नेहरू बाल पुस्तकालय >> बच्चों की सुभद्रा बच्चों की सुभद्राचन्द्रा सदायत
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बच्चों की सुभद्रा में गीत के माध्यम से बच्चों को जानकारी देने का प्रयत्न किया गया है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
आजादी का अलख जगाने वाली स्वतंत्रता सेनानी और हिन्दी की अत्यंत लोकप्रिय
कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म 16 अगस्त 1904 को इलाहाबाद के
निहालपुर मुहल्ले में हुआ। उनकी शिक्षा इलाहाबाद के क्रास्टवेट स्कूल में
हुई, जहाँ उन्हें महादेवी वर्मा जैसी दोस्त मिलीं। महादेवी जी उस समय
पाँचवीं कक्षा की छात्रा थीं और सुभद्रा जी सातवीं कक्षा की। दोनों की
दोस्ती आजीवन कायम रही। आठवीं कक्षा में ही सुभद्रा जी का विवाह खंडवा
निवासी ठाकुर लक्ष्मण सिंह से हुआ और ससुराल चले जाने की वजह से पढ़ाई बीच
में ही छूट गई, वे उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकीं।
सन् 1920 में गाँधी जी के आह्वान पर वे पति के साथ आजादी के आंदोलन में कूद पड़ीं। आजादी के लिए लड़ने के कारण उन्हें कई बार घर–परिवार और बाल-बच्चों को छोड़कर जेल जाना पड़ा। उन्होंने संघर्ष का यह रास्ता तब चुना था जब देश की अधिकांश स्त्रियाँ पर्दा प्रथा और अन्य सामाजिक रूढ़ियों की जंजीरों में जकड़ी हुई थीं।
सुभद्रा जी बचपन में ही तुकबंदियां करने लगी थीं। उनकी पहली कविता ‘नीम’ नाम से सन् 1913 में हिन्दी की प्रतिष्ठित प्रत्रिका ‘मर्यादा’ में छपी, उस समय वे मात्र नौ वर्ष की थीं। धीरे-धारे उनकी राजनीतिक और सामाजिक सक्रियता, उनकी लेखनी द्वारा रचनात्मक अभिव्यक्ति पाने लगी। राजनीतिक पराधीनता ही नहीं, सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ भी वे आजीवन लड़ती रहीं। चवालिस वर्ष की उम्र में 15 फरवरी 1948 को कार दुर्घटना में उनका निधन हो गया।
सुभद्रा जी ने अपने जीवन में जो कुछ किया या कहा, उसे पहले अपने आचरण में उतारा। उनकी कथनी और करनी में भेद न था। जाति बंधन की सारी सीमाओं को तोड़ते हुए उन्होंने अपनी बड़ी बेटी सुधा का विवाह बिना दान-दहेज के प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय से किया। विवाह के समय़ उन्होंने कन्यादान करने से इनकार कर दिया। कहा कि मनुष्य, मनुष्य का दान नहीं कर सकता। विवाह के बाद भी वह बेटी मेरी ही रहेगी।
उन्हें जो न्यायोचित लगता था, उसे पाने के लिए वे जी जान से भिड़ जाती थीं, और पाकर ही रहती थीं। स्वभाव से वे सरल, मिलनसार और धुन की पक्की थीं।
उनकी लोकप्रियता का कारण उनकी सहज आत्मीयता और लोक भावनाओं से गहरा जुड़ाव था।
सन् 1920 में गाँधी जी के आह्वान पर वे पति के साथ आजादी के आंदोलन में कूद पड़ीं। आजादी के लिए लड़ने के कारण उन्हें कई बार घर–परिवार और बाल-बच्चों को छोड़कर जेल जाना पड़ा। उन्होंने संघर्ष का यह रास्ता तब चुना था जब देश की अधिकांश स्त्रियाँ पर्दा प्रथा और अन्य सामाजिक रूढ़ियों की जंजीरों में जकड़ी हुई थीं।
सुभद्रा जी बचपन में ही तुकबंदियां करने लगी थीं। उनकी पहली कविता ‘नीम’ नाम से सन् 1913 में हिन्दी की प्रतिष्ठित प्रत्रिका ‘मर्यादा’ में छपी, उस समय वे मात्र नौ वर्ष की थीं। धीरे-धारे उनकी राजनीतिक और सामाजिक सक्रियता, उनकी लेखनी द्वारा रचनात्मक अभिव्यक्ति पाने लगी। राजनीतिक पराधीनता ही नहीं, सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ भी वे आजीवन लड़ती रहीं। चवालिस वर्ष की उम्र में 15 फरवरी 1948 को कार दुर्घटना में उनका निधन हो गया।
सुभद्रा जी ने अपने जीवन में जो कुछ किया या कहा, उसे पहले अपने आचरण में उतारा। उनकी कथनी और करनी में भेद न था। जाति बंधन की सारी सीमाओं को तोड़ते हुए उन्होंने अपनी बड़ी बेटी सुधा का विवाह बिना दान-दहेज के प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय से किया। विवाह के समय़ उन्होंने कन्यादान करने से इनकार कर दिया। कहा कि मनुष्य, मनुष्य का दान नहीं कर सकता। विवाह के बाद भी वह बेटी मेरी ही रहेगी।
उन्हें जो न्यायोचित लगता था, उसे पाने के लिए वे जी जान से भिड़ जाती थीं, और पाकर ही रहती थीं। स्वभाव से वे सरल, मिलनसार और धुन की पक्की थीं।
उनकी लोकप्रियता का कारण उनकी सहज आत्मीयता और लोक भावनाओं से गहरा जुड़ाव था।
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