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सद्गति

प्रेमचंद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :24
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6204
आईएसबीएन :81-85830-24-x

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दुखी चमार द्वार पर झाड़ू लगा रहा था और उसकी पत्नी झुरिया घर को गोबर से लीप रही थी। दोनों अपने-अपने काम से फुरसत पा चुके तो चमारिन ने कहा,‘‘तो जाके पंडित बाबा से कह आओ न ! ऐसा न हो, कहीं चले जाएँ।’’

Sadgati A Hindi Book by Premchand

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सद्गति

दुखी चमार द्वार पर झाड़ू लगा रहा था और उसकी पत्नी झुरिया घर को गोबर से लीप रही थी। दोनों अपने-अपने काम से फुरसत पा चुके तो चमारिन ने कहा,‘‘तो जाके पंडित बाबा से कह आओ न ! ऐसा न हो, कहीं चले जाएँ।’’
दुखी—‘‘हाँ जाता हूँ; लेकिन यह तो सोच, बैठेंगे किस चीज पर ?’’

झुरिया—‘‘कहीं से खटिया न मिल जायेगी ? ठकुराने से माँग लाना।’’

दुखी—‘‘तू तो कभी-कभी ऐसी बात कह देती है कि देह जल जाती है। ठकुराने वाले मुझे खटिया देंगे ! आग तक तो घर से निकलती नहीं, खटिया देंगे ! कैथाने में जाकर एक लोटा पानी माँगूँ तो न मिले। भला, खटिया कौन देगा ! हमारे उपले, सेंठे, भूसा, लकड़ी थोड़े ही हैं कि जो चाहें उठा ले जाएँ। ला, अपनी खटोली धोकर रख दें। गर्मी के दिन तो हैं। उनके आते-आते सूख जाएगी।’’

झुरिया—‘‘वे हमारी खटोली पर बैठेंगे नहीं। देखते नहीं कितने नेम-धरम से रहते हैं !’’

दुखी ने जरा चिंतित होकर कहा, ‘‘हाँ, यह बात तो है। महुए के पत्ते तोड़कर एक पत्तल बना लूँ तो ठीक हो जाए। पत्तल में बड़े-बड़े आदमी खाते हैं, वह पवित्तर है। ला तो डंडा, पत्ते तोड़ लूँ।’’
झुरिया—‘‘पत्तल मैं बना लूँगी। तुम जाओ, लेकिन हाँ, उन्हें ‘सीधा’ भी तो देना होगा। अपनी थाली में रख दूँ ?’’
दुखी—‘‘कहीं ऐसा गजब न करना, नहीं तो सीधा भी जाए और थाली भी फूटे।

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