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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

फ़ोन कर पिताजी घर लौटे। सूना घर उन्हें काटने को दौड़ रहा था। छोटी बुआ पास ही गाँव में रहती थीं। आधे घंटे में फूफाजी के साथ मोटर साइकिल से आ गईं। आते ही पिताजी के गले लग फूट-फूट कर रो पड़ीं। पिताजी के मन की पीड़ा रोके नहीं रुक रही थी। वे भी बच्चों के समान बिलखने लगे, ''...छुटकी! एकदम अकेला रह गया हूँ मैं!'' बुआ-फुफाजी उन्हें बाँहों में भींच ढाँढस बँधाते रहे। दो घंटे बाद बेला भी पति व बच्चों के संग आ गई। थोड़ी ही देर बाद बड़ी व मँझली बूआएँ फूफाजी व बच्चों के संग आ गईं। घर में कोहराम मच गया था। पिताजी को धीरज बँधाते हुए सबने समझना चाहा, ''...अच्छा लगेगा, दो-दो बेटों के रहते कोई अन्य चिताग्नि दे?''

''जीते जी इसे इतना जला चुके हैं वे...अब क्या फर्क पड़ता है मरने के बाद कौन फूँक रहा है?'' पिताजी ने दोटूक शब्दों में इंकार कर दिया।

उनकी जिद के आगे सबको झुकना पड़ा। प्रातः 10 बजे तक अधिकांश रिश्तेदार आ गए थे। 11 बजे माँ की महायात्रा आरंभ हुई। उन्हें चिताग्नि पिताजी ने स्वयं दी!

अनंत ने ठंडी साँस ली। शाम हो गई थी। 'गरुड़ पुराण' का पाठ करने के लिए पंडितजी पधार चुके थे। घर में जितने परिजन-रिश्तेदार थे, बैठक व अंदरूनी कक्ष में आकर बैठ गए। अनंत एक कोने में जाकर सिर झुकाकर बैठ गया। उसका चित्त बेहद अशांत था। मस्तिष्क में विचारों के अंधड़ चल रहे थे। पिताजी के मात्र एक निर्णय ने उसके व सुमंत के व्यक्तित्व का एक-एक तिनका उड़ा दिया था। दोनों को रिश्तेदारी में मुँह दिखाने के काबिल नहीं रखा! समस्त रिश्तेदारों को एक से दूजे मुँह मालूम होता गया-''पिताजी ने स्वयं दोनों बेटों व उनकी ससुराल वालों को समाचार देने से मना कर दिया था।'' न कहते हुए भी सब समझ गए एक अशक्त असहाय वृद्ध पिता ने ऐसा अभूतपूर्व निर्णय क्यों लिया होगा?

पिताजी यहीं नहीं रुके। उन्होंने रिश्तेदारों को भेजे जाने वाले 'शोक-पत्र' पर नाम भी सिर्फ अपना दिया, बेटों का नहीं। ये पत्र रिश्तेदारों में हरेक के यहाँ पोस्ट हुए दूर-दूर के रिश्तेदारों को भी, बस नहीं हुए तो अनंत, सुमंत व उनकी ससुराल!

ग्लानि से अनंत की गर्दन झुक गई। उसके सम्मुख अभी एक भारी समस्या और थी। माँ का बारहवाँ! तीन दिन बाद बारहवें पर पुनः समस्त रिश्तेदारों का जमघट होने वाला था। कैसे करेगा सबका सामना? रिवाज के मुताबिक उस दिन मृतक के बेटों को पगड़ी बँधती है। पिताजी ने इस रस्म का स्पष्ट इंकार कर दिया था। इसके बदले उन्होंने 'सत्यनारायण भगवान की कथा' रखी थी। क्या जवाब देगा अनंत रिश्तेदारों को? 'पगड़ी' नहीं होने का कारण तो सब उपतकर...खोद-खोदकर पूछेंगे?

घबराए अनंत-सुमंत ने अभी कुछ समय पूर्व पिताजी से लगभग घिघियाते हुए इस रस्म के लिए याचना की थी, पिताजी ने शुष्क-सपाट स्वरों में लताड़ दिया था, ''...मतलब क्या है पगड़ी-पगड़ी रट लगाने से?...पगड़ी उसे बँधती है जिसने जीते-जी सेवा की हो, जब सेवा ही नहीं की, उल्टे जी चुराया हो, क्या मतलब बेफिजूल ढोंग-धतूरे करने से?''

इस साफगोई पर अनंत-सुमंत कट कर रह गए।

'गरुड पुराण' के बाद अनंत धीरे से उठा और किसी काम का बहाना बनाकर घर से निकला। एक दूरस्थ कालोनी में जा वहाँ के एस.टी.डी...बूथ से अपनी व सुमंत की ससुराल फ़ोन लगाया। संक्षिप्त में पिता की नाराजगी भी बतला दी। रिरियाते हुए गुहार की कि किसी तरह 'पगड़ी' के लिए राजी करवा लें।

अगली ही सुबह मेघा-श्लेषा के माता-पिता व अन्य परिजन टैक्सियों में भरकर बदहवास आए। हाथ जोड़ माफ़ी माँगी, अनुनय-विनय की।

पिताजी के मुख पर अकड़ के कोई चिह्न नहीं थे। वे आत्मीयतापूर्वक उन्हें आश्वस्त करने लगे, ''आप व्यर्थ सोच-विचार कर रहे हैं, साहब। मेरे मन में किसी के प्रति कोई शिकायत नहीं है।''

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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