अतिरिक्त >> तन्त्र साधना से सिद्धि तन्त्र साधना से सिद्धिकेदारनाथ मिश्र
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प्रस्तुत पुस्तक ‘तन्त्र साधना से सिद्ध’ में तन्त्र-शास्त्र के विषय में काफी कुछ समझाने का प्रयास किया गया है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
‘तन्त्र’ का नाम सुनते ही लोगों के मन में एक
जिज्ञासा
उत्पन्न होती है कि तन्त्र है क्या ? कुछ लोग तंत्र से अभिप्राय लगाते हैं
कि वैदिक मार्ग से जो इतर है, वह तन्त्र है। यह सही भी है। जब वैदिक
नियम-अनुष्ठान लोगों के लिए कष्ट-साध्य होने लगे तो ऋषियों ने
तन्त्र-साधना को प्रकाशित किया। कलियुग के प्राणियों के मेधा-वृत्ति की
कालुष्यता का आभास ऋषियों को पहले से ही हो गया था। इसलिए कि इस युग में
कहीं साधना का ह्यास न हो, साधना के सरलीकरण की दिशा में तन्त्र एक सार्थक
प्रयास रहा।
तन्त्र के उपदेष्टा भगवान शिव हैं और आदि श्रोता भगवती पार्वती। तन्त्र के लिए ‘आगम’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। शिव के मुख से इसका आगमन होने से ‘आ’ पार्वती के मुख में गमन होने से ‘ग’ और भगवान विष्णु के द्वारा इसको समर्थन करने से ‘म’ मिलकर ‘आगम’ शब्द बनता है। कलियुग में आगमोक्त साधना से ही देवता शीघ्र प्रसन्न होते हैं। अतः तन्त्र-मार्ग से देवताओं का अर्चन अवश्य ही करना चाहिए।
वैसे तो तन्त्र ग्रन्थों की संख्या हजारों में है, किन्तु-मुख्य-मुख्य तन्त्र 64 कह गये हैं। आधुनिक युग में परम आदरणीय श्रीरामकृष्ण परमहंस जी ने 64 तन्त्रों में वर्णित सम्पूर्ण साधनाएं सम्पन्न की थीं। तन्त्र का प्रभाव विश्व स्तर पर है और इसका प्रमाण हिन्दू मुस्लिम-जैन, तिब्बती आदि धर्मों की तन्त्र-साधना के ग्रन्थ हैं। अपने देश में प्राचीन काल से ही बंगाल, बिहार और राजस्थान तन्त्र के गढ़ रहे हैं।
प्रस्तुत पुस्तक ‘तन्त्र साधना से सिद्ध’ में तन्त्र-शास्त्र के विषय में काफी कुछ समझाने का प्रयास किया गया है। कुछ दुर्लभ गोपनीय तन्त्र पहली बार प्रकाश में आ रहे हैं किन्तु जनकल्याणार्थ मारणादि षट्कर्मों पर मैंने कलम नहीं चलायी है। आप स्वस्थ-प्रसन्न समृद्ध रहें ऐसे दिव्यतम प्रयोग इसमें संकलित हैं। कुछ मेरे अनुभूत और कुछ अन्यों के द्वारा अनुभूत हैं।
अनेक पाठकों ने पत्र लिखा है कि आप अपनी पुस्तकों में लिखते हैं कि फलां की जानकारी के लिए मेरी.... पुस्तक पढ़ें। क्या एक पुस्तक में सब कुछ नहीं लिख सकते ? उत्तर में निवेदन है कि ‘मन्त्र साधना से सिद्धि:’ ‘यन्त्र साधना से सिद्घि’ और तन्त्र साधना से सिद्ध’ नाम की मेरी तीनों पुस्तकें एक दूसरे की पूरक हैं। अगर एक ही बात को बार-बार हर पुस्तक में लिखा जाये तो पुस्तक का कलेवर बढ़ेगा और मूल्य भी। फिर भी मैं आगे से यह प्रयास करने का प्रयास करूंगा कि आपको एक ही पुस्तक में सब कुछ मिले।
भौतिक बाधाओं के आध्यात्मिक उपचार- यह मेरी आगामी प्रकाशित होने वाली पुस्तक है। जीवन में व्याप्त प्रतिकूलताओं के उत्पन्न होने के कारण और उनके निवारण के उपाय इसमें दिये गये है। कौन सा रोग शरीर में किस कारण से उत्पन्न होता है और उसका आध्यात्मिक उपचार कैसे किया जाये ? शरीर निरोग रखने का विशिष्ट किन्तु अचूक प्रभावशाली मन्त्र भी इसमें दिया गया है। व्यापार-बाधा, शत्रु-बाधा आदि निवारण के उपाय भी हैं।
यज्ञ-विज्ञान-इस पुस्तक का भी लेखन कार्य प्रगति पर है। अपने नामानुसार ही इसमें हवन प्रक्रिया का विस्तृत-विवेचन प्रमाणिकता के साथ किया गया है। हवन के सभी अंगों, यथा-यज्ञ, पात्र, कुण्ड हवन-सामग्री, समिधा, स्त्रुवा, दक्षिणा आदि के सम्बन्ध में उठने वाले सभी क्यों ? और कैसे ? का उत्तर देने का प्रामाणिक प्रयास इसमें किया गया है। वैदिक और तान्त्रिक दोनों प्रकार की यज्ञ-प्रक्रिया को इसमें सपद्धति प्रस्तुत किया गया है।
दुर्भाग्य नाश के उपाय- अनेक साधकों का आग्रह है कि कोई ऐसी पुस्तक हो जिसके विभिन्न प्रकार के दुर्भाग्य और उनके नष्ट करने के उपाय व सौभाग्य वृद्धि के विषय में प्रामाणिक, अनुकूल प्रयोग हों। ऐसी ही आवश्यकता की पूर्ति के लिए इस पुस्तक में दुर्भाग्य के विषय में जन्मपत्र, वास्तु, अभिचार आदि का विचार और उनके दोष निवारण के साथ-साथ सौभाग्यशाली जीवन के लिए विविध प्रयोग भी संकलित होंगे।
‘तन्त्र साधना से सिद्ध में तान्त्रिक हवन प्रक्रिया का सम्पूर्ण वर्णन किया गया है। अब इसकी सहायता से आप अपने मन्त्र-जप के हवन-कार्य को सुविधा एवं सरलतापूर्वक कर सकते हैं। प्रस्तुत पुस्तक को ध्यान से आद्योपान्त पढ़ें, हो सकता है आपके मन में उठे किसी प्रश्न का उत्तर किसी अन्य पृष्ठ पर मिल जाये। फिर भी कोई प्रश्न शेष रहे तो पत्र द्वारा मुझसे अपनी शंका का समाधान कर सकते हैं। कोई प्रयोग यदि आप करते हैं तो उसके परिणाम से मुझे अवश्य अवगत करायें, आभारी रहूँगा।
अन्त में, एक बात और यद्यपि पुस्तक में मन्त्र आदि शुद्ध रखने की पूरी सावधानी रखी गयी है फिर भी पुस्तक से पढ़कर साधना नहीं करनी चाहिए। किसी जानकार व्यक्ति से पूरी प्रक्रिया सीख-समझ लेनी चाहिए। निश्चित सफलता का विश्वास और अटूट श्रद्धा बनाये रखें।
तन्त्र के उपदेष्टा भगवान शिव हैं और आदि श्रोता भगवती पार्वती। तन्त्र के लिए ‘आगम’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। शिव के मुख से इसका आगमन होने से ‘आ’ पार्वती के मुख में गमन होने से ‘ग’ और भगवान विष्णु के द्वारा इसको समर्थन करने से ‘म’ मिलकर ‘आगम’ शब्द बनता है। कलियुग में आगमोक्त साधना से ही देवता शीघ्र प्रसन्न होते हैं। अतः तन्त्र-मार्ग से देवताओं का अर्चन अवश्य ही करना चाहिए।
वैसे तो तन्त्र ग्रन्थों की संख्या हजारों में है, किन्तु-मुख्य-मुख्य तन्त्र 64 कह गये हैं। आधुनिक युग में परम आदरणीय श्रीरामकृष्ण परमहंस जी ने 64 तन्त्रों में वर्णित सम्पूर्ण साधनाएं सम्पन्न की थीं। तन्त्र का प्रभाव विश्व स्तर पर है और इसका प्रमाण हिन्दू मुस्लिम-जैन, तिब्बती आदि धर्मों की तन्त्र-साधना के ग्रन्थ हैं। अपने देश में प्राचीन काल से ही बंगाल, बिहार और राजस्थान तन्त्र के गढ़ रहे हैं।
प्रस्तुत पुस्तक ‘तन्त्र साधना से सिद्ध’ में तन्त्र-शास्त्र के विषय में काफी कुछ समझाने का प्रयास किया गया है। कुछ दुर्लभ गोपनीय तन्त्र पहली बार प्रकाश में आ रहे हैं किन्तु जनकल्याणार्थ मारणादि षट्कर्मों पर मैंने कलम नहीं चलायी है। आप स्वस्थ-प्रसन्न समृद्ध रहें ऐसे दिव्यतम प्रयोग इसमें संकलित हैं। कुछ मेरे अनुभूत और कुछ अन्यों के द्वारा अनुभूत हैं।
अनेक पाठकों ने पत्र लिखा है कि आप अपनी पुस्तकों में लिखते हैं कि फलां की जानकारी के लिए मेरी.... पुस्तक पढ़ें। क्या एक पुस्तक में सब कुछ नहीं लिख सकते ? उत्तर में निवेदन है कि ‘मन्त्र साधना से सिद्धि:’ ‘यन्त्र साधना से सिद्घि’ और तन्त्र साधना से सिद्ध’ नाम की मेरी तीनों पुस्तकें एक दूसरे की पूरक हैं। अगर एक ही बात को बार-बार हर पुस्तक में लिखा जाये तो पुस्तक का कलेवर बढ़ेगा और मूल्य भी। फिर भी मैं आगे से यह प्रयास करने का प्रयास करूंगा कि आपको एक ही पुस्तक में सब कुछ मिले।
भौतिक बाधाओं के आध्यात्मिक उपचार- यह मेरी आगामी प्रकाशित होने वाली पुस्तक है। जीवन में व्याप्त प्रतिकूलताओं के उत्पन्न होने के कारण और उनके निवारण के उपाय इसमें दिये गये है। कौन सा रोग शरीर में किस कारण से उत्पन्न होता है और उसका आध्यात्मिक उपचार कैसे किया जाये ? शरीर निरोग रखने का विशिष्ट किन्तु अचूक प्रभावशाली मन्त्र भी इसमें दिया गया है। व्यापार-बाधा, शत्रु-बाधा आदि निवारण के उपाय भी हैं।
यज्ञ-विज्ञान-इस पुस्तक का भी लेखन कार्य प्रगति पर है। अपने नामानुसार ही इसमें हवन प्रक्रिया का विस्तृत-विवेचन प्रमाणिकता के साथ किया गया है। हवन के सभी अंगों, यथा-यज्ञ, पात्र, कुण्ड हवन-सामग्री, समिधा, स्त्रुवा, दक्षिणा आदि के सम्बन्ध में उठने वाले सभी क्यों ? और कैसे ? का उत्तर देने का प्रामाणिक प्रयास इसमें किया गया है। वैदिक और तान्त्रिक दोनों प्रकार की यज्ञ-प्रक्रिया को इसमें सपद्धति प्रस्तुत किया गया है।
दुर्भाग्य नाश के उपाय- अनेक साधकों का आग्रह है कि कोई ऐसी पुस्तक हो जिसके विभिन्न प्रकार के दुर्भाग्य और उनके नष्ट करने के उपाय व सौभाग्य वृद्धि के विषय में प्रामाणिक, अनुकूल प्रयोग हों। ऐसी ही आवश्यकता की पूर्ति के लिए इस पुस्तक में दुर्भाग्य के विषय में जन्मपत्र, वास्तु, अभिचार आदि का विचार और उनके दोष निवारण के साथ-साथ सौभाग्यशाली जीवन के लिए विविध प्रयोग भी संकलित होंगे।
‘तन्त्र साधना से सिद्ध में तान्त्रिक हवन प्रक्रिया का सम्पूर्ण वर्णन किया गया है। अब इसकी सहायता से आप अपने मन्त्र-जप के हवन-कार्य को सुविधा एवं सरलतापूर्वक कर सकते हैं। प्रस्तुत पुस्तक को ध्यान से आद्योपान्त पढ़ें, हो सकता है आपके मन में उठे किसी प्रश्न का उत्तर किसी अन्य पृष्ठ पर मिल जाये। फिर भी कोई प्रश्न शेष रहे तो पत्र द्वारा मुझसे अपनी शंका का समाधान कर सकते हैं। कोई प्रयोग यदि आप करते हैं तो उसके परिणाम से मुझे अवश्य अवगत करायें, आभारी रहूँगा।
अन्त में, एक बात और यद्यपि पुस्तक में मन्त्र आदि शुद्ध रखने की पूरी सावधानी रखी गयी है फिर भी पुस्तक से पढ़कर साधना नहीं करनी चाहिए। किसी जानकार व्यक्ति से पूरी प्रक्रिया सीख-समझ लेनी चाहिए। निश्चित सफलता का विश्वास और अटूट श्रद्धा बनाये रखें।
तन्त्र साधना
शब्द शास्त्र के अनुसार तन्त्र शब्द ‘तन’ धातु से बना
है
जिसका अर्थ है विस्तार। शैव सिद्धान्त’ के ‘कायिक
आगम’
में इसका अर्थ किया गया है, ‘वह शास्त्र जिसके द्वारा ज्ञान का
विस्तार किया जाता है- -तन्यते विस्तार्यते ज्ञानम् अनेन्, इति
तन्त्रम्।’’ तन्त्र की निरुक्ति
‘तन्’ (विस्तार
करना) और ‘त्रै’ (रक्षा करना), इन दोनों
धातुओं के योग
से सिद्ध होती है। इसका तात्पर्य यह है कि तन्त्र अपने समग्र अर्थ में
ज्ञान का विस्तार करने के साथ उस पर आचरण करने वालों का त्राण भी करता है।
तन्त्र-शास्त्र का एक ही नाम आगम शास्त्र भी है। इसके विषय में कहा गया है-
तन्त्र-शास्त्र का एक ही नाम आगम शास्त्र भी है। इसके विषय में कहा गया है-
आगमात् शिववक्त्रात् गतं च गिरिजा मुखम्।
सम्मतं वासुदेवेन आगमः इति कथ्यते।।
सम्मतं वासुदेवेन आगमः इति कथ्यते।।
वाचस्पति मिश्र ने योग भाष्य की तत्व वैशारदी व्याख्या में
‘आगम’ शब्द का अर्थ करते हुए लिखा है कि जिससे
अभ्युदय (लौकिक
कल्याण) और निःश्रेयस (मोक्ष) के उपाय बुद्धि में आते हैं, वह
‘आगम’ कहलाता है। शास्त्रों के एक अन्य स्वरूप को
‘निगम’ कहा जाता है। इसमें वेद, पुराण, उपनिषद आदि
आते हैं।
इसमें ज्ञान, कर्म और उपासना आदि के विषय में बताया गया है। इसीलिए
वेद-शास्त्रों को निगम कहते हैं। उस स्वरूप को व्यवहार आचरण और व्यवहार
में उतारने वाले उपायों का रूप जो शास्त्र बतलाता है, उसे
‘आगम’ कहते हैं। तन्त्र अथवा आगम में व्यवहार पक्ष ही
मुख्य
है। तन्त्र क्रियाओं और अनुष्टान पर बल देता है ‘वाराही
तन्त्र’ में इस शास्त्र के जो सात लक्षण बताए हैं, उनमें
व्यवहार ही
मुख्य है। ये सात लक्षण हैं- सृष्टि, प्रत्यय, देवार्चन सर्वसाधन
(सिद्धियां प्राप्त करने के उपाय) पुरश्चरण (मारण, मोहन, उच्चाटन आदि
क्रियाएं) षट्कर्म (शान्ति, वशीकरण स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन और मारण के
साधन) तथा ध्यान (ईष्ट के स्वरूप का एकाग्र तल्लीन मन से चिन्तन)।
तन्त्र का सामान्य अर्थ है विधि या उपाय। विधि या उपाय कोई सिद्धान्त नहीं है। सिद्धान्तों को लेकर मतभेद हो सकते हैं। विग्रह और विशद भी हो सकते हैं, लेकिन विधि के सम्बन्ध में कोई मतभेद नहीं है। डूबने से बचने के लिए तैरकर ही आना पड़ेगा, बिजली चाहिए तो कोयले, पानी का अणु का रूपान्तरण करना ही पड़ेगा। दौड़ने के लिए पाँव आगे बढ़ाने ही होंगे। पर्वत पर चढ़ना है तो ऊँचाई की तरफ कदम बढ़ाये बिना कोई चारा नहीं है। यह क्रियाएँ विधि कहलाती हैं। तन्त्र अथवा आगम में व्यवहार पक्ष ही मुख्य है। तन्त्र की दृष्टि में शरीर प्रधान निमित्त है। उसके बिना चेतना के उच्च शिखरों तक पहुँचा ही नहीं जा सकता। इसी कारण से तन्त्र का तात्पर्य ‘तन्’ के माध्यम से आत्मा का ’त्राण’ या अपने आपका उद्धार भी कहा जाता है। यह अर्थ एक सीमा तक ही सही है। वास्तव में तन्त्र साधना में शरीर, मन और काय कलेवर के सूक्ष्मतम् स्तरों का समन्वित उपयोग होता है। यह अवश्य सत्य है कि तन्त्र शरीर को भी उतना ही महत्त्व देता है जितना कि मन बुद्घि और चित को।
कर्मकाण्ड और पूजा-उपासना के तरीके सभी धर्मों में अगल-अलग है, पर तन्त्र के सम्बन्ध में सभी एकमत हैं। सभी धर्मों का मानना है मानव के भीतर अनन्त ऊर्जा छिपी हुई है, उसका पाँच-सात प्रतिशत हिस्सा ही कार्य में आता है, शेष भाग बिना उपयोग के ही पड़ा रहता है। सभी धर्म –सम्प्रदाय इस बात को एक मत से स्वीकार करते हैं व अपने हिसाब से उस भाग का मार्ग भी बताते हैं। उन धर्म-सम्प्रदायों के अनुयायी अपनी छिपी हुई शक्तियों को जगाने के लिए प्रायः एक समान विधियां ही काम में लाते हैं। उनमें जप, ध्यान, एकाग्रता का अभ्यास और शरीरगत ऊर्जा का सघन उपयोग शामिल होता है। यही तन्त्र का प्रतिपाद्य है।
विषय को स्पष्ट करने के लिए तन्त्र-शास्त्र भले ही कहीं सिद्धान्त की बात करते हों, अन्यथा आगम-शास्त्रों का तीन चौथाई भाग विधियों का ही उपदेश करता है। तन्त्र के सभी ग्रन्थ शिव और पार्वती के संवाद के अन्तर्गत ही प्रकट हैं। देवी पार्वती प्रश्न करती हैं और शिव उनका उत्तर देते हुए एक विधि का उपदेश करते हैं। अधिकांश प्रश्न समस्या प्रधान ही हैं। सिद्धान्त के सम्बन्ध में भी कोई प्रश्न पूछा गया हो तो भी शिव उसका उत्तर कुछ शब्दों में देने के उपरान्त विधि का ही वर्णन करते हैं।
आगम शास्त्र के अनुसार करना ही जानना है और कोई जानना ज्ञान की परिभाषा में नहीं आता। जब तक कुछ किया नहीं जाता साधना में प्रवेश नहीं होता, तब तक कोई उत्तर या समाधान नहीं है।
तन्त्र का सामान्य अर्थ है विधि या उपाय। विधि या उपाय कोई सिद्धान्त नहीं है। सिद्धान्तों को लेकर मतभेद हो सकते हैं। विग्रह और विशद भी हो सकते हैं, लेकिन विधि के सम्बन्ध में कोई मतभेद नहीं है। डूबने से बचने के लिए तैरकर ही आना पड़ेगा, बिजली चाहिए तो कोयले, पानी का अणु का रूपान्तरण करना ही पड़ेगा। दौड़ने के लिए पाँव आगे बढ़ाने ही होंगे। पर्वत पर चढ़ना है तो ऊँचाई की तरफ कदम बढ़ाये बिना कोई चारा नहीं है। यह क्रियाएँ विधि कहलाती हैं। तन्त्र अथवा आगम में व्यवहार पक्ष ही मुख्य है। तन्त्र की दृष्टि में शरीर प्रधान निमित्त है। उसके बिना चेतना के उच्च शिखरों तक पहुँचा ही नहीं जा सकता। इसी कारण से तन्त्र का तात्पर्य ‘तन्’ के माध्यम से आत्मा का ’त्राण’ या अपने आपका उद्धार भी कहा जाता है। यह अर्थ एक सीमा तक ही सही है। वास्तव में तन्त्र साधना में शरीर, मन और काय कलेवर के सूक्ष्मतम् स्तरों का समन्वित उपयोग होता है। यह अवश्य सत्य है कि तन्त्र शरीर को भी उतना ही महत्त्व देता है जितना कि मन बुद्घि और चित को।
कर्मकाण्ड और पूजा-उपासना के तरीके सभी धर्मों में अगल-अलग है, पर तन्त्र के सम्बन्ध में सभी एकमत हैं। सभी धर्मों का मानना है मानव के भीतर अनन्त ऊर्जा छिपी हुई है, उसका पाँच-सात प्रतिशत हिस्सा ही कार्य में आता है, शेष भाग बिना उपयोग के ही पड़ा रहता है। सभी धर्म –सम्प्रदाय इस बात को एक मत से स्वीकार करते हैं व अपने हिसाब से उस भाग का मार्ग भी बताते हैं। उन धर्म-सम्प्रदायों के अनुयायी अपनी छिपी हुई शक्तियों को जगाने के लिए प्रायः एक समान विधियां ही काम में लाते हैं। उनमें जप, ध्यान, एकाग्रता का अभ्यास और शरीरगत ऊर्जा का सघन उपयोग शामिल होता है। यही तन्त्र का प्रतिपाद्य है।
विषय को स्पष्ट करने के लिए तन्त्र-शास्त्र भले ही कहीं सिद्धान्त की बात करते हों, अन्यथा आगम-शास्त्रों का तीन चौथाई भाग विधियों का ही उपदेश करता है। तन्त्र के सभी ग्रन्थ शिव और पार्वती के संवाद के अन्तर्गत ही प्रकट हैं। देवी पार्वती प्रश्न करती हैं और शिव उनका उत्तर देते हुए एक विधि का उपदेश करते हैं। अधिकांश प्रश्न समस्या प्रधान ही हैं। सिद्धान्त के सम्बन्ध में भी कोई प्रश्न पूछा गया हो तो भी शिव उसका उत्तर कुछ शब्दों में देने के उपरान्त विधि का ही वर्णन करते हैं।
आगम शास्त्र के अनुसार करना ही जानना है और कोई जानना ज्ञान की परिभाषा में नहीं आता। जब तक कुछ किया नहीं जाता साधना में प्रवेश नहीं होता, तब तक कोई उत्तर या समाधान नहीं है।
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- गोपनीय दुर्लभ तन्त्र साधनाएँ
अनुक्रम
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