नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
[नेपथ्य में]
चक्रवाक वधू! अपने सहचर को बुला ले। रात होने वाली है।
शकुन्तला : (घबराकर) पुरुराज! जान पड़ता है कि मेरे शरीर की दशा जानने के लिए आर्या गौतमी स्वयं इधर ही आ रही हैं। इसलिए आप उस वृक्ष की ओट में हो जाइए।
राजा : अच्छा। (यह कहकर छिप जाता है।)
[उसके बाद हाथ में एक पात्र लिये हुए गौतमी और दोनों सखियों का प्रवेश।]
सखियां : आर्या गौतमी! इधर आइये। इधर को आइये।
गौतमी : (शकुन्तला के सनीप पहुंचकर।) वत्से! क्या तुम्हारे अंगों का संताप अब कुछ कम हुआ?
शकुन्तला : आर्ये! हां, अब कुछ कम है।
गौतमी : (शकुन्तला के सिर पर कुशा का जल छिड़ककर फिर कहती है-) लो, इस कुशोदक से अब तुम्हारा शरीर स्वस्थ हो जायेगा। वत्से! उठो, चलो, अब दिन ढल गया है। आओ, अब कुटिया में चलते हैं।
[सब जाते हैं।]
शकुन्तला : (जाते हुए मन-ही-मन) अरे मन! जब तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करने के लिए तुम्हारा प्रिय तुम्हारे समीप था तब तो तुम अपनी कातरता छोड़ नहीं पाये। अब पछताते हुए बिछुड़ जाने पर क्यों इतना संताप कर रहे हो? (कुछ पग चलकर फिर खड़ी होती है और प्रकट में कहती है) हे सन्ताप हरने वाले लतापुंज! मैं तुम्हें फिर निमन्त्रण दिये जाती हूं।
[इस प्रकार दुःख के साथ शकुन्तला का अपनी सखियों के साथ प्रस्थान।]
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