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हास्य-व्यंग्य >> पिछले दिनों

पिछले दिनों

शरद जोशी

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 630
आईएसबीएन :81-7028-338-8

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‘पिछले दिनों’ शरद जोशी के ऐसे व्यंग्य लेखों का संग्रह है जो एक ओर सामाजिक स्थितियों को नई दृष्टि देते हुए सही दिशा की ओर इंगित करते हैं तो दूसरी ओर अपनी तीक्ष्णता और पैनेपन से भी पाठक को प्रभावित करते हैं।

Pichley Dinon - A hindi Book by - Sharad Joshi पिछले दिनों - शरद जोशी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शरद जोशी की गणना हिन्दी के अग्रणी हास्य-व्यंग्यकारों में की जाती है। उनकी रचनाएँ जहाँ एक ओर हंसाती और मन को गुदगुदाती हैं, वहाँ दूसरी ओर जबरदस्त चोट भी करती हैं। समाज, शासन और राजनीति उनकी रचनाओं के विशेष रहे हैं।
‘पिछले दिनों’ शरद जोशी के ऐसे व्यंग्य लेखों का संग्रह है जो एक ओर सामाजिक स्थितियों को नई दृष्टि देते हुए सही दिशा की ओर इंगित करते हैं तो दूसरी ओर अपनी तीक्ष्णता और पैनेपन से भी पाठक को प्रभावित करते हैं। इन रचनाओं से हिन्दी साहित्य का स्तर ऊँचा हुआ है।

हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे !

देश के आर्थिक नंदन कानन में कैसी क्यारियाँ पनपी-संवरी हैं भ्रष्टाचार की, दिन–दूनी रात चौगुनी ! कितनी डाल, कितने पत्ते, कितने फूल और लुक-छिपकर आती कैसी मदमाती सुगंध। यह मिट्टी बड़ी उर्वरा है, शस्य श्यामल, काले करमों के लिए। दफ्तर-दफ्तर नर्सरियाँ हैं और बड़े बाग जिनके निगहबान बाबू, सुपरिंटेंडेंट, डायरेक्टर, सचिव मंत्री। जिम्मेदार पदों पर बैठे जिम्मेदार लोग, क्या कहने आई. ए. एस. एम. ए. विदेश रिटर्न आज़ादी के आंदोलन में जेल जानेवाले चरखे के कतैया गांधीजी के चेले बयालीस के जुलूस वीर, मुल्क का झंडा अपने हाथ से ऊपर चढ़ानेवाले जनता के अपने भारत मां के लाल, काल अंग्रेज़न के। कैसा खा रहे हैं रिश्वत गप-गप। ठाठ हो गए सुसरी आज़ादी मिलने के बाद। खूब फूटा है पौधा सारे देश में, पनप रहा केसर क्यारियों से कन्याकुमारी तक, राजधानियों में, जिला दफ्तर, तहसील, बी. डी. ओ. पटवारी के घर तक खूब मिलता है काले पैसे का कल्पवृक्ष पी. डब्ल्यू डी. आर. टी. ओ. चुंगी नाके, बीज गोदाम से मुंसीपाल्टी तक। सब जगह अपनी–अपनी किस्मत के टेंडर खुलते हैं, रुपया बंटता है ऊपर से नीचे, आजू-बाजू। मनुष्य मनुष्य के काम आ रहा, खा रहे हैं तो काम भी तो बना रहे हैं। कैसा नियमित मिलन है, बिलैती खुलती है कलैजी की प्लेट मंगवाई जाती है। साला कौन कहता है राष्ट्र में एकता नहीं, सभी जुटे है खा रहे हैं, कुतर-कुतर पंचवर्षीय योजना, विदेश से उधार आया रुपया। प्रोजेक्टों के सूखे पाइपों, पर ‘फाइव फाइल फाइव’ पीते बैठे हंस रहे हैं ठेकेदार, इंजीनियर, मंत्री के दौरे के लंच-डिनर का मेनू बना रहे विशेषज्ञ।

स्वास्थ्य मंत्री की बेटी के ब्याह में टेलिविज़न बगल में दाबकर लाया है दवाई कंपनी का अदना स्थानीय एजेंट। खूब मलाई कट रही है। हर सब-स्पेक्टर ने फ्लेट कटवा लिया कालोनी में। टाउन प्लानिंगवालों की मुट्ठी गर्म करने से कृषि की सस्ती ज़मीन डेवलपेंट में चली जाती है। देश का विकास हो रहा है भाई ! आदमी चांद पर पहुँच रहा हम शनिवार की रात टॉप फाइव स्टार होटल में नहीं पहुंच सकते। लानत है ऐसे मुल्क पर !

कहां पर नहीं खिल रहे भ्रष्टाचार के फूल। जहां-जहां जाती है सरकार, उसके नियम कानून मंत्री अमला कारिदें। जहां-जहां जाती है सूरज की किरन, वहीं-वहीं पनपता है भ्रष्टाचार का पौधा। खूब बॉटनी है इसकी, बड़ी फौली ज्यॉग्राफी, मोटा इतिहास निरंतर निजी लाभ का अलजेब्रा उज्जवल भविष्य। भारतीय नेताओं, कर्मचारियों, अफसरों के हाथ में भाग्य रेखा के सामान्तर भ्रष्टाचार की नयी रेखा बन रही है आजकल पलने में दूध पीता बच्चा सोचता है आगे चलकर विधायक बनूं या सिविल इंजीनियर, माल कहां ज़्यादा कटेगा ? पेट में था जब अभिमन्यु तब रोज़ रात भ्रष्ट बाप सुनाया करते थे, जेवरों से लदी मां को अपने फाइलें दाब रिश्वत खाने के कारनामें। सुनता रहता था कोख में अभिमन्यु। कितना अच्छा है ना ! संचालनालय, सचिवालय के चक्रव्यूह में भतीजों को मदद करते हैं चाचा। लो बेटा, हम खाते हैं तुम भी खाओ। मैं भी इस चक्रव्यूह में जाऊंगा मां, आइस्क्रीम खाते हुए कहता है बारह वर्ष का बालक। मां लाड़ से गले लगा लेती है, कान्वेंट मिरांडा में पढ़ी सुघड़ अंग्रेज़ी बोलनेवाली मां गले लगा लेती है होनहार बेटे को।

मंत्रिमंडलों में विराजते हैं भ्रष्टाचार के महाप्रभु। सबके सिर पर स्नेह का अदृश्य हाथ फेरते हुए। चिंता न करो भाई। ‘हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे’। चारों तरफ लगता है हरा-भरा देश, विकास, ग्रांट, दौरे, भाषण, स्वागत। कुंलाचें भरते हैं यहां से वहां। आंगन में खेलत हैं, ठुमक-ठुमक चमचे, लाइसेंस के उम्मीदवार, पुराने यार आंदोलन के जमाने के। मधुर मुस्कान लिए देखते हैं मंत्री महोदय अपनी उपजाति के नवयुवकों को। भाई, जानता हूं तुम्हारे लिए भी कुछ करना है। फोन लगाओ फलां को मैं बात करूँगा, शायद तुम्हारे लिए कोई अच्छी जगह निकल आए उसके कारखाने में। हेलो। हां जी हलो हां जी, अवश्य, अवश्य आपकी जैसी आज्ञा।

गूंजती है स्वर लहरी सारे देश में। तार जुड़ा है आपस में यहां से वहां। पतली-पतली गलियों से बढ़ रहे हैं दबे पांव लोग। फैल रहे हैं चूहे सपनों के गोदाम में कुतर गए इरादे इस देश के। उपसमितियां, आयोग, जांच बयान, पटल पर रखी सड़ रही वास्तविकताएँ। अखबारों से निरंतर आती है काले कारनामों की गंध। अर्थशास्त्र और राजनीति में भ्रष्टाचार का पॉल्यूशन। सफाइयां पेश करते हैं मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों की और मंत्री अपने अफसरों की और अफसर बाबुओं की। हल्की-हल्की गुर्राहट, खुसफुसाहट, वादे, बोतल समाप्त होने के उपरान्त के भावुक स्वर। कल ज़रूर कर देने के इरादे। अपढ़ मां के अंग्रेज़ी छांटते पूत, दवाई न मिलने पर मर गए बाप के लखपती बेटे, अंधेरे बार के कोने में कन्या से चहचहाते।

पूरी धरती पर छा गए काले व्यवसाय के बादल। भ्रष्ट अफ़सर खरीदता है खेत यानी फार्म जिसे जुतवाता है कृषि विभाग का असिस्टेंट ट्रेक्टर कंपनी के एजेंट से कह कर, जहां लगता है मुफ्त पंप और प्यासी धरती पीती है रिश्वतों का पानी देती है गेहूँ, जो बिकता है काले बाज़ार में। सारे सागर की मसी करैं और सारी ज़मीन का कागज़ फिर भी भ्रष्टाचार का भारतीय महाकाव्य अलिखित ही रहेगा। कैसी प्रसन्न बैठी है काली लछमी प्रशासन के फाइलोंवाले कमलपत्र पर। उद्योगों के हाथी डुला रहे हैं चंवर। चरणों में झुके हैं दुकानदार, ठेकेदार, सरकार को माल सप्लाई करनेवाले नम्र, मधुर, सज्जन लोग, पहली सतह जो हो, दूसरी सतह सुनहरी है। बाथरूम में सोना दाब विदेशी साबुन से देशी मैल छुडाते संभ्रांत लोग राय रखते हैं खास पॉलिटिक्स में, बहुत खुलकर बात करते हैं, पक्ष और प्रतिपक्ष से। जनाब जब तक गौरमंट कड़ा कदम नहीं उठाती कुछ नहीं होगा। देख नहीं रहे करप्शन कितना बढ़ रहा है। आप कुछ लेंगे, शैंपेन वगैरह ! प्लीज, तकल्लुफ नहीं, नो फॉर्मेलिटी।

देखिए, जहां तक करप्शन का सवाल है कहां नहीं है। सभी देशों में है। भारत में तो काफी कम है। फिर सवाल यह है कि महंगाई कितनी बढ़ रही है। बेचारा मिडिल क्लास कहां जाए। तनख्वाह से तो गुज़ारा होता नहीं। मैं बीयर लूंगा।
आप ठीक कह रहे हैं। बैरा, दो बीयर। और सुनाइए कब सबमिट कर रहे हैं प्रोजेक्ट रिपोर्ट। हम बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं। हें हें। यह आजकल जो नई केब्रे गर्ल आई है, बड़ी दुबली है।

प्रगति कर रहा है देश। मरकरी के नीचे पावडर लगाती सज रही पार्टी के लिए बहुएं टाई कसते हुए सीटी बजा रहे हैं ऊंचे दहेज में मिला भ्रष्ट अफसर, आई .ए. एस. दूल्हा। चीनी लड़कियों से बाल सेट करवा रही हैं कुलवधू कालगर्ल के एजेंट से समय तय कर रहा है। कॉरिडॉर में पत्नी की प्रतीक्षा करता कंपनी का सुसंस्कृत पब्लिक रिलेशन अफसर। राशन और साबुन की क्यू में खड़े लोग रेडियो की दुकान से आता संगीत सुनते भीगते रहते हैं। रोज़ खुल जाते हैं दफ्तर, शो केस, रोज़ अपनी ज़रूरतों को कम करता जाता है साधारण आदमी। वही क्यू, वही मिलावट, वही भाषण !

झोंपड़पट्टी के बाहर खेलते रहते हैं गंदे काले बच्चे। इंपाला में रविशंकर का लेटेस्ट एल. पी. खरीद लौटती हुई औरत सोचती है, ये लोग अपने बच्चों को स्कूल क्यूं नहीं भेजते ? रेल के बाहर से खिड़कियों में हाथ फैला रोटी, बची हुई सब्जी या पांच-दस पैसा मांगते हैं, गंदे घिनौने भिखारी। एयरकंडीशन कार में अपने टोस्ट पर मक्खन लगाता रेवले केटरिंग को नापसंद करता वह शरीफ आदमी आमलेट खाते सहयात्री से पूछता है राष्ट्रीय प्रश्न, ये लोग क्यूं मांगते हैं। कोई मेहनत-मज़दूरी क्यों नहीं करते ? हर विषय में खास राय रखते हैं सभ्य जन। पॉलिटिक्स में दो टूक बात करते हैं सलाद पर नमक छिड़कते हुए। रिजर्व बैंक की पॉलिसी का विवेचन करते क्लब के संभ्रांत सदस्य कनखियों से नापते रहते हैं दूसरे की पत्नी की कमर। खूब मज़ा है इस देश में कितना रंगीन और खुशबूदार है प्रगति का चित्र।

नासिक और देवास के कारखाने छापते रहते हैं नोट। पेरिस, लंदन, न्यूयार्क से रिसती रहती है विदेशी सहायता। खेलता है डनलपियो पर लेटा बालक हांगकांग का खिलौना रोजेज लगवाती है नये माली से मैडम खुद हो गार्डन में अंदर साहब युवा आया को इशारे से स्टडी में बुलाता है। आगे बढ़ रहा है। सुसंस्कृत देश, भ्रष्टाचार के नल, नाली चहबच्चे, तालाब, नदी सींच रहे हैं राष्ट्र का नया व्यक्तित्व। देश की आत्मा चुपके से खा रही स्मगल की ऑस्ट्रेलियन पनीर और घिघियाकर देखती है काले धन से उठे समंदर किनारे के आकाश छूते भवन। प्रगति कर रहा है देश। जीभ लपलपाकर इधर-उधर देख रहे हैं लोग। सबको अपना जीवन छोटा लगने लगा है। कहीं से जमे डोल। सेमिनार में जनसंख्या और गरीबी के सवाल पर आंकडों से लदा अंग्रेजी में लेख पढ़ होटल के कमरे में लौटता है विदेश से लौटा बुद्धिजीवी। दरवाज़ा खोल बैरा धीरे से पूछता है, साहब शौक करते हैं क्या, लाऊं दो नई आई है। नेपालन या आप जो पसंद करें। कितनी साफ बात कही थी उसने जनसंख्या के सवाल पर, खुद उपमंत्री चाय के वक्त प्रशंसा कर रहे थे।

उज्जवल है देश का भविष्य। कौन कहता है, हम प्रगति नहीं कर रहे। आगे नहीं बढ़ रहे हर क्षेत्र में। प्रतिभा की कमी नहीं है इस देश में। हमारी समस्या है, विकास के लिए पर्याप्त धन का अभाव। इसी कारण हमारी योजनाएँ पूरी नहीं हो पा रही। यदि थोड़े धन की व्यवस्था हम जुटा लें, तो बहुत तेज़ी से अन्य मुल्कों के बराबर आ सकते हैं।
ठीक कह रहे हैं आप। मेरे खयाल से अब खाने का ऑर्डर दे दिया जाए। वॉट वुड यू लाइक टू हैव ? चिकन !



पराजय सारंगी



आज सारंगी बजाने को मन करता है। इसलिए कि सारंगी से करुण रस की सृष्टि होती है। कांग्रेस की पराजय के क्षण में एक यही वाद्य बजाया जाना चाहिए। कितने दिन एक होनेवाली घटना के हो जाने के इन्तज़ार में बीते। डूबता कब डूबेगा इन्तज़ार में। और वह क्षण आ गया, तो समझ नहीं आ रहा क्या करूं? सारंगी तलाश रहा हूं।
महफिलें उजड़ गईं, तो अब चमचों का क्या होगा ? उनका क्या होगा, जो कविता छोड़ सत्तारूढ़ पार्टी के मैनिफेस्टो लिख लेखकों और पत्रकारों के भाग्य विधाता बन गए थे ? उनकी भावी उपलब्धियाँ हवा में झूलती कल रात एकाएक जाने कहां लोप हो गईं। उस कीर्तन-मण्डली का क्या होगा, जो प्रतिबद्धता के बहाने मलाई पर नज़र गड़ा सबको फासिस्ट और प्रतिक्रियावादी करार दे रही थी ? उन चूहों का क्या होगा, जो सुख-सुविधाओं के गोदाम में प्रवेश करने के लिए सरकारी संस्थाओं में सूराख किया करते थे।

कबीर ने कभी कहा था, ‘बूड़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल’ उनका इशारा तो अपने ही वंश की तरफ था। पर उन्होंने सैकड़ों वर्ष पहले जो पंक्ति कही वह बार-बार घटित होने लगी। यह भी कमाल है।
देश में आपात्काल क्या आया, मानो आपात्कमाल आ गया। हमने अपनी नागरिकता अपनी अस्मिता अपने आदमी भर रह जाने का हक भी खो दिया था। देश का संविधान मानो छोटी कार का डिजाइन बन के रह गया था, जिसे जब चाहे बदला जा सके। आज जनता ने उन सारी महत्वाकांक्षाओं का लाइसेंस रद्द कर दिया।

तीस साल पहले जिस कांग्रेस को लोग उत्साह से उछालते, नारे लगाते सत्ता के दरवाजे़ तक छोड़ आए थे, वही मदमाती कांग्रेस थानेदार, कमिश्नर और स्थानीय दादाओं के कंधे पर चढ़कर बाजार से गरजती हुंकारती गुजरने लगी थी। देश का आदमी नारों, अनिर्णयों, असफलताओं, अफवाहों, आकांक्षाओं में इतना उलझ गया, इतना डर गया कि वे रेल का टाइमटेबुल ठीक करने की खातिर अपनी स्वतंत्रता बेचने को तैयार हो गया। अपने ही जुलूस से डरकर दुबक गया। पोस्टर इतने शक्तिशाली हो गए कि न्याय की मृत्यु किसी को नज़र ही नहीं आई। अखबार सच्चाई को कफन बनकर ढंकने लगे, सिर्फ इसलिए कि शायद कुछ हो जाए, कुछ ऐसा महा ऐतिहासिक देश में घट जाए।

मगर कुछ नहीं हुआ। पूरे उन्नीस माह सत्ता के चमचे लेखक हंटर को अनुशासन, हथकड़ी को सहयोग, दबाव को प्रगति भय को एकता, सचाई को प्रतिक्रिया, ईमानदारी को गद्दारी, ‘इंडिया’ को इन्दिरा, गरीबी को जहालत अफसर को प्रजातंत्र खुद को राष्ट्रीयता कहते घूमते रहे। तोता अखबार और निर्लज्ज प्रसारण का एक आकाश हर भारतवासी के इर्द-गिर्द रचा गया। वे लोग दौड़ते हुए आगे बढ़ने लगे। जिनके मूल्य नहीं थे और जो सिद्धातों को सुविधा के अनुसार बदलना जानते थे। फ्लैट कार फ्रिज और ऊंची शराब के संसार में जीने वाला उच्च मध्यवर्गीय प्रशासन की जयजयकार करने लगा-वाह-वाह, लोग वक्त से दफ्तर पहुंच रहे हैं। वाह-वाह ट्रेन राइट टाइम है। देश किस दिशा से गुज़र रहा है यह बात बेमानी हो गई। प्रसन्न हो घड़ी देखती देशवासी की आत्मा ने उस लात को महसूस नहीं किया, जो सीने पर लगी थी। पूरे उन्नीस माह ढोल बजता रहा, जिसमें व्यक्तिगत चीखें दबी रहीं।

आकाशवाणी के पार्श्व-संगीत पर लोगों द्वारा किए गए कठपुतली नृत्य को एकता, प्रगति अनुशासन आदि नामों से विभूषित किया गया। शब्दों ने अपना अर्थ खो दिया और शब्दकोश के स्वामी अफसर हो गए। इतिहास, भविष्य दोनों पर उनका कब्ज़ा था। हमारा मध्य प्रदेश तो अपनी जेलों के कारण देश में जाना जाने लगा है आपात्काल में एक व्यक्ति पर, कहते हैं यह आरोप लगाया गया कि अरविन्द शताब्दी समारोह पर अपने जिले में आयोजित कार्यक्रम में भाषण देते हुए उसने कहा था कि हमें अरविन्द के बताए मार्गों पर चलना चाहिए। इस सामान्य वाक्य का जो महापुरुषों की जन्मतिथियों पर प्राय: कहा जाता है, कुछ अफसरों ने अर्थ निकाला कि वह शख्स तब क्रांति भड़काना चाहता था, क्योंकि अरविन्द क्रांतिकारी थे। सत्य आप बोल नहीं सकते। क्योंकि उसके केवल दो अर्थ लिए जाते थे भड़काना और अफवाहें फैलाना राष्ट्र को उससे सावधान कर दिया गया था। पुराने बदले लेने की खुली छूट प्रजातंत्र के नाम पर दे दी गई थी। जब जेल में और लोगों के साथ कुछ लेखक भी ठूंसे जा रहे थे, तब हमारे भोपाल में सरकार लेखकों के सम्मेलन बुला रही थी, दायित्व का प्रशिक्षण देने। कैम्प लगाकर और उस बहाने रुपया बांट लालच दे लेखकों और कवियों की भावनाओं की नसबंदी की जा रही थी। झंड़ा चमचों के हाथ में था, नारे लग रहे थे।

दिल्ली से आए कुछ कवि, कुछ समीक्षक एक आई. ए. एस. अफसर के इशारे पर सरकारी नीतियों का साहित्य की शब्दावली में भाष्य कर रहे थे। जेल, गिरफ्तारी दबाव के माहौल में स्वतंत्रता को नया अर्थ दिया जा रहा था। जब एक युवा नेता भोपाल आए तो साहित्यकार और बुद्धिजीवियों का समूह उनके दर्शनों के लिए, उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करने गया। उन्हें मार्गदर्शन मिला भी और वे बड़े गदगद लौटे। जिस देश में साहित्य की हजारों वर्ष की परंपरा है वेद, गीता, कालिदास, तुलसी, कबीर, प्रेमचन्द, रवीन्द्र, गालिब, निराला के देश का लेखक एक सरकारी अफसर के नेतृत्व में युवा नेता से साहित्य पर मार्गदर्शन लेने गया। दायित्वबोध खुशामद और गुलामी एक ही क्रिया के तीन नाम हो गए। ऐसी कौन सी पीड़ा आ गई थी मानव समाज पर, जो साहित्यकार जागकर चिपक गए आपस में। उन्हें लगता था, बस अब तो यहां हमेशा के लिए रूस जैसा हो जाएगा, तो क्यों नहीं पहली खेप में गुलामी स्वीकार कर हम देश के अग्रणी साहित्यकार हो जाए। वे प्रतिक्रियावादियों की सूची बनाने लगे। किस-किसको जेलों में डाल दिया जाना चाहिए। इस पर चिंतन मनन करने लगे। संस्कृति के नाम पर सिर्फ पक्का गाना गाने, एब्सर्ड तसवीरें बनाने और लोक नृत्य की शैली में पैर पटकते, हाथ हिलाते, वी. आई. पी. बंगलों में जयजयकार के लिए घुसने की स्वतंत्रता रह गई। केवल उन्नीस माह में अवसरवादी चरित्र खुलकर सामने आ गया।

आपात्काल में हमारे भोपाल में एक सरकारी आदेश यह हुआ कि रवीन्द्र भवन में आयोजित हर नाटक की अगली दो पंक्तियों की सीटें केवल अधिकारियों और उनके परिवार के लिए खाली रखी जाएं। नाटक आरम्भ करने के पंद्रह मिनट पूर्व अधिकारियों से आज्ञा मिलने पर ही उन सीटों के टिकट बेचने की स्वीकृति दी जा सकती है। राष्ट्र पर संकट जो था, अफसर हॉल में पीछे कैसे बैठते : खुद गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर जिन्दा होते, तो रवीन्द्र भवन में अगली पंक्ति में नहीं बैठ पाते। बेचारे अफसर जो नहीं थे।

सूत्र 5 हों, 10 हो, 15 हों, 20 हों सारे सूत्रों का एक अर्थ चमचों ने लगाया-जयजयकार कीजिए। असल सूत्र रह गया था नसबंदी। आदमी एक केस बनकर रह गया। भाषा की सौजन्यता मर गई थी। भावनाएँ अचेत हो गई थीं।
इस सबके बावजूद देशवासियों की आँखें नहीं बन्द की जा सकीं, लोग विस्फारित डरी आँखों से देखते रहे। वास्तविकता को वृत्तचित्रों, सरकारी प्रकाशनों, टेलिविज़न और फीके अखबारों से ढंका नहीं जा सका। लोगों के हाथों में जुबिंश बाकी बची रही, वे वोट दे आए और सल्लतन बदल गई।

एक मित्र ने दूसरे से आज सुबह पूछा, यह सब हुआ कैसे, यार यह हुआ कैसे ? दूसरे मित्र ने कहा, यह ऐसे हुआ कि लोग पोलिंग बूथ पर गए, खड़े हो गए लाइन बनाकर। उन्हें चुनाव अधिकारी ने बैलेट पेपर दिया, लोगों ने सील लगाई, पर्ची मोड़ी, बैलट बॉक्स में डाल दी, गिनती हुई और सरकार बदल गई।
यह क्रिया भारतीय जनता द्वारा स्वतंत्रता के अभिनन्दन में रचित एक कविता है। बिकी आत्मा के लोग इसका अर्थ नहीं समझ पाएंगे।
आज जब मैं दंभ, सस्ती आकांक्षा निजी स्वार्थ के मिले-जुले मजार पर सारंगी बजाने बैठा हूं, अब यह सारंगी की मजबूरी है कि उससे करुण रस ही निस्सरित होता है, कृपया वे लोग न पधारें जो ईमान बेचने को प्रतिबद्धता मानते हैं। वे खाली भी नहीं है। वे पलटी मारकर नये दौर में रंग जमाने का कोई बौद्धिक दांव तलाश रहे हैं। लगता है आत्माएँ खरीदनेवाले दलाल नये पद और प्रमोशन का सपना लिए लेखकों का एक और सम्मेलन बुलाने की योजना में लग जाएंगे। हमारी जीवन पद्धति का एक दोष यह है कि ऐसे दलालों चमचों को हटाने के लिए कोई बैलेट बॉक्स नहीं।



आपातकालीन पंचतंत्र



लक्ष्य की रक्षा



एक था कछुआ, एक था खरगोश जैसा कि सब जानते हैं।
खरगोश ने कछुए को संसद, राजनीतिक मंच और प्रेस के बयानों में चुनौती दी-अगर आगे बढ़ने का इतना ही दम है, तो हमसे पहले मंजिल पर पहुंचकर दिखाओ।
रेस आरंभ हुई। खरगोश दौड़ा, कछुआ चला धीरे-धीरे अपनी चाल।
जैसा कि सब जानते हैं आगे जाकर खरगोश एक वृक्ष के नीचे आराम करने लगा। उसने संवाददाताओं को बताया कि वह राष्ट्र की समस्याओं पर गम्भीर चिंतन कर रहा है, क्योंकि उसे जल्दी ही लक्ष्य तक पहुंचना है। यह कहकर वह सो गया।
कछुआ लक्ष्य तक धीरे-धीरे पहुंचने लगा।

जब खरगोश सो कर उठा, उसने देखा कि कछुआ आगे बढ़ गया है, मेरे हारने और बदनामी के स्पष्ट आसार हैं।
खरगोश ने तुरंत आपातकाल घोषित कर दिया।
उसने अपने बयान में कहा कि प्रतिगामी पिछड़ी और कंजरवेटिव (रूढ़िवादी) ताकतें आगे बढ़ रही हैं, जिनसे देश को बचाना बहुत ज़रूरी है।
और लक्ष्य छूने के पूर्व कछुआ गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया।


शेर की गुफा में न्याय



जंगल में शेर के उत्पात बहुत बढ़ गए थे। जीवन असुरक्षित था और बेहिसाब मौतें हो रही थीं। शेर कहीं भी, किसी पर हमला कर देता था।


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