ऐतिहासिक >> सोमनाथ सोमनाथआचार्य चतुरसेन
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सोमनाथ की ऐतिहासिक लूट और पुनर्निर्माण की कहानी...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सोमनाथ की ऐतिहासिक लूट और पुनर्निर्माण की कहानी को आचार्य चतुरसेन ने इस
उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। सोमनाथ का मंदिर
सैकड़ों देवदासियों के नृत्यों से, उनके घुँघरूओं की ध्वनि से सदा गुंजित
रहता था। देश-देशान्तर के राजा और रंग इसके वैभव के समक्ष नतमस्तक होते
थे। फिर भी एक विदेशी द्वारा इसे ध्वस्त करने का दुस्साहस किया गया।
इतिहास की इस विडंबना को आचार्य चतुरसेन ने औपन्यासिक शैली में बाँधा है।
प्रभासपट्टन स्थित सोमनाथ मंदिर भारतीयों की धर्म-परायणता का जीवंत प्रमाण
है। विदेशी आक्रमण कारियों ने इसके वैभव से प्रभावित होकर अनेक बार इस
मंदिर को लूटा और ध्वस्त किया। महमूद गजनबी सोलह बार यहाँ की धन-सम्पत्ति
को ऊंटों में लादकर ले गया, परन्तु फिर भी इसका अस्तित्व समाप्त नहीं हुआ।
गहन अध्ययन और उस क्षेत्र के विस्तृत सर्वेक्षण के आधार पर लिखा गया यह
उपन्यास, इतिहास का जीवंत दस्तावेज है।
सोमनाथ
सौराष्ट्र के नैऋत्य कोण में समुद्र के तट पर वेरावल नाम का एक छोटा-सा
बन्दरगाह और आखात है। वहां की भूमि अत्यन्त उपजाऊ और गुंजान है। वहां का
प्राकृतिक सौन्दर्य भी अपूर्व है। मीलों तक विस्तीर्ण सुनहरी रेत पर
क्रीड़ा करती रत्नाकर की उज्ज्वल फेनराशि हर पूर्णिमा को ज्वार पर अकथ
शोभा-विस्तार करती है। आखात के दक्षिणी भाग की भूमि कुछ दूर तक समुद्र में
धँस गई है, उसी पर प्रभास पट्टन की अति प्राचीन नगरी बसी है। यहां एक
विशाल दुर्ग है, जिसके भीतर लगभग दो मील विस्तार का मैदान है। दुर्ग का
निर्माण सन्धि-रहित भीमकाय शिलाखण्डों से हुआ है। दुर्ग के चारों ओर लगभग
25 फुट चौड़ी और इतनी ही गहरी खाई है, जिसे चाहे जब समुद्र के जल से लबालब
भरा जा सकता है। दुर्ग में बड़े-बड़े विशाल फाटक और अनगिनत बुर्ज हैं।
दुर्ग के बाहर मीलों तक प्राचीन नगर के ध्वंसावशेष बिखरे पड़े हैं।
टूटे-फूटे प्राचीन प्रासादों के खंडहर, अनगिनत टूटी-फूटी मूर्तियां, उस
भूमि पर किसी असह्य अघट घटना के घटने की मौन सूचना-सी दे रही
हैं। दुर्ग का जो परकोटा समुद्र की ओर पड़ता है, उससे छूता हुआ और नगर के
नैऋत्य कोण के समुद्र में घुसे हुए ऊंचे श्रृंग पर महाकालेश्वर के विद्युत
मन्दिर के ध्वंस दीख पड़ते हैं। मन्दिर के ध्वंसावशेष और दूर तक खड़े हुए
टूटे-फूटे स्तम्भ, मन्दिर की अप्रतिम स्थापत्य कला और महानता की ओर संकेत
करते हैं।
अब से लगभग हजार वर्ष पहले इसी स्थान पर सोमनाथ का कीर्तिवान महालय था, जिसका अलौकिक वैभव बदरिकाश्रम से सेतुबन्ध रामेश्वर तक, और कुमारी कन्या से बंगाल के छोर तक, विख्यात था। भारत के कोने-कोने से श्रद्धालु यात्री ठठ-के-ठठ बारहों महीना इस महातीर्थ में आते और सोमनाथ के भव्य दर्शन करते थे। अनेक राजा-रानी, राजवंशी, धनी, कुबेर, श्रीमन्त, साहूकार, यहां महीनों पड़े रहते थे और अनगिनत धन, रत्न, गांव, धरती सोमनाथ के चरणों पर चढ़ा जाते थे। इससे सोमनाथ का वैभव अवर्णनीय एवं अतुलनीय हो गया था।
उन दिनों भारत में वैष्णव धर्म की अपेक्षा शैव धर्म का अधिक प्राबल्य था। सोमनाथ महालय-निर्माण में उत्तर और दक्षिण दोनों ही प्रकार की भरतखण्ड की स्थापत्य-कला की पराकाष्ठा कर दी गई थी। यह महालय, बहुत विस्तार में फैला था, दूर से उसकी धवल दृश्यावलि चांदी के चमचमाते पर्वत-श्रृंग के समान दीख पड़ती थी। सम्पूर्ण महालय उच्चकोटि के श्वेत मर्मर का बना था। महालय के मंडप के भारी-भारी खम्भों पर हीरा, मानिक, नीलम आदि रत्नों की ऐसी पच्चीकारी की गई थी कि उसकी शोभा देखने से नेत्र थकते नहीं थे। जग-जगह सोने-चांदी के पत्र, स्तम्भों पर चढ़े थे। ऐसे छह सौ खम्भों पर महालय का रंगमंडप खड़ा था। इस मण्डप में दस हज़ार से भी अधिक दर्शक एक साथ सोमनाथ के पुण्य दर्शन कर सकते थे। इस मंडप में द्विजमात्र ही जा सकते थे। मंडप के सामने गम्भीर गर्भगृह में सोमनाथ का आलौकिक ज्योतिर्लिंग था। गर्भगृह की छत और दीवार पर रत्ती-रत्ती रत्न और जवाहर जड़े थे। इस कारण साधारण घृत का दीया जलने पर भी वहां ऐसा झलमलाहट हो जाती थी कि आंखें चौंधिया जाती थीं। इस भूगर्भ में दिन में भी सूर्य की किरणें प्रविष्ट नहीं हो सकती थीं। वहां रात-दिन सोने के बड़े-बड़े दीपकों में घृत जलाया जाता था तथा चन्दन-केसर-कस्तूरी की धूप रात-दिन जलती रहती थी, जिसकी सुगन्ध से महालय के आस-पास दो-दो योजन तक पृथ्वी सुगन्धित रहती थी। रंग-मण्डप के चिकने स्वच्छ फर्श पर देश-देश की असूर्यपश्या महिलाएं रत्नाभूषणों से सुसज्जित, रूप-यौवन से परिपूर्ण, गुणगरिमा से लदी-फदी, जगह-जगह बैठी श्रद्धा और भक्ति से नतमस्तक कोमल स्वर से भगवान सोमनाथ का स्तवन घण्टों करती रहती थीं। नियमित पूजन और नित्यविधि के समय पांच सौ वेदपाठी ब्राह्मण सस्वर वेद-पाठ करते, और तीन सौ गुणी गायक देवता का विविध वाद्यों के साथ स्तवन करते, तथा इतनी ही किन्नरी और अप्सरा-सी देवदासी नर्तकियां नृत्य-कला से देवता और उनके भक्तों को रिझाती थीं। नित्य विशाल चांदी के सौ घड़े गंगाजल से ज्योतिर्लिंग का स्नान होता था, जो निरन्तर हरकारों की डाक लगाकर एक हज़ार मील से अधिक दूर हरद्वार से मंगवाया जाता था। स्नान के बाद बहुमूल्य इत्रों से तथा सुगन्धित जलों से लिंग का अभिषेक होता था, इसके बाद श्रृंगार होता था। सोमनाथ का यह ज्योतिर्लिंग आठ हाथ ऊंचा था, अतः इसका स्नान, अभिषेक-श्रृंगार आदि एक छोटी-सी सोने की सीढ़ी पर चढ़ कर किया जाता था। सब सम्पन्न हो जाने पर आरती होती थी, जिसमें शंखनाद, चौघड़ियाँ घण्टे आदि का महाघोष होता था। यह आरती चार योजन विस्तार में सुनी जाती थी। मंडप में दो सौ मन सोने की ठोस, श्रृंखला से लटका हुआ एक महाघंट था, जिसका वज्रगर्जना के समान घोर रव मीलों तक सुना जाता था। सोमनाथ महालय के चारों द्वारों पर एक-एक पहर के अन्तर से नौबत बजती थी। इस प्रकार ऐश्वर्य और वैभव से इस महातीर्थ की महिमा दिग्-दिगन्त तक फैल गई थी। इन सब कामों में अपरिमित द्रव्य खर्च होता था, किंतु उससे महालय के अक्षय कोष में कुछ भी कमी नहीं होती थी। दस हज़ार से ऊपर गांव महालय को राजा-महाराजाओं के द्वारा अर्पण किए हुए थे। महालय के गगनचुम्बी शिखर पर समुद्र की ओर जो भगवे रंग की ध्वजा फहराती थी, वह दूर देशों के यात्रियों का मन बराबर अपनी ओर खींच लेती थी। महालय के शिखर के स्वर्ण-कलश सूर्य की धूप में अनगिनत सूर्यों की भांति चमकते थे।
महालय के चारों ओर असंख्य छोटे-बड़े मन्दिर, घर, महल और सार्वजनिक स्थान थे जो मीलों तक फैले थे तथा जिनसे महालय की शोभा बहुत बढ़ गई थी। इस प्रचण्ड महालय के संरक्षण के लिए चारों ओर काले पत्थर का अत्यन्त सुदृढ़ परकोटा बंधा हुआ था जिसमें स्थान-स्थान पर अठपहलू बुर्ज़ बने हुए थे। बाहरी मैदान में चालीस हज़ार सैनिक एक साथ खड़े रह सकें, इतना स्थान था। जब महालय की खाई में समुद्र का जल भर दिया जाता था। परकोटे के भीतर नगर-बाज़ार तथा सद्गृहस्थों के मकान आदि थे, जहां देश-देश के अनगिनत व्यापारी, शिल्पी और राजकाजी जन तथा महालय-कर्मचारी अपना-अपना कार्य करते तथा निवास करते थे। उनके आराम के लिए अनेक कुएं-बावड़ी-तालाब-सर-सरोवर-उपवन आदि थे।
देश के भिन्न-भिन्न राजाओं की ओर से बारी-बारी महालय पर चाकरी-चौकसी होती थी। इसके अतिरिक्त महालय की ओर से भी एक सहस्र सिपाही नियत थे, जो सावधानी से महालय की करोड़ों की सम्पत्ति की तथा वहां के बसने वाले करोड़पति व्यापारियों की सावधानी से रक्षा-व्यवस्था करते थे। प्रतिवर्ष श्रावण की पूर्णिमा और शिवरात्रि के दिन तथा सूर्य और चन्द्र ग्रहण के दिन महालय में भारी मेला लगता था, जिसमें हिमालय के उस पार से लेकर लंका तक के यात्री वहां आते थे। इन मेलों में पांच से सात लाख तक यात्री एकत्र हो जाते थे। इन महोत्सवों में पट्टन के सात सौ हज्जाम एक क्षण को भी विश्राम नहीं पाते थे। दूर-दूर के राजा-महाराजा अपने-अपने लाव-लश्कर लेकर लम्बी-लम्बी मंज़िलें काटते हुए, तथा मार्ग के कठिन परिश्रम को सहन करते हुए, प्रभास पट्टन में आकर जब महालय की छाया में पहुंचते, तो अपने जीवन को धन्य मानते थे। भरतखण्ड भर में यह विश्वास था कि भगवान सोमनाथ के दर्शन बिना किए मनुष्य-जन्म ही निर्रथक है। अनेक मुकुटधारी राजा और श्रीमन्त अपनी-अपनी मानता पूरी करने को सैकड़ों मील पांव-प्यादे चलकर आते थे। इन सब कारणों से उन दिनों पट्टन नगर भारत भर में व्यापार का प्रमुख केन्द्र बन गया था। मालव, हिमाचल, अर्बुद, अंग, बंग, कलिंग के अतिरिक्त अरब ईरान, और अफगानिस्तान तक के व्यापारी तथा बंजारे कीमती माल लेकर इन मेलों के अवसरों पर आकर अच्छी कमाई कर ले जाते थे। पट्टन के बाज़ार उन-उन देशों की हल्की-भारी कीमत वाली जिन्सों और सामग्रियों से पटे रहते थे।
अब से लगभग हजार वर्ष पहले इसी स्थान पर सोमनाथ का कीर्तिवान महालय था, जिसका अलौकिक वैभव बदरिकाश्रम से सेतुबन्ध रामेश्वर तक, और कुमारी कन्या से बंगाल के छोर तक, विख्यात था। भारत के कोने-कोने से श्रद्धालु यात्री ठठ-के-ठठ बारहों महीना इस महातीर्थ में आते और सोमनाथ के भव्य दर्शन करते थे। अनेक राजा-रानी, राजवंशी, धनी, कुबेर, श्रीमन्त, साहूकार, यहां महीनों पड़े रहते थे और अनगिनत धन, रत्न, गांव, धरती सोमनाथ के चरणों पर चढ़ा जाते थे। इससे सोमनाथ का वैभव अवर्णनीय एवं अतुलनीय हो गया था।
उन दिनों भारत में वैष्णव धर्म की अपेक्षा शैव धर्म का अधिक प्राबल्य था। सोमनाथ महालय-निर्माण में उत्तर और दक्षिण दोनों ही प्रकार की भरतखण्ड की स्थापत्य-कला की पराकाष्ठा कर दी गई थी। यह महालय, बहुत विस्तार में फैला था, दूर से उसकी धवल दृश्यावलि चांदी के चमचमाते पर्वत-श्रृंग के समान दीख पड़ती थी। सम्पूर्ण महालय उच्चकोटि के श्वेत मर्मर का बना था। महालय के मंडप के भारी-भारी खम्भों पर हीरा, मानिक, नीलम आदि रत्नों की ऐसी पच्चीकारी की गई थी कि उसकी शोभा देखने से नेत्र थकते नहीं थे। जग-जगह सोने-चांदी के पत्र, स्तम्भों पर चढ़े थे। ऐसे छह सौ खम्भों पर महालय का रंगमंडप खड़ा था। इस मण्डप में दस हज़ार से भी अधिक दर्शक एक साथ सोमनाथ के पुण्य दर्शन कर सकते थे। इस मंडप में द्विजमात्र ही जा सकते थे। मंडप के सामने गम्भीर गर्भगृह में सोमनाथ का आलौकिक ज्योतिर्लिंग था। गर्भगृह की छत और दीवार पर रत्ती-रत्ती रत्न और जवाहर जड़े थे। इस कारण साधारण घृत का दीया जलने पर भी वहां ऐसा झलमलाहट हो जाती थी कि आंखें चौंधिया जाती थीं। इस भूगर्भ में दिन में भी सूर्य की किरणें प्रविष्ट नहीं हो सकती थीं। वहां रात-दिन सोने के बड़े-बड़े दीपकों में घृत जलाया जाता था तथा चन्दन-केसर-कस्तूरी की धूप रात-दिन जलती रहती थी, जिसकी सुगन्ध से महालय के आस-पास दो-दो योजन तक पृथ्वी सुगन्धित रहती थी। रंग-मण्डप के चिकने स्वच्छ फर्श पर देश-देश की असूर्यपश्या महिलाएं रत्नाभूषणों से सुसज्जित, रूप-यौवन से परिपूर्ण, गुणगरिमा से लदी-फदी, जगह-जगह बैठी श्रद्धा और भक्ति से नतमस्तक कोमल स्वर से भगवान सोमनाथ का स्तवन घण्टों करती रहती थीं। नियमित पूजन और नित्यविधि के समय पांच सौ वेदपाठी ब्राह्मण सस्वर वेद-पाठ करते, और तीन सौ गुणी गायक देवता का विविध वाद्यों के साथ स्तवन करते, तथा इतनी ही किन्नरी और अप्सरा-सी देवदासी नर्तकियां नृत्य-कला से देवता और उनके भक्तों को रिझाती थीं। नित्य विशाल चांदी के सौ घड़े गंगाजल से ज्योतिर्लिंग का स्नान होता था, जो निरन्तर हरकारों की डाक लगाकर एक हज़ार मील से अधिक दूर हरद्वार से मंगवाया जाता था। स्नान के बाद बहुमूल्य इत्रों से तथा सुगन्धित जलों से लिंग का अभिषेक होता था, इसके बाद श्रृंगार होता था। सोमनाथ का यह ज्योतिर्लिंग आठ हाथ ऊंचा था, अतः इसका स्नान, अभिषेक-श्रृंगार आदि एक छोटी-सी सोने की सीढ़ी पर चढ़ कर किया जाता था। सब सम्पन्न हो जाने पर आरती होती थी, जिसमें शंखनाद, चौघड़ियाँ घण्टे आदि का महाघोष होता था। यह आरती चार योजन विस्तार में सुनी जाती थी। मंडप में दो सौ मन सोने की ठोस, श्रृंखला से लटका हुआ एक महाघंट था, जिसका वज्रगर्जना के समान घोर रव मीलों तक सुना जाता था। सोमनाथ महालय के चारों द्वारों पर एक-एक पहर के अन्तर से नौबत बजती थी। इस प्रकार ऐश्वर्य और वैभव से इस महातीर्थ की महिमा दिग्-दिगन्त तक फैल गई थी। इन सब कामों में अपरिमित द्रव्य खर्च होता था, किंतु उससे महालय के अक्षय कोष में कुछ भी कमी नहीं होती थी। दस हज़ार से ऊपर गांव महालय को राजा-महाराजाओं के द्वारा अर्पण किए हुए थे। महालय के गगनचुम्बी शिखर पर समुद्र की ओर जो भगवे रंग की ध्वजा फहराती थी, वह दूर देशों के यात्रियों का मन बराबर अपनी ओर खींच लेती थी। महालय के शिखर के स्वर्ण-कलश सूर्य की धूप में अनगिनत सूर्यों की भांति चमकते थे।
महालय के चारों ओर असंख्य छोटे-बड़े मन्दिर, घर, महल और सार्वजनिक स्थान थे जो मीलों तक फैले थे तथा जिनसे महालय की शोभा बहुत बढ़ गई थी। इस प्रचण्ड महालय के संरक्षण के लिए चारों ओर काले पत्थर का अत्यन्त सुदृढ़ परकोटा बंधा हुआ था जिसमें स्थान-स्थान पर अठपहलू बुर्ज़ बने हुए थे। बाहरी मैदान में चालीस हज़ार सैनिक एक साथ खड़े रह सकें, इतना स्थान था। जब महालय की खाई में समुद्र का जल भर दिया जाता था। परकोटे के भीतर नगर-बाज़ार तथा सद्गृहस्थों के मकान आदि थे, जहां देश-देश के अनगिनत व्यापारी, शिल्पी और राजकाजी जन तथा महालय-कर्मचारी अपना-अपना कार्य करते तथा निवास करते थे। उनके आराम के लिए अनेक कुएं-बावड़ी-तालाब-सर-सरोवर-उपवन आदि थे।
देश के भिन्न-भिन्न राजाओं की ओर से बारी-बारी महालय पर चाकरी-चौकसी होती थी। इसके अतिरिक्त महालय की ओर से भी एक सहस्र सिपाही नियत थे, जो सावधानी से महालय की करोड़ों की सम्पत्ति की तथा वहां के बसने वाले करोड़पति व्यापारियों की सावधानी से रक्षा-व्यवस्था करते थे। प्रतिवर्ष श्रावण की पूर्णिमा और शिवरात्रि के दिन तथा सूर्य और चन्द्र ग्रहण के दिन महालय में भारी मेला लगता था, जिसमें हिमालय के उस पार से लेकर लंका तक के यात्री वहां आते थे। इन मेलों में पांच से सात लाख तक यात्री एकत्र हो जाते थे। इन महोत्सवों में पट्टन के सात सौ हज्जाम एक क्षण को भी विश्राम नहीं पाते थे। दूर-दूर के राजा-महाराजा अपने-अपने लाव-लश्कर लेकर लम्बी-लम्बी मंज़िलें काटते हुए, तथा मार्ग के कठिन परिश्रम को सहन करते हुए, प्रभास पट्टन में आकर जब महालय की छाया में पहुंचते, तो अपने जीवन को धन्य मानते थे। भरतखण्ड भर में यह विश्वास था कि भगवान सोमनाथ के दर्शन बिना किए मनुष्य-जन्म ही निर्रथक है। अनेक मुकुटधारी राजा और श्रीमन्त अपनी-अपनी मानता पूरी करने को सैकड़ों मील पांव-प्यादे चलकर आते थे। इन सब कारणों से उन दिनों पट्टन नगर भारत भर में व्यापार का प्रमुख केन्द्र बन गया था। मालव, हिमाचल, अर्बुद, अंग, बंग, कलिंग के अतिरिक्त अरब ईरान, और अफगानिस्तान तक के व्यापारी तथा बंजारे कीमती माल लेकर इन मेलों के अवसरों पर आकर अच्छी कमाई कर ले जाते थे। पट्टन के बाज़ार उन-उन देशों की हल्की-भारी कीमत वाली जिन्सों और सामग्रियों से पटे रहते थे।
निर्माल्य
सूर्य अस्त हो चुका था। संध्या का अंधकार चारों ओर फैल गया था।
केवल पश्चिम दिशा में एकाध बादल क्षण-क्षण में क्षीण होती अपनी लाल आभा झलका रहा था, जिसका स्वर्ण प्रतिबिम्ब सोमनाथ महालय के स्वर्ण-शिखरों पर अपनी क्षीयमान झलक दिखा रहा था। इसी समय एक अश्वरोही प्रभास पट्टन के कोट-द्वार पर आकर खड़ा हो गया। कोट-द्वार अभी बन्द नहीं हुआ था; प्रहरियों के प्रमुख ने आगे बढ़कर पूछा, ‘‘तुम कौन हो, और कहां से आ रहे हो ?’’
अश्वरोही कोई बीस-बाईस वर्ष का एक बलिष्ठ और सुन्दर तरुण था। उसकी मुख-चेष्टा तथा अश्व के रंग-ढंग से प्रकट होता था कि वह दूर से आ रहा है, तथा सवार और अश्वर दोनों ही बिलकुल थक गए हैं। फिर अश्वरोही ने थकित भाव से किन्तु उच्च स्वर से एक हाथ ऊंचा करके तथा दूसरे से अपने गट्ठर को सम्हालते हुए पुकारा, ‘‘जय सोमनाथ !’’
‘‘किन्तु तुम्हारा परिचय-पत्र ?’’ प्रहरी ने उसके निकट जा कर्कश स्वर में पूछा।
‘‘यह लो !’’ अश्वारोही ने एक चांदी की नली, रेशम की थैली से निकाल कर उसे दी। प्रहरी ने नली को खोलकर उसमें से एक पट्ट-लेख निकाला। उलट-पलट कर उसे पढ़ा। फिर कुछ भुनभुनाते हुए कहा, ‘‘तो तुम भरुकच्छ से आ रहे हो ?’’
‘‘जी हां, दद्दा चालुक्य ने त्रिपुरसुन्दरी के लिए जो निर्माल्य भेजा है, उसी को लेकर।’’ प्रहरी ने एक बार अश्व की पीठ पर लदे गट्ठर पर दृष्टि की, और ‘जय सोमनाथ’ कहकर पीछे हट गया। अश्वारोही ने कोट के भीतर प्रवेश किया।
कोट के भीतर बड़ी भीड़ थी। देश-देश के यात्री वहां भरे थे। उन दिनों प्रभास पट्टन समस्त भरतखंड भर में पाशुपात आम्नाय का प्रमुख केन्द्र विख्यात था। भारत के कोने-कोने से श्रद्धालु भक्त-गण शिवरात्रि महापर्व पर सोमनाथ महालय में सोमनाथ के ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने को एकत्र हुए थे। इस वर्ष गज़नी के अप्रतिरथ विजेता अमीर सुल्तान महमूद के सोमनाथ पर अभियान करने की बड़ी गर्म चर्चा थी। इसी कारण दूर-दूर से क्षत्रिय क्षत्रधारी महीपगण इस देव के लिए रक्त-दान देने और अनेक श्रद्धालु ‘‘कल न जाने क्या हो’’ इस विचार से एक बार भगवान सोमनाथ का दर्शन करने जल-थल दोनों ही मार्गों से ठठ-के-ठठ प्रभास में इकट्ठे हो गए थे। राजा-महाराजाओं के रथ, अश्व, गज, वाहन, सैनिक-सेवक, मोदी-व्यापारी-यात्री—सब मिलाकर इस समय प्रभास पट्टन में इतनी भीड़ हो गई थी कि जितनी इधर कई वर्षों से देखी नहीं गयी थी। पट्टन की सब धर्मशालाएं और अतिथिग्रह भर गए थे। बहुत लोग मार्ग में, वृक्षों के नीचे तथा घरों की छाया में विश्राम कर रहे थे।
केवल पश्चिम दिशा में एकाध बादल क्षण-क्षण में क्षीण होती अपनी लाल आभा झलका रहा था, जिसका स्वर्ण प्रतिबिम्ब सोमनाथ महालय के स्वर्ण-शिखरों पर अपनी क्षीयमान झलक दिखा रहा था। इसी समय एक अश्वरोही प्रभास पट्टन के कोट-द्वार पर आकर खड़ा हो गया। कोट-द्वार अभी बन्द नहीं हुआ था; प्रहरियों के प्रमुख ने आगे बढ़कर पूछा, ‘‘तुम कौन हो, और कहां से आ रहे हो ?’’
अश्वरोही कोई बीस-बाईस वर्ष का एक बलिष्ठ और सुन्दर तरुण था। उसकी मुख-चेष्टा तथा अश्व के रंग-ढंग से प्रकट होता था कि वह दूर से आ रहा है, तथा सवार और अश्वर दोनों ही बिलकुल थक गए हैं। फिर अश्वरोही ने थकित भाव से किन्तु उच्च स्वर से एक हाथ ऊंचा करके तथा दूसरे से अपने गट्ठर को सम्हालते हुए पुकारा, ‘‘जय सोमनाथ !’’
‘‘किन्तु तुम्हारा परिचय-पत्र ?’’ प्रहरी ने उसके निकट जा कर्कश स्वर में पूछा।
‘‘यह लो !’’ अश्वारोही ने एक चांदी की नली, रेशम की थैली से निकाल कर उसे दी। प्रहरी ने नली को खोलकर उसमें से एक पट्ट-लेख निकाला। उलट-पलट कर उसे पढ़ा। फिर कुछ भुनभुनाते हुए कहा, ‘‘तो तुम भरुकच्छ से आ रहे हो ?’’
‘‘जी हां, दद्दा चालुक्य ने त्रिपुरसुन्दरी के लिए जो निर्माल्य भेजा है, उसी को लेकर।’’ प्रहरी ने एक बार अश्व की पीठ पर लदे गट्ठर पर दृष्टि की, और ‘जय सोमनाथ’ कहकर पीछे हट गया। अश्वारोही ने कोट के भीतर प्रवेश किया।
कोट के भीतर बड़ी भीड़ थी। देश-देश के यात्री वहां भरे थे। उन दिनों प्रभास पट्टन समस्त भरतखंड भर में पाशुपात आम्नाय का प्रमुख केन्द्र विख्यात था। भारत के कोने-कोने से श्रद्धालु भक्त-गण शिवरात्रि महापर्व पर सोमनाथ महालय में सोमनाथ के ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने को एकत्र हुए थे। इस वर्ष गज़नी के अप्रतिरथ विजेता अमीर सुल्तान महमूद के सोमनाथ पर अभियान करने की बड़ी गर्म चर्चा थी। इसी कारण दूर-दूर से क्षत्रिय क्षत्रधारी महीपगण इस देव के लिए रक्त-दान देने और अनेक श्रद्धालु ‘‘कल न जाने क्या हो’’ इस विचार से एक बार भगवान सोमनाथ का दर्शन करने जल-थल दोनों ही मार्गों से ठठ-के-ठठ प्रभास में इकट्ठे हो गए थे। राजा-महाराजाओं के रथ, अश्व, गज, वाहन, सैनिक-सेवक, मोदी-व्यापारी-यात्री—सब मिलाकर इस समय प्रभास पट्टन में इतनी भीड़ हो गई थी कि जितनी इधर कई वर्षों से देखी नहीं गयी थी। पट्टन की सब धर्मशालाएं और अतिथिग्रह भर गए थे। बहुत लोग मार्ग में, वृक्षों के नीचे तथा घरों की छाया में विश्राम कर रहे थे।
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विनामूल्य पूर्वावलोकन
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