कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँप्रकाश माहेश्वरी
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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।
''तेरा दिमाग ठीक है?'' लतखोरी घबराया, ''पिताजी पहले ही मुझे हाफ माइंड बोलते हैं और साथ में (तुझे भी)...''
''अच्छा-अच्छा, ''टिल्लू ने उसकी बात पूरी नहीं होने दी, ''ऐसा करते हैं-बारी-बारी तीनों के घर चलते हैं। वो लाला जिंदा दिख गया तो अगले के घर चले जाएँगे। सबसे पास चक्कीवाले लाला का घर है...''
''टिल्लू!'' लतखोरी खुशी से उछल पड़ा, ''वो मारा पापड़ वाले को। याद आ गया। चक्कीवाले लाला मरे हैं।''
''कॉन्फीडेंट?''
''हंडरेड परसेंट।''
''कोई लाइफ लाइन इस्तेमाल? तीनों बाकी हैं।''
''कोई ज़रूरत नहीं। चक्कीवाले लाला को दो बार दिल का दौरा पड़ चुका है। तीसरा पड़ा होगा और लालाजी ऊपर!''
''फिर लगा दें ताला?''
''लगा दो।''
''कंप्यूटरजी, प्लीज लॉक...''उसने अमिताभ बच्चन की नकल की और दोनों 'चल चल रे नौजवान 'गाते हुए चौराहे पर मुड़ गए। तभी टिल्लू को ध्यान आया वे 'बारात' में नहीं, 'शवयात्रा में जा रहे हैं। दोनों तत्क्षण गंभीर हो गए। दोनों ने चेहरों पर मुर्दनी ओढ़ ली। लतखोरी ने ठंडी आह भरते हुए 'स्वर्गीय' चक्कीवाले लालाजी को याद किया, ''बेचारे चक्कीवाले लाला! वे देशी इलाज के बहुत बड़े जानकार थे।''
''अच्छा!''
''हां, मेरे पिताजी अक्सर उनसे दवाएँ लिया करते थे।''
''ओहो!'' टिल्लू रंगमंचीय शैली में गमजदा हो गया, ''यदि आज चक्की वाले ज़िंदा होते तो हम उनकी अर्थी को कंधा देने नहीं, उनसे दवाई लेने जाते?''
''हां, टिल्लू!'' लतखोरी ने भी मातमी अभिनय किया, ''लेकिन क्या किया जा सकता है? होनी को कोई नहीं टाल सकता। चक्कीवाले की ज़िंदगी का आटा पूरा पिसा गया था...''
''उनकी ज़िंदगी का एक दाना भी बाकी नहीं बचा था...''
चक्कीवाले लाला का घर निकट आ गया था। इत्तफ़ाक से जिस वक्त ये दोनों नमूने पहुँचे, लालाजी हाथ-मुँह धोने ऊपर गए हुए थे। पॉवरकट के कारण चक्की बंद थी, और इसी वजह से ललाइन सिर पर हाथ धरे उदास बैठी थी। इन दोनों को समझते देर नहीं लगी, 'पति की मौत 'के कारण बेचारी उदास बैठी है!
दोनों ने मातमी सूरत बनाई और कंधे झुका, मरे कदमों से घर में प्रवेश किया। ललाइन को मोतियाबिंद था। वे आंखें मिचमिचाकर दोनों को पहचानने का प्रयत्न करने लगीं। लतखोरीलाल दर्द भरे स्वर में प्रणाम कर उनके सामने रखी गेहूँ की बोरी पर बैठ गया, ''राम-राम, अम्माँजी।''
''राम-राम! कौन लतखोरी?'' ललाइन आवाज़ से पहचान गईं, ''और ये कौन है?''
''मेरा दोस्त, टिल्लू।''
''उल्लू?'' बुढ़ापे में ललाइन गलत सुन गईं।
प्रणाम करने को उत्सुक हो रहा टिल्लू यह सुनते ही दाँत पीसने लगा। यदि बुढ़िया के पति के मरने का लिहाज न होता तो वह यहीं उसकी गर्दन मरोड़ देता।
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- पापा, आओ !
- आव नहीं? आदर नहीं...
- गुरु-दक्षिणा
- लतखोरीलाल की गफलत
- कर्मयोगी
- कालिख
- मैं पात-पात...
- मेरी परमानेंट नायिका
- प्रतिहिंसा
- अनोखा अंदाज़
- अंत का आरंभ
- लतखोरीलाल की उधारी