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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

यह सलीम चाचा भी खूब हैं। लोगों के हावभाव देखकर मजेदार कटाक्ष करते हैं। मैं कल्पना में वर्माजी समेत अन्यों की गर्दनें मरोड़ रहा था, चेहरे पर उभर आए क्रूरता के भावों को देख गब्बरसिंह बोल दिया। और शरीर!

आगे चौराहा आ गया। मैं सिर खुजाने लगा। किधर जाऊँ?

यह ज़िंदगी भी वास्तव में इसी तरह एक चौराहे पर...ऊँ हुँ...सच पूछो तो एक घने जंगल में भटक गई है। सभी चारों ओर से पुकार-पुकारकर सलाह-दान कर रहे हैं, 'रास्ता खोजो, रास्ता ढूँढ़ो।' लेकिन मज़े की बात यह कि मार्ग सुझाता कोई नहीं। कोई आगे सहायता करने नहीं आता। बस चीखे जा रहे हैं, 'रास्ता खोजो, रास्ता ढूँढ़ो!'

''अरे रणजीत? किधर जा रहा है?'' चमन ने साइकिल रोकते हुए पूछा, ''सुन, उधर मिल। चौराहे पर खड़े होने पर अभी पुलिस वाला...अरे जा रहा हूँ मुंशीजी, फोकट सीटी मार रहे हो...'' और चौराहा पारकर थोड़ी दूर पर रुक गया।

मेरी इच्छा उससे बात करने की बिल्कुल नहीं हो रही थी। उसी से क्या, मेरी इच्छा हर उस दोस्त से मिलने की नहीं होती, जिसकी नौकरी लग चुकी हो! इसी चमन को लो। कल तक मेरे साथ बेरोजगार घूमता था। दो माह पहले नौकरी पर लग गया। तब से नवाब साहब के नखरे ही कुछ और हैं। नौकरी कुछ खास नहीं, सिर्फ सात सौ रुपल्ली की है। मगर शान इतनी...! सभी दोस्तों को आजमा लिया है भैया अपन ने। नौकरी क्या लगती है अपने आपको तीसमार खाँ समझने लगते हैं। जब भी मिलेंगे, बस ले-देकर अपने सड़ियल दफ्तर की चर्चा। ऐसा जतलाएँगे जैसे उनके पूरे दफ्तर में ये ही अकेले काम करने वाले हैं, दफ्तर इन्हीं के दम पर है। जिन-जिन दोस्तों की नौकरियाँ लगीं, कुछ दिनों तक हमारे (बेरोजगार मित्रों के) बीच मिलते रहे। फिर मानो हमें कोई छूत की बीमारी हो। हफ्तों नहीं मिलते। दूर से नज़रें बचाकर निकल जाते। कभी मौके-ब-मौके पकड़ लो तो, '...अरे यार क्या बताऊँ। ऑडिट पीरियड चल रहा है। सुबह 8 से रात 8 बजे तक। दम मारने की फुर्सत नहीं। और तू बतला, क्या कर रहा है आजकल?...अरे अभी तक फालतू है?'

ऐसा गुस्सा आता न उस वक्त। कल तक जब बेरोजगार थे, अपने आपको भी हमारे संग बेरोजगार गिनते थे, और आज हम फालतू हो गए?

सच! सारे दोस्तों से विश्वास उठ गया।

''ओफ़ो...लड़की के समान क्या नजाकत से चल रहा है, धीरे-धीरे। जल्दी आ ना...' चमन ने बेसब्री से हाँक लगाई।

मुझे गुस्सा आ गया। सब मालूम है बेटा। अभी किसी होटल या पान की दुकान पर ले जाएगा और शान से पूछेगा, 'बोल, क्या खाना?'

इन नई-नई नौकरी लग जाने वाले दोस्तों की यही आदत खराब लगती है मुझे। दो रुपल्ली कमाने क्या लगेंगे, अपने आपको दुनिया-भर का शहंशाह समझेंगे और हम जैसे एकदम कंगाल हों! हम पैसे निकालना भी चाहेंगे तो शान से मुँह में पान 'आऊ आऊ' कर हाथ पकड़ लेगे, 'अरे रहने दे यार,

जब कमाए तब देना।'

सच! तनबदन में ऐसी आग लग जाती कि अभी जो पान मेरे मुँह में है, पिच्च से साले के मुँह पर दे मारूँ?

(...ऐसे ईमान की बात कहूँ मेरा हाथ है न...जेब में रूमाल निकालने जाता है। वरना पैसे कहाँ हैं जेब में? मगर ये जो पग-पग पर अपने ही दोस्तों से मिलने वाला अपमान...? )

''क्या है, बोल?'' पास आ मैंने उखड़ी आवाज़ में चमन से पूछा। स्पष्ट था मैं उससे ज्यादा बात करने के मूड में नहीं था।

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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