुमान करना और सुगम हो जाएगा कि उनका यौवनकाल उज्जयिनी के महाराज
विक्रमादित्य की राजसभा में व्यतीत हुआ। विक्रमादित्य उज्जयिनी के नरेश
कहे जाते हैं। यद्यपि कालिदास की ही भांति विद्वानों में महाराज
विक्रमादित्य के विषय में भी उतना ही गहरा मतभेद है; किन्तु इस सम्बन्ध
में अविच्छिन्न रूप से चली आ रही विक्रम संवत् की अखिल भारतीय परम्परा
हमारा कुछ मार्ग-दर्शन कर सकती है। पक्के ऐतिहासिक विवादग्रस्त प्रमाणों
की ओर न जाकर इन जनश्रुस्तियों के आधार पर यह माना जाता है कि कालिदास अब
से लगभग 2,000 वर्ष पूर्व उज्जयिनी के महाराज विक्रमादित्य की राजसभा के
नवरत्नों में से एक थे।
परन्तु विक्रमादित्य की राज्यसभा में कालिदास का होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि उनका जन्म भी उज्जयिनी में ही हुआ था। उच्चकोटि के कलाकारों को गुणग्राहक राजाओं का आश्रय प्राप्त करने के लिए अपनी जन्मभूमि को त्याग दूर-दूर जाना पड़ता है। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि मेघदूत के यक्ष कालिदास स्वयं है और उन्होंने जो संदेश मेघ को दूत बनाकर भेजा है, वह उनके अपने घर की ओर ही भेजा गया है। मेघ-दूत का यह मेघ विन्ध्याचल से चलकर आम्रकूट पर्वत पर होता हुआ रेवा नदी पर पहुँचा है। वहां से दशार्ण देश, जहां की राजधानी विदिशा थी। और वहाँ से उज्जयिनी। कवि ने लिखा है कि उज्जयिनी यद्यपि मेघ के मार्ग में न पड़ेगी, फिर भी उज्जयिनी के प्रति कवि का इतना आग्रह है कि उसके लिए मेघ को थोड़ा सा मार्ग लम्बा करके भी जाना ही चाहिए। उज्जयिनी का वर्णन मेघदूत में विस्तार से है। उज्जयिनी से चलकर मेघ का मार्ग गम्भीरा नदी, देवगिरि पर्वत,, चर्मण्वती नदी, दशपुर, कुरुक्षेत्र और कनखल तक पहुंचा है, और वहाँ से आगे अलकापुरी चला गया है। यह कनखल इसलिए भी विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं, क्योंकि अभिज्ञान शाकुन्तल की सारी कथा इस कनखल से लगभग पन्द्रह-बीस मील दूर मालिनी नदी के तीर पर कण्वाश्रम में घटित होती है।
हस्तिनापुर के महाराज दुष्यन्त मृगया के लिए हिमालय की तराई में पहुंचते हैं। कालिदास ने अपने सभी काव्यों में गंगा और हिमालय का एक साथ वर्णन किया है। इससे प्रतीत होता है कि कालिदास का हिमालय के उन स्थानों के प्रति विशेष मोह था, जहां हिमालय और गंगा साथ-साथ, इस दृष्टि से यह कनखल का प्रदेश ही एकमात्र ऐसा प्रदेश है, जहां गंगा, हिमालय, मालिनी नदी के पास ही पास आ जाती है। यह ठीक निश्चय कर पाना कि कालिदास किस विशिष्ट नगर या गांव के निवासी थे, शायद बहुत कठिन हो। किन्तु इस कनखल के आसपास के प्रदेश के प्रति कालिदास का वैसा ही प्रेम दिखाई पड़ता है, जैसा कि व्यक्ति को उन प्रदेशों के प्रति होता है, जहां उसने अपना बाल्यकाल बिताया होता है। वहां की प्रत्येक वस्तु रमणीय और सुन्दर प्रतीत होती है। कालिदास को न केवल यहां के वन-पर्वत ही रुचे, बल्कि यहां के सिंह, व्याघ्र, शार्दूल, कराह, हरिण आदि भी उनके काव्यों में अपना उचित स्थान बनाए हुए हैं। यहाँ तक कि वहां की ओर से गीली झरबेरियों के बेर भी उनकी अमर रचना में स्थान पा गए हैं।
परन्तु विक्रमादित्य की राज्यसभा में कालिदास का होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि उनका जन्म भी उज्जयिनी में ही हुआ था। उच्चकोटि के कलाकारों को गुणग्राहक राजाओं का आश्रय प्राप्त करने के लिए अपनी जन्मभूमि को त्याग दूर-दूर जाना पड़ता है। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि मेघदूत के यक्ष कालिदास स्वयं है और उन्होंने जो संदेश मेघ को दूत बनाकर भेजा है, वह उनके अपने घर की ओर ही भेजा गया है। मेघ-दूत का यह मेघ विन्ध्याचल से चलकर आम्रकूट पर्वत पर होता हुआ रेवा नदी पर पहुँचा है। वहां से दशार्ण देश, जहां की राजधानी विदिशा थी। और वहाँ से उज्जयिनी। कवि ने लिखा है कि उज्जयिनी यद्यपि मेघ के मार्ग में न पड़ेगी, फिर भी उज्जयिनी के प्रति कवि का इतना आग्रह है कि उसके लिए मेघ को थोड़ा सा मार्ग लम्बा करके भी जाना ही चाहिए। उज्जयिनी का वर्णन मेघदूत में विस्तार से है। उज्जयिनी से चलकर मेघ का मार्ग गम्भीरा नदी, देवगिरि पर्वत,, चर्मण्वती नदी, दशपुर, कुरुक्षेत्र और कनखल तक पहुंचा है, और वहाँ से आगे अलकापुरी चला गया है। यह कनखल इसलिए भी विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं, क्योंकि अभिज्ञान शाकुन्तल की सारी कथा इस कनखल से लगभग पन्द्रह-बीस मील दूर मालिनी नदी के तीर पर कण्वाश्रम में घटित होती है।
हस्तिनापुर के महाराज दुष्यन्त मृगया के लिए हिमालय की तराई में पहुंचते हैं। कालिदास ने अपने सभी काव्यों में गंगा और हिमालय का एक साथ वर्णन किया है। इससे प्रतीत होता है कि कालिदास का हिमालय के उन स्थानों के प्रति विशेष मोह था, जहां हिमालय और गंगा साथ-साथ, इस दृष्टि से यह कनखल का प्रदेश ही एकमात्र ऐसा प्रदेश है, जहां गंगा, हिमालय, मालिनी नदी के पास ही पास आ जाती है। यह ठीक निश्चय कर पाना कि कालिदास किस विशिष्ट नगर या गांव के निवासी थे, शायद बहुत कठिन हो। किन्तु इस कनखल के आसपास के प्रदेश के प्रति कालिदास का वैसा ही प्रेम दिखाई पड़ता है, जैसा कि व्यक्ति को उन प्रदेशों के प्रति होता है, जहां उसने अपना बाल्यकाल बिताया होता है। वहां की प्रत्येक वस्तु रमणीय और सुन्दर प्रतीत होती है। कालिदास को न केवल यहां के वन-पर्वत ही रुचे, बल्कि यहां के सिंह, व्याघ्र, शार्दूल, कराह, हरिण आदि भी उनके काव्यों में अपना उचित स्थान बनाए हुए हैं। यहाँ तक कि वहां की ओर से गीली झरबेरियों के बेर भी उनकी अमर रचना में स्थान पा गए हैं।
कालिदास का गौरव
कालिदास एक थे या कई, इस विषय में भी लम्बे विवाद में पड़ना हमें अभीष्ट
नहीं। जनश्रुतियों से जिस प्रकार यह मालूम होता है कि कोई कालिदास
विक्रमादित्य की सभा में थे,, उसी प्रकार ‘भोज
प्रबन्ध’ में भोज की सभा में भी एक कालिदास का उल्लेख है। कुछ
विद्वानों ने तीन कालिदास माने हैं। राजशेखर ने भी लिखा है कि
‘ललित श्रृंगार की रचनाओं में एक ही कालिदास को कोई नहीं जीत
सकता, फिर तीन कालिदासों का तो कहना ही क्या !’’1
कालिदास कौन थे और कब हुए थे ? इस विवाद को यहीं छोड़कर अब हम उनके अमर नाटक अभिज्ञान शाकुन्तल की ओर आते हैं। कालिदास की रचनाओं की प्रशंसा उनके परवर्ती कवियों ने मुक्तकंठ से की है। एक कवि ने कालिदास की सूक्यियों को मधुरस से भरी हुई आम्रमंजरियों के समान बताया है।2 एक और कवि ने लिखा है कि ‘कवियों की गणना करते समय कालिदास का नाम जब कनिष्ठिका अंगुली पर रखा गया, तो अनामिका के लिए उनके समान किसी दूसरे कवि का नाम ही न सूझा; और इस प्रकार अनामिका अंगुली का अनामिका नाम सार्थक हो गया। आज तक भी कालिदास के समान और कोई कवि नहीं हुआ।3 एक और आलोचक ने लिखा है कि ‘काव्यों में नाटक सुन्दर माने जाते हैं; नाटकों में अभिज्ञान शाकुन्तल सबसे श्रेष्ठ है; शाकुन्तल में भी चौथा अंक; और उस अंक में भी चार श्लोक अनुपम हैं।’4
कालिदास कौन थे और कब हुए थे ? इस विवाद को यहीं छोड़कर अब हम उनके अमर नाटक अभिज्ञान शाकुन्तल की ओर आते हैं। कालिदास की रचनाओं की प्रशंसा उनके परवर्ती कवियों ने मुक्तकंठ से की है। एक कवि ने कालिदास की सूक्यियों को मधुरस से भरी हुई आम्रमंजरियों के समान बताया है।2 एक और कवि ने लिखा है कि ‘कवियों की गणना करते समय कालिदास का नाम जब कनिष्ठिका अंगुली पर रखा गया, तो अनामिका के लिए उनके समान किसी दूसरे कवि का नाम ही न सूझा; और इस प्रकार अनामिका अंगुली का अनामिका नाम सार्थक हो गया। आज तक भी कालिदास के समान और कोई कवि नहीं हुआ।3 एक और आलोचक ने लिखा है कि ‘काव्यों में नाटक सुन्दर माने जाते हैं; नाटकों में अभिज्ञान शाकुन्तल सबसे श्रेष्ठ है; शाकुन्तल में भी चौथा अंक; और उस अंक में भी चार श्लोक अनुपम हैं।’4
अभिज्ञान शाकुन्तल
अभिज्ञान शाकुन्तल की प्रशंसा केवल भारतीय आलोचकों ने ही की हो, यह बात
नहीं। विदेशी आलोचकों ने भी शाकुन्तल का रसपान करके इसकी स्तुति के गीत
गाए हैं। जर्मन कवि गेटे ने अभिज्ञान शाकुन्तल का अनुवाद जर्मन भाषा में
पढ़ा था। शाकुन्तल का जो सौन्दर्य मूल संस्कृत में है, उसे अनुवाद में
ज्यों का त्यों ला पाना असम्भव नहीं, तो दुःसाध्य अवश्य
----------------
1.एकोऽपि जीयते हन्त, कालिदासो न केनचित्।
श्रृंगारे ललितोद्गारे, कालिदासत्रयी किमु ? (राजशेखर)
2.निर्गतासु न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिषु।
प्रीतिर्मधुर-सान्द्रासु मंजरीष्विव जायते।। (बाणभट्टः
3.पुरा कवीनां गणनाप्रसंगे कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदासः।
अद्यापि तत्तुल्य कवेरभावादनामिका सार्थवती बभूव।।
4.काव्येषु नाटक रम्य नाटकेषु शकुन्तला।
तत्रापि चतुर्थोऽक्ङस्तत्र श्लोक चतुष्टयम्।।
है। हमें मालूम नहीं कि जो जर्मन अनुवाद गेटे ने पढ़ा था। उसमें शाकुन्तल का कितना सौन्दर्य आ पाया था। फिर भी उसे पढ़कर गेटे ने शाकुन्तल की जो आलोचना की, वह उसकी सहृदय भावुकता की सूचक है। उसने लिखा, ‘यदि तुम तरुण वसन्त के फूलों की सुगन्ध और ग्रीष्मऋतु के मधुर फलों का परिपाक एक साथ देखना चाहते हो; या उस वस्तु का दर्शन करना चाहते हो जिससे अन्तःकरण पुलकित, सम्मोहित,, आनन्दित और तृप्त हो जाता है; अथवा तुम भूमि और स्वर्ग की झांकी एक ही स्थान में देखना चाहते हो; तो अभिज्ञान शाकुन्तल का रसपान करो।’1 गेटे की आलोचना शाकुन्तल का सही मूल्यांकन समझी जा है। कवि रवीन्द्र ने भी शाकुन्तल की आलोचना करते हुए लिखा है, ‘शाकुन्तल का आरम्भ सौंदर्य से हुआ है और उस सौंदर्य की परिणति मंगल में जाकर हुई है। इस प्रकार कवि ने मर्त्य को अमृत से सम्बद्ध कर दिया है।’
अभिज्ञान शाकुन्तल को जिस भी दृष्टि से देखा जाए, यह विलक्षण रचना प्रतीत होती है। इसकी कथावस्तु, इसके पात्रों का चरित्र-चित्रण,
…………………………..
1.Wouldst thou the Life’s young
Blossom and fruits decline,
Any by which the soul is pleased
Enraptured, feasted, fed-
Wouldst thou Earth and Heaven
itself in one sweet name combine ?
I name thee, o Shakuntala, and
All at once is said
-Goethe (गेटे)
वासंन्त कुसुमं फलं च युगपद् ग्रीष्मस्य सर्वं च यद्
यच्चान्यन्मनसो रसायनमतः सन्तर्पणं मोहनम्।
एकीभूतमपूर्वरम्यमथवा स्वर्लोकभूलोकयो-
रैश्वर्यं यदि वांछसि प्रियसखे, शाकुन्तल सेव्यताम्।
----------------
1.एकोऽपि जीयते हन्त, कालिदासो न केनचित्।
श्रृंगारे ललितोद्गारे, कालिदासत्रयी किमु ? (राजशेखर)
2.निर्गतासु न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिषु।
प्रीतिर्मधुर-सान्द्रासु मंजरीष्विव जायते।। (बाणभट्टः
3.पुरा कवीनां गणनाप्रसंगे कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदासः।
अद्यापि तत्तुल्य कवेरभावादनामिका सार्थवती बभूव।।
4.काव्येषु नाटक रम्य नाटकेषु शकुन्तला।
तत्रापि चतुर्थोऽक्ङस्तत्र श्लोक चतुष्टयम्।।
है। हमें मालूम नहीं कि जो जर्मन अनुवाद गेटे ने पढ़ा था। उसमें शाकुन्तल का कितना सौन्दर्य आ पाया था। फिर भी उसे पढ़कर गेटे ने शाकुन्तल की जो आलोचना की, वह उसकी सहृदय भावुकता की सूचक है। उसने लिखा, ‘यदि तुम तरुण वसन्त के फूलों की सुगन्ध और ग्रीष्मऋतु के मधुर फलों का परिपाक एक साथ देखना चाहते हो; या उस वस्तु का दर्शन करना चाहते हो जिससे अन्तःकरण पुलकित, सम्मोहित,, आनन्दित और तृप्त हो जाता है; अथवा तुम भूमि और स्वर्ग की झांकी एक ही स्थान में देखना चाहते हो; तो अभिज्ञान शाकुन्तल का रसपान करो।’1 गेटे की आलोचना शाकुन्तल का सही मूल्यांकन समझी जा है। कवि रवीन्द्र ने भी शाकुन्तल की आलोचना करते हुए लिखा है, ‘शाकुन्तल का आरम्भ सौंदर्य से हुआ है और उस सौंदर्य की परिणति मंगल में जाकर हुई है। इस प्रकार कवि ने मर्त्य को अमृत से सम्बद्ध कर दिया है।’
अभिज्ञान शाकुन्तल को जिस भी दृष्टि से देखा जाए, यह विलक्षण रचना प्रतीत होती है। इसकी कथावस्तु, इसके पात्रों का चरित्र-चित्रण,
…………………………..
1.Wouldst thou the Life’s young
Blossom and fruits decline,
Any by which the soul is pleased
Enraptured, feasted, fed-
Wouldst thou Earth and Heaven
itself in one sweet name combine ?
I name thee, o Shakuntala, and
All at once is said
-Goethe (गेटे)
वासंन्त कुसुमं फलं च युगपद् ग्रीष्मस्य सर्वं च यद्
यच्चान्यन्मनसो रसायनमतः सन्तर्पणं मोहनम्।
एकीभूतमपूर्वरम्यमथवा स्वर्लोकभूलोकयो-
रैश्वर्यं यदि वांछसि प्रियसखे, शाकुन्तल सेव्यताम्।
(उपर्युक्त अंग्रेजी पद्म का संस्कृत रूपान्तर)
इसकी नाटकीयता, इसके सुन्दर कथोपकथन, इसकी काव्य-सौंदर्य से भरी उपमाएँ और
स्थान-स्थान पर प्रयुक्त हुई समयोचित सूक्तियाँ; और इन सबसे बढ़कर विविध
प्रसंगों की ध्वन्यात्मकता इतनी अद्भुत है कि इन दृष्टियों से देखने पर
संस्कृत के भी अन्य नाटक अभिज्ञान शाकुन्तल से टक्कर नहीं ले सकते; फिर
अन्य भाषाओं का तो कहना ही क्या !
मौलिक न होने पर भी मौलिक
कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तल की कथावस्तु मौलिक नहीं चुनी। यह कथा
महाभारत के आदिपर्व से ली गई है। यों पद्मपुराण में भी शकुंतला की कथा
मिलती है और वह महाभारत की अपेक्षा शकुन्तला की कथा के अधिक निकट है। इस
कारण विन्टरनिट्ज ने यह माना है कि शकुन्तला की कथा पद्मपुराण से ली गई
है। परन्तु विद्वानों का कथन है कि पद्मपुराण का यह भाग शकुन्तला की रचना
के बाद लिखा और बाद में प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। महाभारत की कथा में
दुर्वासा के शाप का उल्लेख नहीं है। महाभारत का दुष्यन्त से यदि ठीक उलटा
नहीं, तो भी बहुत अधिक भिन्न है।
महाभारत की शकुन्तला भी कालिदास की भांति सलज्ज नहीं है। वह दुष्यन्त को विश्वामित्र और मेनका के सम्बन्ध के फलस्वरुप हुए अपने जन्म की कथा अपने मुंह से ही सुनाती है। महाभारत में दुष्यन्त शकुन्तला के रूप पर मुग्ध होकर शकुन्तला से गांधर्व विवाह की प्रार्थना करता है; जिस पर शकुन्तला कहती है कि मैं विवाह इस शर्त पर कर सकती हूं कि राजसिंहासन मेरे पुत्र को ही मिले। दुष्यन्त उस समय तो स्वीकार कर लेता है और बाद में अपनी राजधानी में लौटकर जान-बूझकर लज्जावश शकुन्तला को ग्रहण नहीं करता। कालिदास ने इस प्रकार अपरिष्कृत रूप में प्राप्त हुई कथा को अपनी कल्पना से अद्भुत रूप में निखार दिया है। दुर्वासा के शाप की कल्पना करके उन्होंने दुष्यन्त के चरित्र को ऊंचा उठाया है। कालिदास की शकुन्तला भी आभिजात्य, सौंदर्य और करुणा की मूर्ति है। इसके अतिरिक्त कालिदास ने सारी कथा का निर्वाह, भावों का चित्रण इत्यादि जिस ढंग से किया है, वह मौलिक और अपूर्व है।
महाभारत की शकुन्तला भी कालिदास की भांति सलज्ज नहीं है। वह दुष्यन्त को विश्वामित्र और मेनका के सम्बन्ध के फलस्वरुप हुए अपने जन्म की कथा अपने मुंह से ही सुनाती है। महाभारत में दुष्यन्त शकुन्तला के रूप पर मुग्ध होकर शकुन्तला से गांधर्व विवाह की प्रार्थना करता है; जिस पर शकुन्तला कहती है कि मैं विवाह इस शर्त पर कर सकती हूं कि राजसिंहासन मेरे पुत्र को ही मिले। दुष्यन्त उस समय तो स्वीकार कर लेता है और बाद में अपनी राजधानी में लौटकर जान-बूझकर लज्जावश शकुन्तला को ग्रहण नहीं करता। कालिदास ने इस प्रकार अपरिष्कृत रूप में प्राप्त हुई कथा को अपनी कल्पना से अद्भुत रूप में निखार दिया है। दुर्वासा के शाप की कल्पना करके उन्होंने दुष्यन्त के चरित्र को ऊंचा उठाया है। कालिदास की शकुन्तला भी आभिजात्य, सौंदर्य और करुणा की मूर्ति है। इसके अतिरिक्त कालिदास ने सारी कथा का निर्वाह, भावों का चित्रण इत्यादि जिस ढंग से किया है, वह मौलिक और अपूर्व है।
ध्वन्यात्मक संकेत
शकुन्तला में कालिदास का सबसे बड़ा चमत्कार उसके ध्वन्यात्मक संकेतों में
है। इसमें कवि को विलक्षण सफलता यह मिली है कि उसने कहीं भी कोई भी वस्तु
निष्प्रयोजन नहीं कही। कोई भी पात्र, कोई भी कथोप-कथन, कोई भी घटना, कोई
भी प्राकृतिक दृश्य निष्प्रयोजन नहीं है। सभी घटनाएं यह दृश्य आगे आने
वाली घटनाओं का संकेत चमत्कारिक रीति से पहले ही दे देते हैं। नाटक के
प्रारम्भ में ही ग्रीष्म-वर्णन करते हुए वन-वायु के पाटल की सुगंधि से
मिलकर सुगंधित हो उठने और छाया में लेटते ही नींद आने लगने और दिवस का
अन्त रमणीय होने के द्वारा नाटक की कथा-वस्तु की मोटे तौर पर सूचना दे दी
गई है, जो क्रमशः पहले शकुन्तला और दुष्यन्त के मिलन, उसके बाद
नींद-प्रभाव से शकुन्तला को भूल जाने और नाटक का अन्त सुखद होने की सूचक
है। इसी प्रकार नाटक के प्रारम्भिक गीत में भ्रमरों द्वारा शिरीष के फूलों
को ज़रा-ज़रा-सा चूमने से यह संकेत मिलता है कि दुष्यन्त और शकुन्तला का
मिलन अल्पस्थायी होगा। जब राजा धनुष पर बाण चढ़ाए हरिण के पीछे दौड़े जा
रहे हैं, तभी कुछ तपस्वी आकर रोकते हैं। कहते
हैं-‘महाराज’ यह आश्रम का हरिण है, इस पर तीर न
चलाना।’ यहां हरिण के अतिरिक्त शकुन्तला की ओर भी संकेत है, जो
हरिण के समान ही भोलीभाली और असहाय है। ‘कहां तो हरिणों का
अत्यन्त चंचल जीवन और कहां तुम्हारे वज्ज्र के समान कठोर बाण !’
इससे भी शकुन्तला की असहायता और सरलता तथा राजा की निष्ठुरता का
मर्मस्पर्शी संकेत किया गया है। जब दुष्यन्त और शकुन्तला का प्रेम कुछ और
बढ़ने लगता है, तभी नेपथ्य से पुकार सुनाई पड़ती है कि
‘तपस्वियो, आश्रम के प्राणियों की रक्षा के लिए तैयार हो जाओ।
शिकारी राजा दुष्यन्त यहां आया हुआ है।’ इसमें भी दुष्यन्त के
हाथों से शकुन्तला की रक्षा की ओर संकेत किया गया प्रतीत होता है, परन्तु
यह संकेत किसी के भी कान में सुनाई नहीं दिया; शकुन्तला को किसी ने नहीं
बचाया। इससे स्थिति की करुणाजनकता और भी अधिक बढ़ जाती है। चौथे अंक के
प्रारम्भिक भाग में कण्व के शिष्य ने प्रभात का वर्णन करते हुए सुख और
दुःख के निरन्तर साथ लगे रहने का तथा प्रिय के वियोग में स्त्रियों के
असह्य दुःख का जो उल्लेख किया है, वह दुष्यन्त द्वारा शकुन्तला का
परित्याग किए जाने के लिए पहले से ही पृष्ठभूमि-सी बना देता है। पांचवें
अंक में रानी हंसपदिका एक गीत गाती हैं, जिसमें राजा को उनकी मधुर-वृत्ति
के लिए उलाहना दिया गया है। दुष्यन्त भी यह स्वीकार करते हैं कि उन्होंने
हंसपदिका से एक ही बार प्रेम किया है। इससे कवि यह गम्भीर संकेत देता है
कि भले ही शकुन्तला को दु्ष्यन्त ने दुर्वासा के शाप के कारण भूलकर छोड़ा,
परन्तु एक बार प्यार करने के बाद रानियों की उपेक्षा करना उनके लिए कोई नई
बात नहीं थी। अन्य रानियां भी उसकी इस मधुकर-वृत्ति का शिकार थीं।
हंसपादिका के इस गीत की पृष्ठभूमि में शकुन्तला के परित्याग की घटना और भी
क्रूर और कठोर जान पड़ती है। इसी प्रकार के ध्वन्यात्मक संकेतों से
कालिदास ने सातवें अंक में दुष्यन्त, शकुन्तला और उसके पुत्र के मिलने के
लिए सुखद पृष्ठभूमि तैयार कर दी है। इन्द्र राजा दुष्यन्त को अपूर्व
सम्मान प्रदान करते हैं। उसके बाद हेमकूट पर्वत पर प्रजापति के आश्रम में
पहुंचते ही राजा को अनुभव होने लगता है कि जैसे वह अमृत के सरोवर में
स्नान कर रहे हों। इस प्रकार के संकेतों के बाद दुष्यन्त और शकुन्तला का
मिलन और भी अधिक मनोहर हो उठता है।
काव्य-सौंदर्य
अभिज्ञान शाकुन्तल में नाटकीयता के साथ-साथ काव्य का अंश भी यथेष्ट मात्रा
में है। इसमें श्रृंगार मुख्य रस है; और उसके संयोग तथा वियोग दोनों ही
पक्षों का परिपाक सुन्दर रूप में हुआ है। इसके अतिरिक्त हास्य, वीर तथा
करुण रस की भी जहां-तहां अच्छी अभिव्यक्ति हुई है। स्थान-स्थान पर सुन्दर
और मनोहरिणी उतप्रेक्षाएं न केवल पाठक को चमत्कृत कर देती हैं, किन्तु
अभीष्ट भाव की तीव्रता को बढ़ाने में ही सहायक होती हैं। सारे नाटक में
कालिदास ने अपनी उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं का उपयोग कहीं भी केवल
अलंकार-प्रदर्शन के लिए नहीं किया। प्रत्येक स्थान पर उनकी उपमा या
उत्प्रेक्षा अर्थ की अभिव्यक्ति को रसपूर्ण बनाने में सहायक हुई है।
कालिदास अपनी उपमाओं के लिए संस्कृत-साहित्य में प्रसिद्ध हैं। शाकुन्तल
में भी उनकी उपयुक्त उपमा चुनने की शक्ति भली-भांति प्रकट हुई। शकुन्तला
के विषय में एक जगह राजा दुष्यन्त कहते हैं कि ‘वह ऐसा फूल है,
जिसे किसी ने सूंघा नहीं है; ऐसा नवपल्लव है, जिस पर किसी के नखों की
खरोंच नहीं लगी; ऐसा रत्न है, जिसमें छेद नहीं किया गया और ऐसा मधु है,
जिसका स्वाद किसी ने चखा नहीं है।’ इन उपमाओं के द्वारा
शकुन्तला के सौंदर्य की एक अनोखी झलक हमारी आंखों के सामने आ जाती है। इसी
प्रकार पांचवें अंक में दुश्यन्त शकुन्तला का परित्याग करते हुए कहते हैं
कि ‘हे तपस्विनी, क्या तुम वैसे ही अपने कुल को कलंकित करना और
मुझे पतित करना चाहती हो, जैसे तट को तोड़कर बहने वाली नदी तट के वृक्ष को
तो गिराती ही है और अपने जल को भी मलिन कर लेती है।’ यहां
शकुन्तला की चट को तोड़कर बहने वाली नदी से दी गई उपमा राजा के मनोभाव को
व्यक्त करने में विशेष रूप से सहायक होती है। इसी प्रकार जब कण्व के शिष्य
शकुन्तला को साथ लेकर दुष्यन्त के पास पहुंचते हैं तो दुष्यन्त की दृष्टि
उन तपस्वियों के बीच में शकुन्तला के ऊपर जाकर पड़ती है। वहां शकुन्तला के
सौंदर्य का विस्तृत वर्णन न करके कवि ने उनके मुख से केवल इतना कहलवा दिया
है कि ‘इन तपस्वियों के बीच में वह घूंघट वाली सुन्दरी कौन है,
जो पीले पत्तों के बीच में नई कोंपल के समान दिखाई पड़ रही है।’
इस छोटी-सी उपमा ने पीले पत्ते और कोंपल की सदृश्यता के द्वारा शकुन्तला
के सौन्दर्य का पूरा ही चित्रांकन कर दिया है। इसी प्रकार सर्वदमन को
देखकर दुष्यन्त कहते हैं कि ‘यह प्रतापी बालक उस अग्नि के
स्फुलिंग की भांति प्रतीत होता है, जो धधकती आग बनने के लिए ईधन की राह
देखता है।’ इस उपमा से कालिदास ने न केवल बालक की तेजस्विता
प्रकट कर दी, बल्कि यह भी स्पष्ट रूप से सूचित कर दिया है कि यह बालक बड़ा
होकर महाप्रतापी चक्रवर्ती सम्राट बनेगा। इस प्रकार की मनोहर उपमाओं के
अनेक उदाहरण शाकुन्तल में से दिये जा सकते हैं क्योंकि शाकुन्तल में 180
उपमाएं प्रयुक्त हुईं हैं। और उनमें से सभी एक से एक बढ़कर हैं।
यह ठीक है उपमा के चुनाव में कालिदास को विशेष कुशलता प्राप्त थी और यह भी ठीक है कि उनकी-सी सुन्दर उपमाएँ अन्य कवियों की रचनाओं में दुर्लभ हैं, फिर भी कालिदास की सबसे बड़ी विशेषता उपमा-कौशल नहीं है। उपमा-कौशल तो उनके काव्य-कौशल का एक सामान्य-सा अंग है। अपने मनोभाव को व्यक्त करने अथवा किसी रस का परिपाक करने अथवा किसी भाव की तीव्र अनुभूति को जगाने की कालिदास अनेक विधियां जानते हैं। शब्दों का प्रसंगोचित चयन, अभीष्ट भाव के उपयुक्त छंद का चुनाव और व्यंजना-शक्ति का प्रयोग करके कालिदास ने अपनी शैली को विशेष रूप से रमणीय बना दिया है। जहां कालिदास शकुन्तला के सौन्दर्य-वर्णन पर उतरे हैं, वहां उन्होंने केवल उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं द्वारा शकुन्तला का रूप चित्रण करके ही सन्तोष नहीं कर लिया है। पहले-पहले तो उन्होंने केवल इतना कहलवाया कि ‘यदि तपोवन के निवासियों में इतना रूप है, तो समझो कि वन-लताओं ने उद्यान की लताओं को मात कर दिया।’ फिर दुष्यन्त के मुख से उन्होंने कहलवाया कि ‘इतनी सुन्दर कन्या को आश्रम के नियम-पालन में लगाना ऐसा ही है जैसे नील कमल की पंखुरी से बबूल का पेड़ काटना।’ उसके बाद कालिदास कहते हैं कि ‘शकुन्तला का रूप ऐसा मनोहर है कि भले ही उसने मोटा वल्कल वस्त्र पहना हुआ है, फिर उससे भी उसका सौंदर्य कुछ घटा नहीं, बल्कि बढ़ा ही है। क्योंकि सुन्दर व्यक्ति को जो भी कुछ पहना दिया जाए वही उसका आभूषण हो जाता है।’ उसके बाद राजा शकुन्तला की सुकुमार देह की तुलना हरी-भरी फूलों से लदी लता के साथ करते हैं, जिससे उस विलक्षण सौदर्य का स्वरूप पाठक की आंखों के सामने चित्रित-सा हो उठता है। इसके बाद उस सौंदर्य की अनुभूति को चरम सीमा पर पहुंचाने के लिए कालिदास एक भ्रमर को ले आए हैं; जो शकुन्तला के मुख को एक सुन्दर खिला हुआ फूल समझकर उसका रसपान करने के लिए उसके ऊपर मंडराने लगता है। इस प्रकार कालिदास ने शकुन्तला के सौंदर्य को चित्रित करने के लिए अंलकारों का सहारा उतना नहीं लिया, जितना कि व्यंजनाशक्ति का; और यह व्यजना-शक्ति ही काव्य की जान मानी जाती है।
यह ठीक है उपमा के चुनाव में कालिदास को विशेष कुशलता प्राप्त थी और यह भी ठीक है कि उनकी-सी सुन्दर उपमाएँ अन्य कवियों की रचनाओं में दुर्लभ हैं, फिर भी कालिदास की सबसे बड़ी विशेषता उपमा-कौशल नहीं है। उपमा-कौशल तो उनके काव्य-कौशल का एक सामान्य-सा अंग है। अपने मनोभाव को व्यक्त करने अथवा किसी रस का परिपाक करने अथवा किसी भाव की तीव्र अनुभूति को जगाने की कालिदास अनेक विधियां जानते हैं। शब्दों का प्रसंगोचित चयन, अभीष्ट भाव के उपयुक्त छंद का चुनाव और व्यंजना-शक्ति का प्रयोग करके कालिदास ने अपनी शैली को विशेष रूप से रमणीय बना दिया है। जहां कालिदास शकुन्तला के सौन्दर्य-वर्णन पर उतरे हैं, वहां उन्होंने केवल उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं द्वारा शकुन्तला का रूप चित्रण करके ही सन्तोष नहीं कर लिया है। पहले-पहले तो उन्होंने केवल इतना कहलवाया कि ‘यदि तपोवन के निवासियों में इतना रूप है, तो समझो कि वन-लताओं ने उद्यान की लताओं को मात कर दिया।’ फिर दुष्यन्त के मुख से उन्होंने कहलवाया कि ‘इतनी सुन्दर कन्या को आश्रम के नियम-पालन में लगाना ऐसा ही है जैसे नील कमल की पंखुरी से बबूल का पेड़ काटना।’ उसके बाद कालिदास कहते हैं कि ‘शकुन्तला का रूप ऐसा मनोहर है कि भले ही उसने मोटा वल्कल वस्त्र पहना हुआ है, फिर उससे भी उसका सौंदर्य कुछ घटा नहीं, बल्कि बढ़ा ही है। क्योंकि सुन्दर व्यक्ति को जो भी कुछ पहना दिया जाए वही उसका आभूषण हो जाता है।’ उसके बाद राजा शकुन्तला की सुकुमार देह की तुलना हरी-भरी फूलों से लदी लता के साथ करते हैं, जिससे उस विलक्षण सौदर्य का स्वरूप पाठक की आंखों के सामने चित्रित-सा हो उठता है। इसके बाद उस सौंदर्य की अनुभूति को चरम सीमा पर पहुंचाने के लिए कालिदास एक भ्रमर को ले आए हैं; जो शकुन्तला के मुख को एक सुन्दर खिला हुआ फूल समझकर उसका रसपान करने के लिए उसके ऊपर मंडराने लगता है। इस प्रकार कालिदास ने शकुन्तला के सौंदर्य को चित्रित करने के लिए अंलकारों का सहारा उतना नहीं लिया, जितना कि व्यंजनाशक्ति का; और यह व्यजना-शक्ति ही काव्य की जान मानी जाती है।
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