अतिरिक्त >> खेती की धुन खेती की धुनसुखदेव सिंह सेंगर
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रामदास के दो बेटे थे—कालू और लालू। दोनों पढ़ने में तेज थे। कालू ने एम.ए. पास कर लिया। लालू बी.ए. कर रहा था।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
खेती की धुन
रामदास के दो बेटे थे—कालू और लालू। दोनों पढ़ने में तेज थे।
कालू ने एम.ए. पास कर लिया। लालू बी.ए. कर रहा था।
कालू पढ-लिख क्या गया कि बेकार हो गया। नौकरी मिली नहीं। दो साल हो गये। घर का काम-काज भी नहीं करता कि बाप को कुछ सहारा दे। रामदास कालू की हालत पर दुखी रहते कि कैसे गुजर होगी इसकी ? अरे ! नौकरी नहीं मिलती, तो घर में इतनी खेती है । गाय है, भैंस है। खूब दूध पिए और खेती देखे। रामदास बहुत माथा-पच्ची करते, परन्तु हल कोई नहीं सूझता।
एक बार रामदास को बुखार आ गया। सो बेचारे खटिया पकड़ गये। एक हफ्ता हो गया। हल-बखर बंद। बैल बेचारे भूखे-प्यासे बंधे रहते। यह देख लालू ने कालेज जाना छोड़ दिया। बैलों को सानी देना। छोरना-बाँधना। गोबर समेटना। साफ-सफाई हाथ में ले ली और कालू का वही हाल कि, शाम को निकला और रात कब दबे पाँव घर में घुसे, पता नहीं चलता।
एक दिन कालू गांव में घूमते हुए पंडित रामचरण के पास से गुजरा। पंडित जी ने कालू को अपने पास बुलाया औऱ पिताजी की तबियत के बारे में पूछा—‘‘कैसे हैं तेरे पिता जी ? सुना था बीमार हैं।’’
‘‘वैसें ही हैं पंडित जी। दवा ले रहे हैं। अभी कोई फायदा नहीं हो रहा है। आठ दिन से बुखार आ रहा है।’’ कालू उदास स्वर में बोला।
‘‘ठीक हो जायेंगे। धीरज रखो, बूढ़े हाड़ हैं। अब पहले जैसी सहनशीलता भी नहीं’’ कहते हुए पंडित जी ने बात बदली—‘पिताजी की सेवा तो कर रहे हो न बरखुरदार।
‘‘हां आं..., कहते हुए कालू झपका फिर बोला—वो सेवा क्या, पानी-वानी मां दे देती है और दवा लालू खिला देता है।’’
‘‘और तुम जवान हो। एम.ए. पास कर लिया। तुम निठल्ले बैठकर क्या करते हो ?’’ पंडित जी ने अधिकार पूर्वक पूछा।
कालू चुप रहा। पंडित जी ने फिर कुरेदा पर कालू टस से मस न हुआ। तब पंडित जी शिक्षा-संदेश के लहजे में बोले, ‘‘बेटा ! अब पिताजी तो बूढ़े हो गये।
कालू पढ-लिख क्या गया कि बेकार हो गया। नौकरी मिली नहीं। दो साल हो गये। घर का काम-काज भी नहीं करता कि बाप को कुछ सहारा दे। रामदास कालू की हालत पर दुखी रहते कि कैसे गुजर होगी इसकी ? अरे ! नौकरी नहीं मिलती, तो घर में इतनी खेती है । गाय है, भैंस है। खूब दूध पिए और खेती देखे। रामदास बहुत माथा-पच्ची करते, परन्तु हल कोई नहीं सूझता।
एक बार रामदास को बुखार आ गया। सो बेचारे खटिया पकड़ गये। एक हफ्ता हो गया। हल-बखर बंद। बैल बेचारे भूखे-प्यासे बंधे रहते। यह देख लालू ने कालेज जाना छोड़ दिया। बैलों को सानी देना। छोरना-बाँधना। गोबर समेटना। साफ-सफाई हाथ में ले ली और कालू का वही हाल कि, शाम को निकला और रात कब दबे पाँव घर में घुसे, पता नहीं चलता।
एक दिन कालू गांव में घूमते हुए पंडित रामचरण के पास से गुजरा। पंडित जी ने कालू को अपने पास बुलाया औऱ पिताजी की तबियत के बारे में पूछा—‘‘कैसे हैं तेरे पिता जी ? सुना था बीमार हैं।’’
‘‘वैसें ही हैं पंडित जी। दवा ले रहे हैं। अभी कोई फायदा नहीं हो रहा है। आठ दिन से बुखार आ रहा है।’’ कालू उदास स्वर में बोला।
‘‘ठीक हो जायेंगे। धीरज रखो, बूढ़े हाड़ हैं। अब पहले जैसी सहनशीलता भी नहीं’’ कहते हुए पंडित जी ने बात बदली—‘पिताजी की सेवा तो कर रहे हो न बरखुरदार।
‘‘हां आं..., कहते हुए कालू झपका फिर बोला—वो सेवा क्या, पानी-वानी मां दे देती है और दवा लालू खिला देता है।’’
‘‘और तुम जवान हो। एम.ए. पास कर लिया। तुम निठल्ले बैठकर क्या करते हो ?’’ पंडित जी ने अधिकार पूर्वक पूछा।
कालू चुप रहा। पंडित जी ने फिर कुरेदा पर कालू टस से मस न हुआ। तब पंडित जी शिक्षा-संदेश के लहजे में बोले, ‘‘बेटा ! अब पिताजी तो बूढ़े हो गये।
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