नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
|
2 पाठकों को प्रिय 333 पाठक हैं |
विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
अनसूया : इस समय अतिथि विशेष के आ जाने से तपस्या सफल ही समझिए। (शकुन्तला से कहती है।) शकुन्तला! जाओ, कुटी में जाकर कुछ फल-फूल के साथ अर्ध्य ले आओ। चरण धोने के लिए जल तो यहीं प्राप्त है।
राजा : मेरा अतिथि-सत्कार तो आपकी मीठी-मीठी बातों से ही हो गया है।
प्रियंवदा : आर्य! तो चलिए, घनी छाया वाले सप्तवर्णी वन के तले जो शीतल
चबूतरा है, वहां चलकर बैठिए। वहीं विश्राम करिए।
राजा : आप भी तो सब काम करते-करते थक गई होंगी।
प्रियंवदा : शकुन्तला! अब हमें अतिथि की बात तो रखनी ही होगी आओ, यहां बैठकर विश्राम करें।
[इस प्रकार सब बैठ जाती हैं।]
शकुन्तला : (मन-ही-मन) इस व्यक्ति को देखकर न जाने मेरे मन में क्यों एक प्रकार की उथल-पुथल-सी हो रही है। यह तो तपोवन वासियों के मन में नहीं होना चाहिए।
राजा : (सबको देखकर) आप लोग सब एक ही अवस्था वाली और एक समान रमणीय रूप वाली हैं। आप लोगों का परस्पर प्रेम बड़ा ही मनोहारी लगता है।
प्रियंवदा : (धीरे-से) अनसूया! यह चतुर और गम्भीर-सा दिखाई देने वाला व्यक्ति तो बड़ा प्रिय बोलने वाला है। यह संभवतया कोई प्रभावशाली पुरुष ही है।
अनसूया : (प्रियंवदा से धीरे से) सखी! मुझे भी जानने की बड़ी उत्कंठा है। चलो इन्हीं से पूछें।
[प्रकट में]
आर्य, आपकी मीठी बातों से हमारा आपमें जो विश्वास उत्पन्न हो गया है वह हमें आपसे यह पूछने को विवश कर रहा है कि आर्य ने किस राजवंश को सुशोभित किया है? किस देश की प्रजा को अपने विरह से व्याकुल करके आर्य यहां पधारे हैं और ऐसा कौन-सा काम आ पड़ा है, जिसने आपके इस सुकुमार शरीर को इस तपोवन तक लाने का कष्ट दिया है?
शकुन्तला : (मन-ही-मन) अरे हृदय! इतना उतावला मत बन। अनसूया तुम्हारे ही मन की बात तो पूछ रही है।
राजा : (मन-ही-मन) अब अपना क्या परिचय दूं और कैसे अपने को छिपाऊं। अच्छा इनसे कहता हूं। (प्रकट में) भद्रे! पुरुराज दुष्यन्त ने मुझे अपने राज्य की धार्मिक क्रियाओं की देखभाल का काम सौंप रखा है। इसलिए मैं यह देखने के लिए आया हूं कि आश्रम में रहने वाले तपस्वियों के कार्य में किसी प्रकार का कोई विघ्न तो नहीं पड़ता?
अनसूया : आर्य! धर्मक्रिया करने वाले लोगों पर आपने बड़ी कृपा की है।
[शकुन्तला संवरती हुई लज्जा का अभिनय करती है।]
|