संस्मरण >> ख्वाब है दीवाने का ख्वाब है दीवाने काकृष्ण बलदेव वैद
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कृष्ण बलदेव वैद की उत्कृष्ट प्रवास डायरी...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कुछ भूमिकात्मक शब्द
कभी साफ़ साफ़ सोचा (और चाहा) नहीं था कि किसी दिन स्वयं अपने थके हुए
हाथों से अपनी डायरी के कुछ सम्पादित अंशों की एक पुस्तक बनाऊँगा, लेकिन
शायद यह सोच (और चाह) अनेक अँधेरों और अन्देशों से लिथड़ी-लिपटी हुई किसी
भीतरी तहखाने में छिपी बैठी चली आ रही थी। यह पुस्तक उसी खुफ़िया सोच (और
चाह) की ख़ामोश ज़िद की सफलता का परिणाम और प्रमाण है।
अभी तक होता यह रहा है कि जब मोह-मूर्खता-वश मैंने अपनी डरावनी डायरी में डुबकी लगायी है, तब तब उसके कुछ अंशों को नष्ट कर दिया है, इसीलिए उसमें कई छोटे-बड़े शिगाफ पैदा होते रहे हैं, मानो कोई चोर अपनी पसन्द के टुकड़े चुरा ले गया हो; इस बार भी क़रीब एक बरस पहले जब मैंने अपने प्रवास काल की डायरी को देखना शुरू किया तो इरादा यही था कि उसके कुछ और अंश नष्ट कर दूँगा। और मैंने पाया कि प्रवास के आरम्भिक दो वर्षों (1966-67) की डायरी सिरे से ग़ायब है। उसे न जाने कब किस आवेश में मैंने फैंका होगा। लेकिन इस बार एक और ख़याल ने मेरा हाथ थाम लिया, और यह ख़याल था : क्यों न इस कठिन काल (1968-83) की बचीखुची डायरी में से जो बचाना चाहता हूँ बचा लूँ और बाकी सब से सुबकदोश हो जाऊँ ! इस ख़याल पर अमल करना आसान नहीं था-किसी भी ख़याल पर अमल करना मेरे लिए आसान नहीं होता-लेकिन मैंने किया। अब यह बताना मैं ज़रूरी नहीं समझता कि जो बचाया क्यों बचाया और जो जाने दिया क्यों जाने दिया, इतना (अनर्थ) ही काफ़ी है कि जो बचाया वह इस पुस्तक का रूप ले रहा है। पुस्तकों के परमात्मा मुझे इस (अनर्थ) के लिए क्षमा करें !
भूमिका के तौर पर दी गई यह सफाई काफी नहीं, मैं मानता हूँ, इसीलिए कुछ शब्द और जोड़ रहा हूँ। इन्हें मैंने इसी पुस्तक में से उठाया है-ये हैं तो मेरे ही लेकिन लग यही रहा है कि ये मेरे न होकर उस अकुलाते हुए प्रवासी के हैं जो बरसों पॉट्स्डैम में पड़ा तड़पता और पढ़ाता और लिखता रहा और जो अब भी अपने स्वप्नों और दुःस्वप्नों में अक्सर वहाँ पहुँच जाता है-उसी बर्फीले एकान्त में, उसी ख़ामोश दरिया के किनारे, उन्हीं सर्द हवाओं में, उन्हीं पेड़ों और पत्तों और परिन्दों के बीच-उसी नीले आलम में।
तो अब पेश है इसी पुस्तक में से उठाए गये कुछ भूमिका-रूपी शब्द :
शाम पर अबूर पाने और अपने आपको सँभालने के लिए ही यह इन्द्राज ले बैठता हूँ। दिन का या दिल का या दिमाग़ का पूरा जायज़ा लेने का धीरज मुझ में नहीं,
यह सब लिखते हुए कभी महसूस करता हूँ कि मैं डूबने से पहले कोई ‘पैग़ाम’ लिखने की कोशिश कर रहा हूँ, कभी कि मैं किसी कारागार में पड़ा हूँ और इस उम्मीद में यह सब लिख रहा हूँ कि मेरी मौत के बाद ये कागज़ात बरामद होंगे और मेरी रूदाद लोगों तक पहुँच जाएगी, कभी कि मैं सिर्फ़ वक्त काटने के लिए ही यह सब नहीं लिख रहा बल्कि अपने आपको समझने के लिए भी, और अपने इन्तशार पर काबू पाने के लिए भी।
मुझे बचाने, बचाए रखने में, मेरे इस कच्चे और बेसब्र इन्दराज और आत्मविश्लेषण की भूमिका बड़ी और महत्त्वपूर्ण है। इसमें मैं न तो अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की तफ़सील में जाता हूँ और न ही अपने परिचितों और दोस्तों की हरकतों की तफ़सील में। शुरू से ही इसमें अपने ख़िलाफ़ हर क़िस्म की शिकायतों की भरमार है या फिर काम न कर सकने या न हो पाने का मलाल। और ‘वहाँ’ और ‘यहाँ’ की रस्साकशी-जब से यहाँ आया हूँ, और अपने काम की नुक्ताचीनी। कभी कभी उसकी सराहना। अपनी ऊब और बेज़ारी का माजरा। अपने बिखराव का हाल। अपने कुछ स्वप्नों का बयान। इस नोहाख़ानी का और कोई फ़ायदा हो न हो, अपना इलाज होता रहता है-अधूरा और दोषपूर्ण। संक्षेप में यही कि यह इन्दराज मुझे टूटने से बचाता रहा है, और अपने आपको समझने और समझाने में मेरी मदद करता रहा है। इसमें अपने आस पास का ज़िक्र कम ही होता है।
बर्जीनिया वुल्फ़ अपने दिल का ग़बार निकालने और अपनी अंगुलियों को हरकत में रखने के लिए डायरी लिखती थी। तनहाई को सहने के लिए भी, आत्मविश्लेषण के लिए भी। अनाइस नीन अपने दोस्तों और आशिक़ों के भीतर झाँकने के लिए और अपने आप से गुफ़्तगू करने के लिए। दोनों का अहं काफ़ी बड़ा था, सारे संशयों के बावजूद; दोनों शायद चाहती थीं कि उनकी डायरियाँ पढ़ी जाएँ।
मैं इस डायरी को मरने से पहले बरबाद कर जाना चाहता हूँ, कर शायद न जाऊँ। इसमें फ़नकाराना बातें कम हैं। इसका फ़ोकस मेरी उलझनों पर है। इसका मकसद मेरा मनोविश्लेषण है। इसका असली उद्देश्य मुझे बिखरने से बचाना है, शायद आत्महत्या से भी। इसमें अपनी उलझनों का मुआयना मैंने किया तो है लेकिन पूरी बेहिजाबी के साथ शायद ही। बाहरी दुनिया की तसवीरें इसमें कम हैं। और न ही इसमें मैंने पूरी बारीकी से उन रूहानी और कला सम्बन्धी समस्याओं का बयान किया है जो मुझे मसलती रहती हैं।
एक बार फिर यहां दर्ज कर देना चाहता हूँ कि इस डायरी में मेरा असली मकसद है-अपने बिखराब को काबू में रखना, अपने आपको खुदकुशी से बचाए रखना, अपने आपको काम के लिए उकसाते रहना, इससे अपनी तनहाई को सहते चले जाने की ताकत बटोरना।
डायरी में मैं अपने डर का सामना करता हूँ और अपने शून्य की पैमाइश और अपनी कमजोरियों की जाँच पड़ताल। अपने अँधेरे का जायज़ा भी लेता हूँ। अपने दिन का सामना करने के लिए अपने आपको आमादा करता हूँ। लेकिन साथ ही इस ख़तरे और ख्वाहिश का साया भी बना रहता है कि मेरे बाद कोई इसे पढ़े (पढ़ेगा), इससे कई अनुमान लगाए (लगाएगा), इसे प्रकाशित करे (करेगा)। इस साए के कारण मैं इसमें भी सब कुछ नहीं लिखता, लिख सकता। पूरी ईमानदारी और उरयानी यहाँ भी सम्भव नहीं।
अभी तक होता यह रहा है कि जब मोह-मूर्खता-वश मैंने अपनी डरावनी डायरी में डुबकी लगायी है, तब तब उसके कुछ अंशों को नष्ट कर दिया है, इसीलिए उसमें कई छोटे-बड़े शिगाफ पैदा होते रहे हैं, मानो कोई चोर अपनी पसन्द के टुकड़े चुरा ले गया हो; इस बार भी क़रीब एक बरस पहले जब मैंने अपने प्रवास काल की डायरी को देखना शुरू किया तो इरादा यही था कि उसके कुछ और अंश नष्ट कर दूँगा। और मैंने पाया कि प्रवास के आरम्भिक दो वर्षों (1966-67) की डायरी सिरे से ग़ायब है। उसे न जाने कब किस आवेश में मैंने फैंका होगा। लेकिन इस बार एक और ख़याल ने मेरा हाथ थाम लिया, और यह ख़याल था : क्यों न इस कठिन काल (1968-83) की बचीखुची डायरी में से जो बचाना चाहता हूँ बचा लूँ और बाकी सब से सुबकदोश हो जाऊँ ! इस ख़याल पर अमल करना आसान नहीं था-किसी भी ख़याल पर अमल करना मेरे लिए आसान नहीं होता-लेकिन मैंने किया। अब यह बताना मैं ज़रूरी नहीं समझता कि जो बचाया क्यों बचाया और जो जाने दिया क्यों जाने दिया, इतना (अनर्थ) ही काफ़ी है कि जो बचाया वह इस पुस्तक का रूप ले रहा है। पुस्तकों के परमात्मा मुझे इस (अनर्थ) के लिए क्षमा करें !
भूमिका के तौर पर दी गई यह सफाई काफी नहीं, मैं मानता हूँ, इसीलिए कुछ शब्द और जोड़ रहा हूँ। इन्हें मैंने इसी पुस्तक में से उठाया है-ये हैं तो मेरे ही लेकिन लग यही रहा है कि ये मेरे न होकर उस अकुलाते हुए प्रवासी के हैं जो बरसों पॉट्स्डैम में पड़ा तड़पता और पढ़ाता और लिखता रहा और जो अब भी अपने स्वप्नों और दुःस्वप्नों में अक्सर वहाँ पहुँच जाता है-उसी बर्फीले एकान्त में, उसी ख़ामोश दरिया के किनारे, उन्हीं सर्द हवाओं में, उन्हीं पेड़ों और पत्तों और परिन्दों के बीच-उसी नीले आलम में।
तो अब पेश है इसी पुस्तक में से उठाए गये कुछ भूमिका-रूपी शब्द :
शाम पर अबूर पाने और अपने आपको सँभालने के लिए ही यह इन्द्राज ले बैठता हूँ। दिन का या दिल का या दिमाग़ का पूरा जायज़ा लेने का धीरज मुझ में नहीं,
यह सब लिखते हुए कभी महसूस करता हूँ कि मैं डूबने से पहले कोई ‘पैग़ाम’ लिखने की कोशिश कर रहा हूँ, कभी कि मैं किसी कारागार में पड़ा हूँ और इस उम्मीद में यह सब लिख रहा हूँ कि मेरी मौत के बाद ये कागज़ात बरामद होंगे और मेरी रूदाद लोगों तक पहुँच जाएगी, कभी कि मैं सिर्फ़ वक्त काटने के लिए ही यह सब नहीं लिख रहा बल्कि अपने आपको समझने के लिए भी, और अपने इन्तशार पर काबू पाने के लिए भी।
मुझे बचाने, बचाए रखने में, मेरे इस कच्चे और बेसब्र इन्दराज और आत्मविश्लेषण की भूमिका बड़ी और महत्त्वपूर्ण है। इसमें मैं न तो अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की तफ़सील में जाता हूँ और न ही अपने परिचितों और दोस्तों की हरकतों की तफ़सील में। शुरू से ही इसमें अपने ख़िलाफ़ हर क़िस्म की शिकायतों की भरमार है या फिर काम न कर सकने या न हो पाने का मलाल। और ‘वहाँ’ और ‘यहाँ’ की रस्साकशी-जब से यहाँ आया हूँ, और अपने काम की नुक्ताचीनी। कभी कभी उसकी सराहना। अपनी ऊब और बेज़ारी का माजरा। अपने बिखराव का हाल। अपने कुछ स्वप्नों का बयान। इस नोहाख़ानी का और कोई फ़ायदा हो न हो, अपना इलाज होता रहता है-अधूरा और दोषपूर्ण। संक्षेप में यही कि यह इन्दराज मुझे टूटने से बचाता रहा है, और अपने आपको समझने और समझाने में मेरी मदद करता रहा है। इसमें अपने आस पास का ज़िक्र कम ही होता है।
बर्जीनिया वुल्फ़ अपने दिल का ग़बार निकालने और अपनी अंगुलियों को हरकत में रखने के लिए डायरी लिखती थी। तनहाई को सहने के लिए भी, आत्मविश्लेषण के लिए भी। अनाइस नीन अपने दोस्तों और आशिक़ों के भीतर झाँकने के लिए और अपने आप से गुफ़्तगू करने के लिए। दोनों का अहं काफ़ी बड़ा था, सारे संशयों के बावजूद; दोनों शायद चाहती थीं कि उनकी डायरियाँ पढ़ी जाएँ।
मैं इस डायरी को मरने से पहले बरबाद कर जाना चाहता हूँ, कर शायद न जाऊँ। इसमें फ़नकाराना बातें कम हैं। इसका फ़ोकस मेरी उलझनों पर है। इसका मकसद मेरा मनोविश्लेषण है। इसका असली उद्देश्य मुझे बिखरने से बचाना है, शायद आत्महत्या से भी। इसमें अपनी उलझनों का मुआयना मैंने किया तो है लेकिन पूरी बेहिजाबी के साथ शायद ही। बाहरी दुनिया की तसवीरें इसमें कम हैं। और न ही इसमें मैंने पूरी बारीकी से उन रूहानी और कला सम्बन्धी समस्याओं का बयान किया है जो मुझे मसलती रहती हैं।
एक बार फिर यहां दर्ज कर देना चाहता हूँ कि इस डायरी में मेरा असली मकसद है-अपने बिखराब को काबू में रखना, अपने आपको खुदकुशी से बचाए रखना, अपने आपको काम के लिए उकसाते रहना, इससे अपनी तनहाई को सहते चले जाने की ताकत बटोरना।
डायरी में मैं अपने डर का सामना करता हूँ और अपने शून्य की पैमाइश और अपनी कमजोरियों की जाँच पड़ताल। अपने अँधेरे का जायज़ा भी लेता हूँ। अपने दिन का सामना करने के लिए अपने आपको आमादा करता हूँ। लेकिन साथ ही इस ख़तरे और ख्वाहिश का साया भी बना रहता है कि मेरे बाद कोई इसे पढ़े (पढ़ेगा), इससे कई अनुमान लगाए (लगाएगा), इसे प्रकाशित करे (करेगा)। इस साए के कारण मैं इसमें भी सब कुछ नहीं लिखता, लिख सकता। पूरी ईमानदारी और उरयानी यहाँ भी सम्भव नहीं।
24-6-2005
कृष्ण बलदेव वैद
1968
जब से यहाँ (अमरीका) आया हूँ तब से हूँ दरअसल वहीं क्योंकि यहाँ रहते हुए
भी स्वप्न वहीं के देख रहा हूँ- स्वप्न मुहावरे के भी, दूसरे भी।
‘वहाँ’ और ‘यहाँ’ के बीच बहस
मेरे भीतर अब दिन
रात चलती रहती है-दिन की रोशनी में, रात के अँधेरे में। सोचता हूँ कि वहाँ
से शारीरिक दूरी के कारण अपने व्यामोह के आलोक में अपने अतीत की व्यथा-कथा
रच सकूँगा, अपने आपको और अपने देश को समझने के लिए शायद। सोचता यह भी हूँ
कि यहाँ आ पड़ने का ही एक प्रभाव मुझ पर यह है कि मैंने बहुत शिद्दत से
बुढ़ापे और मौत के बारे में सोचना और महसूस करना शुरु कर दिया है। इस शदीद
आगाही का असर भी मेरे काम पर पड़ेगा।
उसका बचपन लिख लेने के बाद मेरे व्यक्तित्व में एक विशेष प्रकार की मज़बूती-सी आ गई थी, महसूस हुआ था जैसे मैंने वह उपन्यास लिखकर अपने सर पर सवार किसी भूत को उतार दिया हो, अपने भीतर भरे कर्कश शोर को कच्चे से संगीत में बदल दिया हो, अपनी काली स्मृतियों में से अपनी कला-कल्पना के लिए कुछ निकाल लिया हो। अब अगर यहाँ रहते हुए बिमल और रात लिख सकूँ तो शायद उस मजबूती में कुछ इज़ाफ़ा हो, उस संगीत में कुछ परिपक्वता आए, उन स्मृतियों में से कुछ और निकले।
बिमल के लिखे जा चुके टुकड़ों को पढ़ने में जो आनन्द आता है उससे कुछ आश्वस्त होता हूँ। अपने जैसे एक उखड़े और ऊबे हुए नौजवान की चेतना की तसवीर सींचने या बनाने की कोशिश कर रहा हूँ, उसी के चेतना-प्रवाह के माध्यम से। यार लोग जेम्ज़ जायस की नक़ल का इलज़ाम लगाएँगे। लगाते रहें। मैं जायस की ईजाद की हुई या निखारी हुई एक तकनीक का इस्तेमाल अपने तरीक़े से, अपनी नज़र और नस्र को यथार्थवादी रूढ़ियों के अंकुश से आज़ाद करने के लिए कर रहा हूँ। उसी तरह जैसे कई और उपन्यासकारों ने किया है-फ़ाकनर याद आ रहा है।
रात में उन खुफिया खौफों से दो-चार होना चाहता हूँ। जो भीतर न जाने कहाँ कहाँ दबे पड़े हैं और तरह-तरह के रूप ले कर दुःस्वप्नों में दिखाई देते रहते हैं।
बैकिट में मुझे कभी-कभी बृद्ध दिखाई दे जाते हैं।
दहशत, दुःख, दर्द, ऊब-इन सबकी निर्मम नक़्काशी मेरा काम।
एक ख़्वाब।
मैं एक मैदान में हूँ जिसमें बहुत-सी झाँड़ियाँ हैं। कुछ लोग कहीं से मुझ पर गोले बरसा रहे हैं लेकिन वे गोले फटते नहीं। मैं अकेला हूँ, वे लोग न जाने कितने हैं। उनमें से दो या तीन अब मुझे एक टीले पर खड़े दिखाई देते हैं। मैं एक भुरभुरा-सा डंडा उठाकर एक बड़े से बन्द दरवाजे के सामने जा खड़ा होता हूँ। दरवाजे के उस तरफ़ वही लोग खड़े हैं। उनके पाँव मुझे दिखाई देते हैं। मैं झुककर दरवाज़े के नीचे से वह डंडा उनके टखनों पर मारने की कोशिश करता हूँ तो दरवाज़ा खुल जाता है और मैं अपने आपको एक अजनबी आदमी के सामने खड़ा पाता हूँ।
बॉस्टन में हो रही अमेरिकन एसोशिएशन ऑफ एशियन स्टडीज़ (American Association of Asian Studies) की सालाना कॉन्फ्रेंस में रामानुजन, बॉनी क्राउन, एड डिमॉक से बहुत सालों बाद मुलाक़ात हुई। रामानुजन से बहुत बातें हुईं। एक शाम उसने हमारे साथ हमारे घर में भी गुज़ारी।
आज दफ्तर में बैठे कुछ काम किया। दफ़्तर में बैठ काम करने की आदत मुझे नहीं लेकिन यहाँ घर में जगह कम है, क्योंकि यहाँ ब्रोन्डाइज़ में मैं सिर्फ़ एक साल के लिए हूँ, इसलिए छोटा सा मकान ही किराए पर मिला है। दफ़्तर काफ़ी बड़ा है। लेकिन यह सब क्यों दर्ज कर रहा हूँ ? अपनी रचनाओं में ऐसी तफ़सीलता से बचता हूँ तो यहाँ उनका क्या काम !
इन थोड़ी सी छुट्टियों में बिमल का एक हिस्सा ख़त्म किया जा सकता है, गर्मियों की छुट्टियों में सारा उपन्यास।
बिमल के तीन हिस्से हों, पहला हिन्दुस्तान में, दूसरा अमरीका में, तीसरा फिर हिन्दुस्तान में।
यह अभी तय नहीं हुआ। हो सकता है सारा उपन्यास हिन्दुस्तान तक ही सीमित रहे। दिल्ली तक।
यथार्थवादी फैलाव से बचना चाहता हूँ।
अभी पूरी सफ़ाई नहीं आई। बिमल को उसका बचपन के वीरू से अलग रखना चाहता हूँ क्योंकि वीरू और देवी को लेकर एक और उपन्यास लिखने का धुंधला-सा इरादा है। बिमल का परिवार दूसरी क़िस्म का होना चाहिए। यह भी हो सकता है कि परिवार के पचड़े में पड़ूँ ही नहीं। हो सकता है परिवार की तरफ़ कुछ संकेत ही काफ़ी हों। बिमल को लेखक भी बनाऊँ या सिर्फ़ शिक्षक। बिमल में कहानी क्या हो ? हो भी या नहीं ? अभी तक जो लिखा है उसमें कहानी लापता है। क्यों न उसे लापता ही रहने दूँ ?
अभी तक तो यही साफ़ हुआ है कि सुबह सवेरे पकड़ा जाए, उसके बिस्तर में या उसके घर की छत पर। ‘समाधि’ का इस्तेमाल करूँगा, तब्दीलियों के साथ। घर के शोरगुल को उसमें सुनाया जा सकता है। उसकी शादी कर डालने की मुहिम का ज़िक्र हो, पिता के साथ उसकी टक्कर का भी। फिर बिमल को घर से निकाल कर पान की दुकान पर खड़े दिखाया जाए। जाएँ तो जाएँ कहाँ । बिमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ ! पान वाले की ज़रूरत है ? क्यों नहीं ! बिमल के अलावा भी कुछ पात्र होने चाहिए इस उपन्यास में ! बिमल किसी कॉलिज में पढ़ाता है। कैसे कॉलिज में ? उपन्यास का दूसरा हिस्सा उस कॉलेज के स्टाफ़ रूम में हो। तीसरा ? शहर शवयात्रा। कॉलिज की झलक कॉलिज के बारे में सोच से भी दी जा सकती है। शहर यात्रा के दौरान शहर-यात्रा में दिल्ली की तस्वीर। तस्वीरें। बिमल की भटकन। बेमक़सदी। शहरयात्रा का अन्त सुधीर से मुलाक़ात के बाद। सुधीर से मुलाक़ात के दौरान बिमल का पोलीटिकल पक्ष। मुंशी भवन में लेखकों की मीटिंग। उसके बाद कॉफ़ी हाउस और बुनियादी सवाल। छपे हुए टुकड़े में अनेक परिवर्तन। कॉफ़ी हाउस में बहुत से लोग आएँ, बैठें, उठें। और फिर वहीं से बिमल और उसके साथियों की एक टोली शाम को शराब का प्रोग्राम बनाए। और उसके बाद वेश्यालय का ? क्यों नहीं ! और उपन्यास का अन्त बिमल की घर वापसी पर। भाभी से उसकी भेंट हो या न हो ?
बिमल का जो हिस्सा लिखा पड़ा है उसे कुछ और लम्बाई दे कर अलग से भी छापा जा सकता है। लेकिन नहीं, इस लोभ को दबाना होगा।
कल रात पार्टी ने मूड और पेट ख़राब कर दिया। आज लिखने का मन हो रहा है न लिखने के बारे में सोचने का। पॉट्स्डैम से केल्सी की चिट्ठी कुछ प्रेशान कुन।
मुझे हिमालय की किसी ग़ार में जा बैठना चाहिए।
रात पार्टी में हावर्ड निमरॉव और जे.वी. कनिंघम खूब खुश नज़र आए। खुश तो मैं भी था।
आज फिर बुरी तरह रुका हुआ हूँ। सुबह से सर पटख़ रहा हूँ। शायद सूख गया हूँ। तो क्या हुआ ! रोने चिल्लाने से हरा तो नहीं हो जाऊँगा ? कुछ हो नहीं रहा। हो जाता या हो रहा होता तो क्या हो जाता ! कमर टूट चुकी है। तो क्या हुआ ! आत्मा तो अमर है ! सब परेशान हैं ! दुखी हूँ। सब दुखी हैं। हम पैदा होते हैं, कुछ बरस जैसे तैसे ज़िन्दा रहते हैं, दुख सहते हैं, मर जाते हैं। मरने के बाद जो होता है या नहीं होता उसकी चिन्ता या कल्पना बेकार है। दूसरे लफ़्ज़ों में मैं साधु होता जा रहा हूँ। सीधा साधु, लेकिन असल में यह शिकस्त की अलामत है, उसी की आवाज है।
रात स्वप्नों में घोड़े दौड़ते रहे।
पिछले दो दिनों के दौरान कुछ नहीं हुआ। मिलिसेन्ट बेल के घर एक पार्टी थी। वहाँ बहुत पी और वापसी के दौरान कार के हादसे का ख़तरा बना रहा। अब परेशान हो रहा हूँ कि इतनी ज़्यादा क्यों पी ली।
वापस वहाँ चले जाने का ख़्याल आने और सताने लगा है। अभी से। वहाँ चले जाने से भी मेरी बेचैनी तो दूर नहीं होगी। न हो लेकिन यहाँ जैसी अजनबियत तो वहाँ नहीं होगी। यहाँ बैठ लिखना चाहता था और वह हो नहीं रहा। लेकिन अभी यहाँ आए दो साल ही तो हुए हैं। जाऊँ तो जाऊँ कहाँ !
कल फिर डेन्टिस्ट के पास गया। वह एक दाँत और निकाल देने की धमकी दे रहा है आज से आठ दस साल पहले हार्वर्ड में था तब भी डेन्टिस्ट के पास जाया करता था। तब भी यह यही धमकी दिया करता था। डाक्टर लीच ! जैसा नाम वैसा काम !
आज लिखने की ख़्वाहिश है और न लिखने की ख़्वाहिश भी। जब यहाँ की धूप में मुझे वहाँ की धूप दिखाई दे जाती है तो मैं हिलने लगता हूँ।
मैं किस अर्थ में हिन्दुस्तानी हिन्दू हूँ ? यह फ़ैसला करना क्या ज़रूरी है ? लेखक का कोई दीन ईमान नहीं होता। नहीं होना चाहिए। कलाकार अपना वतन अपने अन्दर बनाते हैं। अपना मन्दिर भी।
हेनरी मिल्लर को पढ़ रहा हूँ। जिस बेबाकी और खूबसूरती से उसने अपना परदाफ़ाश किया है बहुत कम लोगों ने किया है। दयानतदारी और दिलेरी की हद। और जुबान का बेमिसाल बहाव। अतिभावुकता और लफ़्फ़ाजी के बावजूद बला की खूबसूरती, फक्कड़ खूबसूरती, सेक्स और भूख के नक्शे। अव्वल दर्जे का ह्यूमर। बेशुमार मामूली लोगों के अविस्मरणीय ख़ाके। बैकिट मिल्लर से अधिक गहरा। और बुनियादी। बुद्ध !
यह फ़िक़रा ख़त्म करने के बाद नीचे गया तो बैकिट का एक कार्ड मिला जिसकी प्रतीक्षा कई दिनों से थी। मैंने वेटिंग फ़ॉर गॉडो (Waiting far Godot) और एन्डगेम (Endgame) का अनुवाद हिन्दी में करने के लिए उन से इजाज़त माँगी थी।
संयोग पर आश्चर्य स्वाभाविक है।
एक ख़त इसी डाक में अनाइस नीन का भी था। उस से मेरी लम्बी बातचीत के बारे में। अनाइस अब हैरान हो रही है कि उस बातचीत में वह कैसे वह सब कुछ कह गई जो उसने कहा। हुआ दरअसल यह है कि अब वह अपनी सफलता पर इतनी खुश है कि वह नहीं चाहती कि उसकी यह छवि सामने आए जो मेरे साथ बुई बातचीत से बनती है। मुझे ख़त से कोई ख़फ़गी नहीं हुई।
कल रात हैरी लेविन के घर एक बड़ी कॉक्टेल पार्टी थी। बहुत से जाने माने लोग वहाँ मिले। हार्वर्ड के कुछ और अपने पुराने प्रोफ़ेसर भी।
इतवार है। दफ़्तर में अकेला हूँ। खिड़की के बाहर ब्रोन्डाइज़ की सुर्ख़ ईंटों पर धूप की चादर बिछी हुई है। क़लम घर भूल आया हूँ, वह क़लम जिस से काम करता हूँ। बहुत से परचे जांचने बाक़ी हैं। कल रात कई ख़्वाब आए। पुराने दोस्तों और पुरानी बातों के बारे में। बुढ़ापे की तरफ़ बढ़ रहा हूँ। अभी से। मैं उन लोगों में से हूँ जो छोटे कामों में दिलचस्पी नहीं ले पाते और बड़े काम कर नहीं पाते। इसीलिए वे अकुलाते रहते हैं। उम्र भर। और मरने के बाद दोज़ख़ में चले जाते हैं-दान्ते के दोज़ख़ में।
कल चम्पा के साथ स्ट्रिन्डबर्ग का नाटक, दि फ़ादर, देखने लोएब (Loeb) ड्रामा सेन्टर गये। बहुत कम लोग थे लेकिन अभिनय देख दिल दहल गया।
आज बसन्त की छुट्टियों का आख़िरी दिन है। रचना दो महीनों के लिए दिल्ली जाना चाहती है।
मैं फिर उखड़ा हुआ हूँ। बार-बार वही सवाल : यहाँ रहूँ या नहीं ?
रिसर्च करने की ख़्वाहिश बिल्कुल नहीं होती। सिर्फ़ लिखना चाहता हूँ। वह भी हिन्दी में। उसके लिए यहाँ रहते चले जाना क्या ज़रूरी है ? अभी से इस सवाल ने सालना शुरू कर दिया है। क्यों ? अब लौटना भी आसान नहीं। वहाँ नौकरी ढूँढ़ने की ज़हमत ! इसलिए वहाँ से दूरी के दर्द को दबाकर रखना चाहिए।
बारिश हो रही है। बिजली चमक और कड़क रही है। मैं दफ़्तर में बैठा इलहाम का इन्तज़ार कर रहा हूँ। कई दिनों से टूटा और बिखरा हुआ हूँ। घबराहट का आलम है। कई बार मन को यह अन्देशा हिला देता है कि किसी दिन कहीं बैठा बैठा बेहोश हो जाऊँगा, उसी तरह जैसे दो साल पहले हार्वर्ड की लेमॉन्ट लायब्रेरी के पोयटरी रूम में वेटिंग फ़ार गॉडो का रिकार्ड सुनते-सुनते बेहोश हो गया था, और बेहोशी के आलम में ही अस्पताल ले जाया गया था, अजनबियों द्वारा।
यहाँ और वहाँ की कशमकश है, हमेशा रहेगी। शाम की वीरानी है, हमेशा रहेगी। ऊब है, हमेशा रहेगी। बुनियादी सवाल हैं, हमेशा रहेंगे। बेचैनी है, बेक़रारी है, तड़प है, कमज़ोरियाँ हैं-हमेशा रहेंगी।
उसका बचपन लिख लेने के बाद मेरे व्यक्तित्व में एक विशेष प्रकार की मज़बूती-सी आ गई थी, महसूस हुआ था जैसे मैंने वह उपन्यास लिखकर अपने सर पर सवार किसी भूत को उतार दिया हो, अपने भीतर भरे कर्कश शोर को कच्चे से संगीत में बदल दिया हो, अपनी काली स्मृतियों में से अपनी कला-कल्पना के लिए कुछ निकाल लिया हो। अब अगर यहाँ रहते हुए बिमल और रात लिख सकूँ तो शायद उस मजबूती में कुछ इज़ाफ़ा हो, उस संगीत में कुछ परिपक्वता आए, उन स्मृतियों में से कुछ और निकले।
बिमल के लिखे जा चुके टुकड़ों को पढ़ने में जो आनन्द आता है उससे कुछ आश्वस्त होता हूँ। अपने जैसे एक उखड़े और ऊबे हुए नौजवान की चेतना की तसवीर सींचने या बनाने की कोशिश कर रहा हूँ, उसी के चेतना-प्रवाह के माध्यम से। यार लोग जेम्ज़ जायस की नक़ल का इलज़ाम लगाएँगे। लगाते रहें। मैं जायस की ईजाद की हुई या निखारी हुई एक तकनीक का इस्तेमाल अपने तरीक़े से, अपनी नज़र और नस्र को यथार्थवादी रूढ़ियों के अंकुश से आज़ाद करने के लिए कर रहा हूँ। उसी तरह जैसे कई और उपन्यासकारों ने किया है-फ़ाकनर याद आ रहा है।
रात में उन खुफिया खौफों से दो-चार होना चाहता हूँ। जो भीतर न जाने कहाँ कहाँ दबे पड़े हैं और तरह-तरह के रूप ले कर दुःस्वप्नों में दिखाई देते रहते हैं।
बैकिट में मुझे कभी-कभी बृद्ध दिखाई दे जाते हैं।
दहशत, दुःख, दर्द, ऊब-इन सबकी निर्मम नक़्काशी मेरा काम।
एक ख़्वाब।
मैं एक मैदान में हूँ जिसमें बहुत-सी झाँड़ियाँ हैं। कुछ लोग कहीं से मुझ पर गोले बरसा रहे हैं लेकिन वे गोले फटते नहीं। मैं अकेला हूँ, वे लोग न जाने कितने हैं। उनमें से दो या तीन अब मुझे एक टीले पर खड़े दिखाई देते हैं। मैं एक भुरभुरा-सा डंडा उठाकर एक बड़े से बन्द दरवाजे के सामने जा खड़ा होता हूँ। दरवाजे के उस तरफ़ वही लोग खड़े हैं। उनके पाँव मुझे दिखाई देते हैं। मैं झुककर दरवाज़े के नीचे से वह डंडा उनके टखनों पर मारने की कोशिश करता हूँ तो दरवाज़ा खुल जाता है और मैं अपने आपको एक अजनबी आदमी के सामने खड़ा पाता हूँ।
बॉस्टन में हो रही अमेरिकन एसोशिएशन ऑफ एशियन स्टडीज़ (American Association of Asian Studies) की सालाना कॉन्फ्रेंस में रामानुजन, बॉनी क्राउन, एड डिमॉक से बहुत सालों बाद मुलाक़ात हुई। रामानुजन से बहुत बातें हुईं। एक शाम उसने हमारे साथ हमारे घर में भी गुज़ारी।
आज दफ्तर में बैठे कुछ काम किया। दफ़्तर में बैठ काम करने की आदत मुझे नहीं लेकिन यहाँ घर में जगह कम है, क्योंकि यहाँ ब्रोन्डाइज़ में मैं सिर्फ़ एक साल के लिए हूँ, इसलिए छोटा सा मकान ही किराए पर मिला है। दफ़्तर काफ़ी बड़ा है। लेकिन यह सब क्यों दर्ज कर रहा हूँ ? अपनी रचनाओं में ऐसी तफ़सीलता से बचता हूँ तो यहाँ उनका क्या काम !
इन थोड़ी सी छुट्टियों में बिमल का एक हिस्सा ख़त्म किया जा सकता है, गर्मियों की छुट्टियों में सारा उपन्यास।
बिमल के तीन हिस्से हों, पहला हिन्दुस्तान में, दूसरा अमरीका में, तीसरा फिर हिन्दुस्तान में।
यह अभी तय नहीं हुआ। हो सकता है सारा उपन्यास हिन्दुस्तान तक ही सीमित रहे। दिल्ली तक।
यथार्थवादी फैलाव से बचना चाहता हूँ।
अभी पूरी सफ़ाई नहीं आई। बिमल को उसका बचपन के वीरू से अलग रखना चाहता हूँ क्योंकि वीरू और देवी को लेकर एक और उपन्यास लिखने का धुंधला-सा इरादा है। बिमल का परिवार दूसरी क़िस्म का होना चाहिए। यह भी हो सकता है कि परिवार के पचड़े में पड़ूँ ही नहीं। हो सकता है परिवार की तरफ़ कुछ संकेत ही काफ़ी हों। बिमल को लेखक भी बनाऊँ या सिर्फ़ शिक्षक। बिमल में कहानी क्या हो ? हो भी या नहीं ? अभी तक जो लिखा है उसमें कहानी लापता है। क्यों न उसे लापता ही रहने दूँ ?
अभी तक तो यही साफ़ हुआ है कि सुबह सवेरे पकड़ा जाए, उसके बिस्तर में या उसके घर की छत पर। ‘समाधि’ का इस्तेमाल करूँगा, तब्दीलियों के साथ। घर के शोरगुल को उसमें सुनाया जा सकता है। उसकी शादी कर डालने की मुहिम का ज़िक्र हो, पिता के साथ उसकी टक्कर का भी। फिर बिमल को घर से निकाल कर पान की दुकान पर खड़े दिखाया जाए। जाएँ तो जाएँ कहाँ । बिमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ ! पान वाले की ज़रूरत है ? क्यों नहीं ! बिमल के अलावा भी कुछ पात्र होने चाहिए इस उपन्यास में ! बिमल किसी कॉलिज में पढ़ाता है। कैसे कॉलिज में ? उपन्यास का दूसरा हिस्सा उस कॉलेज के स्टाफ़ रूम में हो। तीसरा ? शहर शवयात्रा। कॉलिज की झलक कॉलिज के बारे में सोच से भी दी जा सकती है। शहर यात्रा के दौरान शहर-यात्रा में दिल्ली की तस्वीर। तस्वीरें। बिमल की भटकन। बेमक़सदी। शहरयात्रा का अन्त सुधीर से मुलाक़ात के बाद। सुधीर से मुलाक़ात के दौरान बिमल का पोलीटिकल पक्ष। मुंशी भवन में लेखकों की मीटिंग। उसके बाद कॉफ़ी हाउस और बुनियादी सवाल। छपे हुए टुकड़े में अनेक परिवर्तन। कॉफ़ी हाउस में बहुत से लोग आएँ, बैठें, उठें। और फिर वहीं से बिमल और उसके साथियों की एक टोली शाम को शराब का प्रोग्राम बनाए। और उसके बाद वेश्यालय का ? क्यों नहीं ! और उपन्यास का अन्त बिमल की घर वापसी पर। भाभी से उसकी भेंट हो या न हो ?
बिमल का जो हिस्सा लिखा पड़ा है उसे कुछ और लम्बाई दे कर अलग से भी छापा जा सकता है। लेकिन नहीं, इस लोभ को दबाना होगा।
कल रात पार्टी ने मूड और पेट ख़राब कर दिया। आज लिखने का मन हो रहा है न लिखने के बारे में सोचने का। पॉट्स्डैम से केल्सी की चिट्ठी कुछ प्रेशान कुन।
मुझे हिमालय की किसी ग़ार में जा बैठना चाहिए।
रात पार्टी में हावर्ड निमरॉव और जे.वी. कनिंघम खूब खुश नज़र आए। खुश तो मैं भी था।
आज फिर बुरी तरह रुका हुआ हूँ। सुबह से सर पटख़ रहा हूँ। शायद सूख गया हूँ। तो क्या हुआ ! रोने चिल्लाने से हरा तो नहीं हो जाऊँगा ? कुछ हो नहीं रहा। हो जाता या हो रहा होता तो क्या हो जाता ! कमर टूट चुकी है। तो क्या हुआ ! आत्मा तो अमर है ! सब परेशान हैं ! दुखी हूँ। सब दुखी हैं। हम पैदा होते हैं, कुछ बरस जैसे तैसे ज़िन्दा रहते हैं, दुख सहते हैं, मर जाते हैं। मरने के बाद जो होता है या नहीं होता उसकी चिन्ता या कल्पना बेकार है। दूसरे लफ़्ज़ों में मैं साधु होता जा रहा हूँ। सीधा साधु, लेकिन असल में यह शिकस्त की अलामत है, उसी की आवाज है।
रात स्वप्नों में घोड़े दौड़ते रहे।
पिछले दो दिनों के दौरान कुछ नहीं हुआ। मिलिसेन्ट बेल के घर एक पार्टी थी। वहाँ बहुत पी और वापसी के दौरान कार के हादसे का ख़तरा बना रहा। अब परेशान हो रहा हूँ कि इतनी ज़्यादा क्यों पी ली।
वापस वहाँ चले जाने का ख़्याल आने और सताने लगा है। अभी से। वहाँ चले जाने से भी मेरी बेचैनी तो दूर नहीं होगी। न हो लेकिन यहाँ जैसी अजनबियत तो वहाँ नहीं होगी। यहाँ बैठ लिखना चाहता था और वह हो नहीं रहा। लेकिन अभी यहाँ आए दो साल ही तो हुए हैं। जाऊँ तो जाऊँ कहाँ !
कल फिर डेन्टिस्ट के पास गया। वह एक दाँत और निकाल देने की धमकी दे रहा है आज से आठ दस साल पहले हार्वर्ड में था तब भी डेन्टिस्ट के पास जाया करता था। तब भी यह यही धमकी दिया करता था। डाक्टर लीच ! जैसा नाम वैसा काम !
आज लिखने की ख़्वाहिश है और न लिखने की ख़्वाहिश भी। जब यहाँ की धूप में मुझे वहाँ की धूप दिखाई दे जाती है तो मैं हिलने लगता हूँ।
मैं किस अर्थ में हिन्दुस्तानी हिन्दू हूँ ? यह फ़ैसला करना क्या ज़रूरी है ? लेखक का कोई दीन ईमान नहीं होता। नहीं होना चाहिए। कलाकार अपना वतन अपने अन्दर बनाते हैं। अपना मन्दिर भी।
हेनरी मिल्लर को पढ़ रहा हूँ। जिस बेबाकी और खूबसूरती से उसने अपना परदाफ़ाश किया है बहुत कम लोगों ने किया है। दयानतदारी और दिलेरी की हद। और जुबान का बेमिसाल बहाव। अतिभावुकता और लफ़्फ़ाजी के बावजूद बला की खूबसूरती, फक्कड़ खूबसूरती, सेक्स और भूख के नक्शे। अव्वल दर्जे का ह्यूमर। बेशुमार मामूली लोगों के अविस्मरणीय ख़ाके। बैकिट मिल्लर से अधिक गहरा। और बुनियादी। बुद्ध !
यह फ़िक़रा ख़त्म करने के बाद नीचे गया तो बैकिट का एक कार्ड मिला जिसकी प्रतीक्षा कई दिनों से थी। मैंने वेटिंग फ़ॉर गॉडो (Waiting far Godot) और एन्डगेम (Endgame) का अनुवाद हिन्दी में करने के लिए उन से इजाज़त माँगी थी।
संयोग पर आश्चर्य स्वाभाविक है।
एक ख़त इसी डाक में अनाइस नीन का भी था। उस से मेरी लम्बी बातचीत के बारे में। अनाइस अब हैरान हो रही है कि उस बातचीत में वह कैसे वह सब कुछ कह गई जो उसने कहा। हुआ दरअसल यह है कि अब वह अपनी सफलता पर इतनी खुश है कि वह नहीं चाहती कि उसकी यह छवि सामने आए जो मेरे साथ बुई बातचीत से बनती है। मुझे ख़त से कोई ख़फ़गी नहीं हुई।
कल रात हैरी लेविन के घर एक बड़ी कॉक्टेल पार्टी थी। बहुत से जाने माने लोग वहाँ मिले। हार्वर्ड के कुछ और अपने पुराने प्रोफ़ेसर भी।
इतवार है। दफ़्तर में अकेला हूँ। खिड़की के बाहर ब्रोन्डाइज़ की सुर्ख़ ईंटों पर धूप की चादर बिछी हुई है। क़लम घर भूल आया हूँ, वह क़लम जिस से काम करता हूँ। बहुत से परचे जांचने बाक़ी हैं। कल रात कई ख़्वाब आए। पुराने दोस्तों और पुरानी बातों के बारे में। बुढ़ापे की तरफ़ बढ़ रहा हूँ। अभी से। मैं उन लोगों में से हूँ जो छोटे कामों में दिलचस्पी नहीं ले पाते और बड़े काम कर नहीं पाते। इसीलिए वे अकुलाते रहते हैं। उम्र भर। और मरने के बाद दोज़ख़ में चले जाते हैं-दान्ते के दोज़ख़ में।
कल चम्पा के साथ स्ट्रिन्डबर्ग का नाटक, दि फ़ादर, देखने लोएब (Loeb) ड्रामा सेन्टर गये। बहुत कम लोग थे लेकिन अभिनय देख दिल दहल गया।
आज बसन्त की छुट्टियों का आख़िरी दिन है। रचना दो महीनों के लिए दिल्ली जाना चाहती है।
मैं फिर उखड़ा हुआ हूँ। बार-बार वही सवाल : यहाँ रहूँ या नहीं ?
रिसर्च करने की ख़्वाहिश बिल्कुल नहीं होती। सिर्फ़ लिखना चाहता हूँ। वह भी हिन्दी में। उसके लिए यहाँ रहते चले जाना क्या ज़रूरी है ? अभी से इस सवाल ने सालना शुरू कर दिया है। क्यों ? अब लौटना भी आसान नहीं। वहाँ नौकरी ढूँढ़ने की ज़हमत ! इसलिए वहाँ से दूरी के दर्द को दबाकर रखना चाहिए।
बारिश हो रही है। बिजली चमक और कड़क रही है। मैं दफ़्तर में बैठा इलहाम का इन्तज़ार कर रहा हूँ। कई दिनों से टूटा और बिखरा हुआ हूँ। घबराहट का आलम है। कई बार मन को यह अन्देशा हिला देता है कि किसी दिन कहीं बैठा बैठा बेहोश हो जाऊँगा, उसी तरह जैसे दो साल पहले हार्वर्ड की लेमॉन्ट लायब्रेरी के पोयटरी रूम में वेटिंग फ़ार गॉडो का रिकार्ड सुनते-सुनते बेहोश हो गया था, और बेहोशी के आलम में ही अस्पताल ले जाया गया था, अजनबियों द्वारा।
यहाँ और वहाँ की कशमकश है, हमेशा रहेगी। शाम की वीरानी है, हमेशा रहेगी। ऊब है, हमेशा रहेगी। बुनियादी सवाल हैं, हमेशा रहेंगे। बेचैनी है, बेक़रारी है, तड़प है, कमज़ोरियाँ हैं-हमेशा रहेंगी।
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