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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

सुबोध ने भी हाथ के इशारे से जवाब दिया-''खेल खत्म!''

''ओह!''

दोनों साढुओं के मुँह हताशा से खुले के खुले रह गए।

अपने आपको सँभालते हुए मनोज ने तेजी से अंदर कदम बढ़ाए, ''..किधर हैं?''

''उधर...ऊपर...'' सुबोध आगे-आगे लपका। मनोज व जीजाजी भी लंबे-लंबे डग भरते हुए उसके पीछे-पीछे चले।

सविता-मेरघा ने लाचारगी से अस्पताल के अंदर प्रवेश किया। उन्हें अपनी 'प्लेजर ट्रिप' करने के बाद लंबा गलियारा था। गलियारे के दूसरे छोर पर सविता की सास तीन-चार महिलाओं से घिरी खड़ी थी। सास का चेहरा विषाद से लटका हुआ था।

''सविता?'' मेघा ने फुसफुसाकर सविता को कोहनी मारी, ''...तेरी सास तो बस..., खाली मुँह लटकाए खड़ी है?...पति मर गया...और आँखों में आँसू तक नहीं?''

''क्या पता?'' सविता को भी सास का यह व्यवहार बेहद खला, ''...शायद अभी तक उन्हें बतलाया न गया हो?''

तभी सास की नजर मेघा-सविता पर पड़ी। इन दोनों को देखते ही उनकी वृद्ध आँखें छलछला आईं। वे तेजी से दोनों की ओर बढ़ी।

सविता ने फुसफुसाकर मेघा से पूछा, ''दीदी! मुझे तो कुछ समझ नहीं पड़ रही। 'ऐसे वक्त' सास को किस तरह ढाढस बँधाऊँ? क्या बोलना चाहिए मुझे?''

''कुछ बोलने की जरूरत नहीं...'' मेघा ने फुसफुसाकर जवाब दिया,

''...बस, ससुर को याद करते हुए रोने का अभिनय करती रहना। मुझसे तो मरा रोया भी नहीं जाता ऐसे वक्त...''

वे लगभग दौड़ती हुई सास की ओर लपकीं। और तभी गलियारे के दूसरे छोर पर...उधर मोड़ से सविता के ससुर प्रकट हुए...स्वस्थ...तंदरुस्त...सधे कदमों से नौजवानों की तरह चलते हुए!

मानो सविता-मेघा ने भूत देखा लिया हो। सकपकाकर दोनों एक-दूजे का चेहरा देखने लगीं। अरे।...ये तो जिंदा हैं? शत-प्रतिशत सही-सलामत?...फिर एक्सीडेंट किसका हुआ? कौन मरा?

मेघा ने हड़बड़ाकर चाल धीमी कर दो, ''...क्यों री? तेरी ससुराल में और कौन है बुड्ढा आदमी? मरने लायक?''

''क्या पता?'' सविता बेहद असमंजस में थी, ''...मेरी तो कुछ समझ में नहीं पड़ रहा?''

तब तक सास निकट आ गई थीं। सविता-मेघा को उन्होंने भींचकर कलेजे से चिपटा लिया। दोनों बहनों को अपने बाएँ-दाएँ थाम वे गलियारे के छोर की तरफ बढ़ीं। सविता अभी भी अनुमान नहीं लगा पा रही थी- आखिर मरा कौन है? उसकी ससुराल वाले किसके वास्ते इतने बेहाल हैं?

और तभी...गलियोर के छोर पर मुड़ते ही उन दोनों बहनों की दबी-घुटी चीख निकल गई। वहाँ उस ऊपरी मंजिल के प्रतीक्षा कक्ष में...उनके नैहर के अनेक रिश्तेदार जमा थे...उन रिश्तेदारों के बीच फूट-फूटकर रो रहे थे उनके तीनों सगे भाई!...सामने ही 'गहन चिकित्सा कक्ष' था...कक्ष का द्वार के चूँऽऽ कर खुला...द्वार में से एक ट्राली निकली, ट्राली पर स्ट्रेचर था...स्ट्रेचर पर किसी का शव सफेद चादर में लिपटा था...निकट आने पर दोनों बहनों ने ज्यों ही उस शव का चेहरा देखा...उन पर सैकड़ों-हजारों बिजलियाँ टूट-टूट कर गिरने लगीं...वह शव...वह निर्जीव शरीर...उनके पिता का था।...उनके प्राणों से प्रिय...परम श्रद्धेय पिताश्री का!

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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