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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

''अँ हँ...''नआगे बढ़ उसने चोगा उठाया और किसी 'रिसेपानिस्ट' के अंदाज में अत्यंत मधुर स्वर में कहा, ''हलो, इट्स नवनीत एंड कंपनी...किनसे बात करनी है?...कौन-सा नंबर लगाया आपने?...सॉरी सर, रांग नंबर...'' और फ़ोन रख दिया।

इस अनोखी युक्ति पर दोनों बहनें खिलखिलाकर हँस पड़ी। मेघा की आवाज़ सुबोध द्वारा पहचाने जाने का प्रश्न ही नहीं था। दोनों की आज तक मुलाकात नहीं हुई थी।

तब तक रिक्शे आ गए थे। मनोज रिक्शों से उतरता...उसके पेश्तर सविता ने बच्चों के द्वारा सामान रिक्शों में लदवाना आरंभ कर दिया। उसका भरसक यत्न यही था कि मनोज रिक्शों से उतर न पाए। मेघा तब तक ताले लगाकर आ गई थी। दोनों बहनें अब अंतिम रिक्शों में बैठने वाली थीं...तभी घंटी पुनः बजने लगी। सविता ने मन-ही-मन सुबोध को कोसा। उसकी मंशा फ़ोन की उपेक्षा कर रवाना हो जाने की थी, मनोज ने रिक्शों में बैठे-बैठे हाँक लगाई, ''...देखना किसका फ़ोन है? शेअर ब्रोकर का न हो?''

सविता-मेघा ने दाँत पीस लिए। फ़ोन सुनने वास्ते मनोज स्वयं न चले जाएँ मेघा-सविता फौरन पलटीं और सुबोध को कोसते हुए ताला खोलने लगी। दोनों बुरी तरह चिढ़ी हुई थीं। मेघा ने तै कर लिया था, अब सुबोध को बुरी तरह डाँट देगी। ताला खोल वह पैर पटकती हुई फ़ोन की तरफ लपकी। फ़ोन उठा वह अपना गुस्सा उतारती, उसके पेश्तर उधर से किसी युवती की मधुर आवाज़ आई, ''...हलो, मिस्टर मनोज हैं?''

''आप कौन?''

''मैं मिसेज शीला चौधरी। यही लोकल से।''

''मिसेस शीला चौधरी?'' बुदबुदाकर मेघा ने प्रश्नात्मक निगाहों से सविता को पूरा। सविता ने मुँह बिचका कर अनभिज्ञता से कंधे उचका दिए।

उधर वह युवती हौले से हँसी, ''...निश्चित रूप से आप मुझे नहीं जानतीं, मिसेज मनोज। मैं भी आपको नहीं जानती। हम आपस में नितांत अजनबी हैं।''

''फिर आपने फ़ोन किया क्यों?''

''दरअसल टकलपुर से आपके देवर का फ़ोन था, उन्हीं ने फ़ोन करने को कहा है। उनके पिताजी का एक्सीडेंट हो गया है, आपको अपने हस्बैंड के संग शीघ्र बुलाया है...''

मेघा की कनपटी की नसें चिटचिटाने लगीं। यह सुबोध भी...? पैंतरा बदलते हुए उसने तत्क्षण बात सँभाली, ''...मगर मैडम, मैं कुछ समझी नहीं।

कौन-सा नंबर लगाया आपने?...सॉरी...रहा नंबर,'' और धाड़ से फ़ोन रख दिया।

पास खड़ी सविता बुरी तरह कुलबुलाने लगी। सुबोध भी पता नहीं किस-किससे फ़ोन करवा रहा है? कहीं पोल-पट्टी खुल न जाए? कौन होगी यह शीला चौधरी? यहाँ इस शहर में?

''पूछना तो था?'' उसने आशंकित उत्सुकतावश मेघा को कहा।

''हाँ पूछना था।'' मेघा ने मुँह टेढ़ा कर हाथ नचाया, ''...फिर 'रांग नंबर' कैसे कहती?...चल, देर हो रही है...''

उसने सविता का हाथ पकड़ बाहर खींचा। अचानक सविता को कुछ याद आया।

''आइडिया!'' चुटकी बजा वह फ़ोन की तरफ लपकी। उसके फ़ोन-उपकरण में 'नंबर ट्रांसफर' करने का सिस्टम था। 'कोड नंबर' दबाकर उसने एक बैंक का टेलीफ़ोन नंबर फीड कर दिया। अब जब तक 'डिकोड' नहीं करेंगे, उसका फ़ोन मिलाए जाने पर घंटी हर बार बैंक में बजती रहेगी।

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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