भाषा एवं साहित्य >> संस्कृत स्वयं शिक्षक संस्कृत स्वयं शिक्षकश्रीपाद दामोदर सातवलेकर
|
1 पाठकों को प्रिय 333 पाठक हैं |
श्रीपाद दामोदर सातवलेकर द्वारा सरल विधि से अपने आप संस्कृत सीखने की उत्कृष्ट प्रस्तुति।
Sanskrit Swyam Shikshak - A hindi Book by - Shripad Damodar Satavalakar संस्कृत स्वयं शिक्षक - श्रीपाद दामोदर सातवलेकर
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
वेदमूर्ति पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर की गणना भारत के अग्रणी वेद तथा संस्कृत भाषा के विशारदों में की जाती है। वे सौ वर्ष से अधिक जीवित रहे और आजीवन इनके प्रचार-प्रसार का कार्य करते रहे। उन्होंने सरल हिन्दी में चारों वेदों का अनुवाद किया और ये अनुवाद देशभर में अत्यन्त लोकप्रिय हुए। इसके अतिरिक्त योग के आसनों तथा सूर्य नमस्कार का भी उन्होंने बहुत प्रचार किया।
पं. सातवलेकर महाराष्ट्र के निवासी थे और व्यवसाय में चित्रकार थे। मुम्बई के सुप्रसिद्ध जे.जे. स्कूल आव आर्टस में उन्होंने विधिवत् कला की शिक्षा प्राप्त की थी। व्यक्ति चित्र (पोर्ट्रेट) बनाने में उन्हें विशेष कुशलता प्राप्त थी और लाहौर में अपना स्टूडियो बनाकर वे यह कार्य करते थे।
महाराष्ट्र वापस लौटकर उन्होंने तत्कालीन औंध रियासत में ‘स्वाध्याय मंडल’ के नाम से वेदों तथा संबंधित ग्रन्थों का अनुवाद तथा प्रकाशन कार्य आरंभ किया। सरल हिन्दी में वेद के ये पहले अनुवाद थे जो बहुत जल्द देशभर में पढ़े जाने लगे। संस्कत भाषा सिखाने के लिए भी उन्होंने अपनी एक सरल पद्धति बनाई और इसके अनुसार कक्षाएँ चलानी आरम्भ की। पुस्तकें भी लिखी जिन्हें पढ़कर लोग घर बैठे संस्कृत सीख सकते थे।
‘संस्कृत स्वयं-शिक्षक’ नामक यह पुस्तक शीघ्र ही एक संस्था बन गई और इस पद्धति का तेजी से प्रचार हुआ। संस्कृत को भाषा सीखने की दृष्टि से एक कठिन भाषा माना जाता है, इसलिए भी इस सरल विधि का व्यापक प्रचार हुआ। इसे दरअसल संस्कृत सीखने की ‘सातवलेकर पद्धति’ भी कहा जा सकता है। यह 70-80 वर्ष पहले लिखी गई थी। आज भी इसकी उपादेयता कम नहीं हुई और आगे भी इसी प्रकार बनी रहेगी।
औंध में स्वाध्याय मंडल का कार्य बड़ी सफलता से चल रहा था, कि तभी 1948 में महात्मा गांधी की हत्या की घटना हुई। नाथूराम विनायक गोड़से चूँकि महाराष्ट्रीय और ब्राह्मण थे, इसलिए सारे महाराष्ट्र में ब्राह्मणों पर हमले करके उनकी सम्पत्तियाँ इत्यादि जलाई गईं। इसी में पं. सातवलेकर के संस्थान को भी जलाकर नष्ट कर दिया गया। वे स्वयं किसी प्रकार बच निकले और उन्होंने गुजरात के सूरत जिले में स्थित पारडी नामक स्थान में फिर नये सिरे से स्वाध्याय मंडल का कार्य संगठित किया। 1969 में अपने देहान्त के समय तक वे यहीं कार्यरत रहे।
भाषा-शिक्षण के क्षेत्र में ‘संस्कृत स्वयं-शिक्षक’ एक वैज्ञानिक अत्यन्त सफल पुस्तक है।
पं. सातवलेकर महाराष्ट्र के निवासी थे और व्यवसाय में चित्रकार थे। मुम्बई के सुप्रसिद्ध जे.जे. स्कूल आव आर्टस में उन्होंने विधिवत् कला की शिक्षा प्राप्त की थी। व्यक्ति चित्र (पोर्ट्रेट) बनाने में उन्हें विशेष कुशलता प्राप्त थी और लाहौर में अपना स्टूडियो बनाकर वे यह कार्य करते थे।
महाराष्ट्र वापस लौटकर उन्होंने तत्कालीन औंध रियासत में ‘स्वाध्याय मंडल’ के नाम से वेदों तथा संबंधित ग्रन्थों का अनुवाद तथा प्रकाशन कार्य आरंभ किया। सरल हिन्दी में वेद के ये पहले अनुवाद थे जो बहुत जल्द देशभर में पढ़े जाने लगे। संस्कत भाषा सिखाने के लिए भी उन्होंने अपनी एक सरल पद्धति बनाई और इसके अनुसार कक्षाएँ चलानी आरम्भ की। पुस्तकें भी लिखी जिन्हें पढ़कर लोग घर बैठे संस्कृत सीख सकते थे।
‘संस्कृत स्वयं-शिक्षक’ नामक यह पुस्तक शीघ्र ही एक संस्था बन गई और इस पद्धति का तेजी से प्रचार हुआ। संस्कृत को भाषा सीखने की दृष्टि से एक कठिन भाषा माना जाता है, इसलिए भी इस सरल विधि का व्यापक प्रचार हुआ। इसे दरअसल संस्कृत सीखने की ‘सातवलेकर पद्धति’ भी कहा जा सकता है। यह 70-80 वर्ष पहले लिखी गई थी। आज भी इसकी उपादेयता कम नहीं हुई और आगे भी इसी प्रकार बनी रहेगी।
औंध में स्वाध्याय मंडल का कार्य बड़ी सफलता से चल रहा था, कि तभी 1948 में महात्मा गांधी की हत्या की घटना हुई। नाथूराम विनायक गोड़से चूँकि महाराष्ट्रीय और ब्राह्मण थे, इसलिए सारे महाराष्ट्र में ब्राह्मणों पर हमले करके उनकी सम्पत्तियाँ इत्यादि जलाई गईं। इसी में पं. सातवलेकर के संस्थान को भी जलाकर नष्ट कर दिया गया। वे स्वयं किसी प्रकार बच निकले और उन्होंने गुजरात के सूरत जिले में स्थित पारडी नामक स्थान में फिर नये सिरे से स्वाध्याय मंडल का कार्य संगठित किया। 1969 में अपने देहान्त के समय तक वे यहीं कार्यरत रहे।
भाषा-शिक्षण के क्षेत्र में ‘संस्कृत स्वयं-शिक्षक’ एक वैज्ञानिक अत्यन्त सफल पुस्तक है।
पुस्तक प्रारम्भ करने से पहले इसे अवश्य पढ़ें
इस पुस्तक का नाम ‘संस्कृत स्वयं-शिक्षक’ है और जो अर्थ इस नाम से विदित होता है कि वही इसका कार्य है। किसी पंडित की सहायता के बिना हिन्दी जानने वाला व्यक्ति इस पुस्तक के पढ़ने से संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। जो देवनागरी अक्षर नहीं जानते, उनको उचित है कि पहले देवनागरी पढ़कर इस पुस्तक को पढ़ें। देवनागरी अक्षरों को जाने बिना संस्कृत भाषा बहुत कठिन है, अनेक वर्ष प्रयत्न करने से ही उसका ज्ञान हो सकता है। परन्तु वास्तव में विचार किया जाए तो यह भ्रम-मात्र है। संस्कृत भाषा नियमबद्ध तथा स्वभावसिद्ध होने के कारण सब वर्तमान भाषाओं में सुगम है। मैं यह कह सकता हूँ कि अंग्रेज़ी भाषा संस्कृत भाषा से दस गुना कठिन है। मैंने वर्षों के अनुभव से यह जाना है कि संस्कृत भाषा अत्यन्त सुगम रीति से पढ़ाई जा सकती है और व्यवहारिक वार्तालाप तथा रामायण-महाभारतादि पुस्तकों का अध्ययन करने के लिए जितना संस्कृति का ज्ञान चाहिए, उतना प्रतिदिन घंटा-आधा-घंटा अभ्यास करने से एक वर्ष की अवधि में अच्छी प्रकार प्राप्त हो सकता है, यह मेरी कोरी कल्पना नहीं, परन्तु अनुभव की हुई बात है। इसी कारण संस्कृत-जिज्ञासु सर्वसाधारण जनता के सम्मुख उसी अनुभव से प्राप्त अपनी विशिष्ट पद्धति को इस पुस्तक द्वारा रखना चाहता हूँ।
हिन्दी के कई वाक्य इस पुस्तक में भाषा की दृष्टि से कुछ विरुद्ध पाए जाएँगे, परन्तु वे उस प्रकार इसलिए लिखे गए हैं कि वे संस्कृतवाक्य में प्रयुक्त शब्दों के क्रम के अनुकूल हों। किसी-किसी स्थान पर संस्कृत के शब्दों का प्रयोग भी उसके नियमों के अनुसार नहीं लिखा है तथा शब्दों की संधि कहीं भी नहीं की गई है। यह सब इसलिए किया गया है कि पाठकों को भी सुभीता हो और उनका संस्कृत में प्रवेश सुगमता पूर्वक हो सके। पाठक यह भी देखेंगे कि जो भाषा शैली की न्यूनतम् पहले पाठों में है, वह आगे पाठों में नहीं है। भाषा शैली की कुछ सुगमता के लिए जानबूझकर रखी गई है, इसलिए पाठक उसकी ओर ध्यान न देकर अपना अभ्यास जारी रखें, ताकि संस्कृत-मंदिर में उनका प्रवेश भली-भाँति हो सके।
पाठकों को उचित है कि वे न्यून-से-न्यून प्रतिदिन एक घंटा इस पुस्तक का अध्ययन किया करें और जो-जो शब्द आएँ उनका प्रयोग बिना किसी संकोच के करने का यत्न करें। इससे उनकी उन्नति होती रहेगी।
जिस रीति का अवलम्बन इस पुस्तक में किया गया है, वह न केवल सुगम है, परन्तु स्वाभावुक भी है, और इस कारण इस रीति से अल्प काल में और थोड़े-से परिश्रम से बहुत लाभ होगा।
यह मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि प्रतिदिन एक घण्टा प्रयत्न करने से एक वर्ष के अन्दर इस पुस्तक की पद्धति से व्यावहारिक संस्कृत भाषा का ज्ञान हो सकता है। परन्तु पाठक को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि केवल उत्तम शैली से ही काम नहीं चलेगा, पाठकों का यह कर्तव्य होगा कि वे प्रतिदिन पर्याप्त और निश्चित समय इस कार्य के लिए अवश्य लगा करें, नहीं तो कोई पुस्तक कितनी ही अच्छी क्यों न हो, बिना प्रयत्न किए पाठक उससे पूरा लाभ नहीं उठा सकते।
हिन्दी के कई वाक्य इस पुस्तक में भाषा की दृष्टि से कुछ विरुद्ध पाए जाएँगे, परन्तु वे उस प्रकार इसलिए लिखे गए हैं कि वे संस्कृतवाक्य में प्रयुक्त शब्दों के क्रम के अनुकूल हों। किसी-किसी स्थान पर संस्कृत के शब्दों का प्रयोग भी उसके नियमों के अनुसार नहीं लिखा है तथा शब्दों की संधि कहीं भी नहीं की गई है। यह सब इसलिए किया गया है कि पाठकों को भी सुभीता हो और उनका संस्कृत में प्रवेश सुगमता पूर्वक हो सके। पाठक यह भी देखेंगे कि जो भाषा शैली की न्यूनतम् पहले पाठों में है, वह आगे पाठों में नहीं है। भाषा शैली की कुछ सुगमता के लिए जानबूझकर रखी गई है, इसलिए पाठक उसकी ओर ध्यान न देकर अपना अभ्यास जारी रखें, ताकि संस्कृत-मंदिर में उनका प्रवेश भली-भाँति हो सके।
पाठकों को उचित है कि वे न्यून-से-न्यून प्रतिदिन एक घंटा इस पुस्तक का अध्ययन किया करें और जो-जो शब्द आएँ उनका प्रयोग बिना किसी संकोच के करने का यत्न करें। इससे उनकी उन्नति होती रहेगी।
जिस रीति का अवलम्बन इस पुस्तक में किया गया है, वह न केवल सुगम है, परन्तु स्वाभावुक भी है, और इस कारण इस रीति से अल्प काल में और थोड़े-से परिश्रम से बहुत लाभ होगा।
यह मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि प्रतिदिन एक घण्टा प्रयत्न करने से एक वर्ष के अन्दर इस पुस्तक की पद्धति से व्यावहारिक संस्कृत भाषा का ज्ञान हो सकता है। परन्तु पाठक को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि केवल उत्तम शैली से ही काम नहीं चलेगा, पाठकों का यह कर्तव्य होगा कि वे प्रतिदिन पर्याप्त और निश्चित समय इस कार्य के लिए अवश्य लगा करें, नहीं तो कोई पुस्तक कितनी ही अच्छी क्यों न हो, बिना प्रयत्न किए पाठक उससे पूरा लाभ नहीं उठा सकते।
अभ्यास की पद्धति
(1) प्रथम पाठ तक जो कुछ लिखा गया है, उसे अच्छी प्रकार से पढ़िए। सब ठीक से समझने के पश्चात् प्रथम पाठ को पढ़ना प्रारम्भ कीजिए।
(2) हर एक पाठ पहले संपूर्ण पढ़ना चाहिए, फिर उसको क्रमश: स्मरण करना चाहिए; हर एक पाठ को कम से कम दस बार पढ़ना चाहिए।
(3) हर एक पाठ में जो-जो संस्कृत वाक्य हैं, उनको कंठस्थ करना चाहिए था जिन-जिन शब्दों के रूप में दिए हैं, उनको स्मरण करके उनके समान जो शब्द दिए हों, उन शब्दों के रूप में वैसे ही बनाने का यत्न करना चाहिए।
(4) जहाँ परीक्षा के प्रश्न दिए हों, वहाँ उत्तर दिए बिना आगे नहीं बढ़ना चाहिए। यदि प्रश्नों का उत्तर देना कठिन हो, तो पूर्व पाठ दुबारा पढ़ना चाहिए। प्रश्नो का झट उत्तर न दे सकने का यही मतलब है कि पूर्व पाठ ठीक से तैयार नहीं हुए।
(5) जहाँ दुबारा बढ़ने की सूचना दी है, वहाँ अवश्य दुबारा पढ़ना चाहिए।
(6) यह दो विद्यार्थी साथ-साथ अभ्यास करेंगे और परस्पर प्रश्नोंत्तर करके एक-दूसरे को मदद देंगे तो अभ्यास बहुत शीघ्र हो सकेगा।
(7) यह पुस्तक तीन महीनों के अभ्यास के लिए है। इसलिए पाठकों को चाहिए कि वे समय के अन्दर पुस्तक समाप्त करें। जो पाठक अधिक समय लेना चाहें, वे ले सकते हैं। यह पुस्तक अच्छी प्रकार स्मरण होने के पश्चात् ही दूसरी पुस्तक प्रारम्भ करनी चाहिए।
(2) हर एक पाठ पहले संपूर्ण पढ़ना चाहिए, फिर उसको क्रमश: स्मरण करना चाहिए; हर एक पाठ को कम से कम दस बार पढ़ना चाहिए।
(3) हर एक पाठ में जो-जो संस्कृत वाक्य हैं, उनको कंठस्थ करना चाहिए था जिन-जिन शब्दों के रूप में दिए हैं, उनको स्मरण करके उनके समान जो शब्द दिए हों, उन शब्दों के रूप में वैसे ही बनाने का यत्न करना चाहिए।
(4) जहाँ परीक्षा के प्रश्न दिए हों, वहाँ उत्तर दिए बिना आगे नहीं बढ़ना चाहिए। यदि प्रश्नों का उत्तर देना कठिन हो, तो पूर्व पाठ दुबारा पढ़ना चाहिए। प्रश्नो का झट उत्तर न दे सकने का यही मतलब है कि पूर्व पाठ ठीक से तैयार नहीं हुए।
(5) जहाँ दुबारा बढ़ने की सूचना दी है, वहाँ अवश्य दुबारा पढ़ना चाहिए।
(6) यह दो विद्यार्थी साथ-साथ अभ्यास करेंगे और परस्पर प्रश्नोंत्तर करके एक-दूसरे को मदद देंगे तो अभ्यास बहुत शीघ्र हो सकेगा।
(7) यह पुस्तक तीन महीनों के अभ्यास के लिए है। इसलिए पाठकों को चाहिए कि वे समय के अन्दर पुस्तक समाप्त करें। जो पाठक अधिक समय लेना चाहें, वे ले सकते हैं। यह पुस्तक अच्छी प्रकार स्मरण होने के पश्चात् ही दूसरी पुस्तक प्रारम्भ करनी चाहिए।
|
लोगों की राय
No reviews for this book