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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

वह धम्म से खिड़की के पास रखी कुरसी पर निढाल हो गई। घंटी लग गई थी। किसी तरह उठी। प्रार्थना के बाद बड़ी मुश्किल से कक्षा में गई। स्नेहिल पिछले आधे घंटे से भरपूर तरंग में था। आज वह हर बच्चे से बतिया रहा था। शिशु वर्ग की कक्षा में यूँ भी पढ़ाई नहीं होती थी। 'एजुकेशनल' खिलौने देकर उन्हें व्यस्त रखा जाता था। खेलते भी रहें, खेल-खेल में सीखते भी रहें। स्नेहिल आज पूर्ण तन्मयता से खिलौनों से खेलने में मग्न था। हर बच्चे से वह बतिया रहा था। आज उसके मन-आकाश पर चिंता की छोटी-सी भी बदली नहीं थी। वह उन्मुक्त पंछी-सा अन्य बच्चों के साथ चहक रहा था। कुरसी पर मौन गुमसुम बैठी मालती यह सब निहारे जा रही थी। स्नेहिल से उसकी नजरें मिलतीं, स्नेहिल तो कृतज्ञता से दिल खोल मुस्कराता, मालती को जबरन मुस्कुराने में जान पर बन आती।

पूरा दिन एक पहाड़ की मानिंद बीता। छुट्टी होने पर मामा के संग लौटते हुए स्नेहिल की अदा निराली थी। आज वह अन्य बच्चों को अपने-अपने पिताओं के संग जाते देख तृषित नजरों से देख नहीं रहा था वरन उन्हें दिखा-दिखाकर ठुमकते हुए जा रहा था-'मेरे भी पापा आएँगे मुझे लेने, देख लेना, हाँ!'

मालती का हृदय बैठने लगा। स्नेहिल ने यद्यपि वैसा कुछ बोला नहीं था मगर उसकी हरकतें देख क्या मालती इतना भी नहीं समझ सकती थी?

हृदय थामे वह मरी चाल से घर रवाना हुई।

घर आकर भी उसे चैन नहीं था। रह-रहकर बस वही एक चिंता खाए जा रही थी-क्या जवाब देगी स्नेहिल को यदि उसने पूछ लिया...!

...और वही हुआ! अगला दिन रविवार था। ऊहापोह, छटपटाहट में बीत गया। सोमवार को आते ही स्नेहिल ने बालसुलभ चित्ताकर्षक उत्सुकता से उसकी ओर निहारा, ''दीदी।. मेरी चिट्ठी भेज दी?''

''अँ..'' मालती का कलेजा मुँह को आ गया, ''ह...हाँ।''

''...मेरे पापा को मिल गई होगी ना?''

''...ह-हाँ बेटे।''

कहने को मालती ने नैन झुकाकर जवाब दे दिया, मगर वह जिस तरह 'कतराकर' निकल जाने की छटपटाहट में जवाब दे रही थी, वह नन्हा-सा शिशु...पाँच वर्ष का अबोध निष्कपट मासूम बालक...राम जाने कैसे सब ताड़ गया। उसने पहले तो हैरत से और फिर अविश्वास से मालती की ओर देखा। उसकी नन्ही मासूम आंखों ने मुख से कुछ न कहते हुए भी अपने दिल के भाव कह दिए थे।...अपनी आशाओं के टूटने के, अपने सपनों के टूटने के और सबसे बढ़कर अपने उस विश्वास के टूटने के जो उसने मालती पर किया था।

स्नेहिल का यह भाव ही मालती को गहरे तक बींध रहा था। उसका दिल पछतावे के दलदल में धँसने लगा। यदि स्नेहिल ने गुस्से से, क्रोध से बिफरकर उसका अपमान कर दिया होता-'दीदी, आपने झूठ बोला'...तब भी मालती को इतना धक्का नहीं लगता, जितना स्नेहिल के मात्र इस मौन संप्रेषण से। जुबां से कुछ न कहते हुए भी स्नेहिल की मासूम आंखों ने उसके दिल को नश्तर-सा बेध दिया था, ''छिः दीदी, आप कितनी झूठी हो।''

मालती गूंगी-सी जड़वत खड़ी रह गई। स्नेहिल हताश, टूटे कदमों से शिक्षक कक्ष से बाहर निकल गया। उसका उल्लसित चेहरा बुरी तरह मुरझा गया। परसों दिन-भर उल्लास से उछल रहे स्नेहिल में आज पूर्ववत उदासी भर गई थी। और सच पूछो तो पहले से भी अधिक हताशमयी उदासी। उसके क्लांत, मुरझाए चेहरे को देखकर लगता था, वह उस पुष्प की मानिंद है जिसकी उम्र तो बरसों होती है, मगर बहार उस पर मात्र एक क्षण के लिए आती है। सिर्फ एक क्षण के लिए। उसके बाद वह फिर मुरझा जाता है। स्नेहिल के जीवन में भी वह बहार मरीचिका की नाई परसों आ गई थी, आज वह फिर पहले की तरह मुरझा गया था।

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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