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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

दफ्तर में एक 'पत्र-बोर्ड' था। अनुपस्थित कर्मचारियों के नाम आए पत्र उस पर लगा दिए जाते थे। चपरासी लतखोरीलाल से खार खाए बैठा था। लतखोरीलाल बात-बात में उसकी खिल्ली उड़ाते थे। उसे आज मौका मिला। उसने उतारी सारी चिट्ठियाँ 'पत्र-बोर्ड' से और फख्त लतखोरीलाल का इंद्रधनुषी पोस्टकार्ड पत्र-बोर्ड के बीचों-बीच लगा दिया। 2×3 फीट के बोर्ड पर अकेला लगा वह रंग-रंगीला पोस्टकार्ड दूर से हीरे-सा चमचमाता नजर आता। जो भी आगंतुक आता, सहज ही आकर्षित हो जाता। जो नहीं होता चपरासी आकर्षित करवा देता। दिन-भर वह पत्र सबके आकर्षण का केंद्र रहा। बड़े साहब उस दिन छुट्टी पर थे। सब चटकारे ले-लेकर उस कार्ड का आनंद लेते रहे।

अगले दिन 'बुधवार' को लतखोरीलाल पधारे। 'पत्र-बोर्ड' पर वे कभी नज़र नहीं डालते थे। आज तक उनका एक भी पत्र नहीं आया था। उनके सारे रिश्तेदार जानते थे, इस कंजूस को पत्र लिखेंगे तो पत्रोत्तर में वह बैरंग पत्र डाल देगा। इसलिए रिश्तेदार तो रिश्तेदार, उनकी पत्नी भी नैहर जाती, तो भूलकर पत्र नहीं लिखती।

हाजिरी रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर वे अपनी सीट की ओर बड़े। तभी उन्होंने देखा-सारे दफ्तर वाले पत्र-बोर्ड के सामने जमा हो जोर-जोर से हँस रहे हैं। उत्सुकतावश वे भी भीड़ में घुस गए, ''अमाँ यार...अकेले- अकेले मज़ा लोगे?...ज़रा हमें भी तो देखने दो, किस बात पर सब इतना हँस रहे हैं? वाह-वाह, बड़ा खूबसूरत पोस्टकार्ड है रे...किस खड़ूस के लिए है...हे हे...''

और भीड़ में जगह बनाते हुए ज्यों ही उन्होंने उस टेक्नीकलर पोस्ट कार्ड पर रंग-बिरंगे अक्षरों में चमचमाता अपना नाम देखा तो चौंक पड़े-''ऐं!...मुझे खत! और वह भी इतने रंग-बिरंगे अक्षरों में? लिखने वाला कौन खड़ूस हो सकता है...'' और जब रंग-रँगीले अक्षरों में लिखी 'तगादे की इबारत'...''हड़काए कुत्ते का फोटो'' देखा तो क्रोध व अपमान से वे खुद भी टेक्नीकलर-ईस्टमन कलर हो गए-''इस बाँगड़ू की यह हिमाकत?...समझता क्या है अपने आप को? खड़ूस! अभी चेहरे की सारी रंगत नहीं उतार दी तो मेरा भी नाम लतखोरीलाल नहीं।''

तुरंत लाल-पीले हो दफ्तर के बाहर निकल गए।

उधर उनसे चिढ़ने वाले तो मौका ही ताड़ रहे थे। उनमें से एक फौरन, कवि सुरेंद्र शर्मा की तरह निहायत 'मासूम' एवं 'संजीदा' चेहरा बना बड़े साहब के केबिन में घुस गया, ''सर! हेड आफिस को यह 'अर्जेंट रिपोर्ट' भिजवानी थी, लेकिन लतखोरीलालजी ने 'बार-बार' निवेदन करने के बाद भी अभी तक स्टेटमेंट बनाकर नहीं दी...''

''करता क्या है वह? बुलाओ उसे?'' साहब ने गुस्से से घंटी बजाई। चपरासी बुलावे का इंतज़ार ही कर रहा था। धड़ से घुस धाड़ से सेल्युट मारा, ''हुकुम, सर?''

''लतखोरीलाल को भेजो।''

चपरासी भी पूरा घाघ था! मासूम बन आग में और घी झौंक दिया, ''सर! वो तो हाजिरी रजिस्टर पर दस्तखत करके कहीं चले गए हैं।''

''कहाँ गए हैं?''

''क्या पता जी?. बोल के थोड़े जाते हैं!''

साहब का पारा साँतवें आसमान तक चढ़ गया। 'बोल के थोड़े जाते हैं'...मतलब? लतखोरी अक्सर चला जाता है? फौरन हाजिरी रजिस्टर मँगवाया और उस पर लाल गोला लगा दिया।

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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