नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
सखी! सचमुच इस लता और वृक्ष का मेल बड़े अच्छे दिनों में हुआ है। इधर यह 'वन ज्योत्स्ना' खिले हुए फूल लेकर नवयौवना हुई है और उधर फल से लदी हुई शाखाओं वाला वह आमवृक्ष भी अपने पूर्ण यौवन पर है।
[उसे देखती हुई खड़ी रह जाती है।]
प्रियंवदा : (मुस्कुराकर) अनसूया! तुम जानती हो कि यह शकुन्तला इस वन ज्योत्स्ना को इतनी तन्मयता से क्यों देख रही है?
अनसूया : नहीं सखी! मैं तो नहीं जानती। तू ही बता दे, यह इतनी तन्मय क्यों हो रही है।
प्रियंवदा : यह सोच रही है कि जिस प्रकार यह वन ज्योत्सना अपने योग्य वृक्ष से लिपट गई है उसी प्रकार मुझे भी मेरे योग्य वर मिल जाता तो कितना अच्छा होता।
शकुन्तला : यह तो तुमने अपने मन की बात कही है।
[घड़े के जल से पेड़ को सींचती है।]
राजा : यह ऋषि की कन्या कहीं किसी अन्य वर्ण की स्त्री से तो उत्पन्न नहीं हुई है? किन्तु संदेह किया ही क्यों जाय?
क्योंकि-
जब मेरे जैसा शुद्ध मन भी इसकी अभिलाषा करने लगा है, तब यह निश्चय है कि इस कन्या का विवाह क्षत्रिय से हो सकता है। क्योंकि सज्जनों के मन में किसी बात पर शंका हो तो जिसे उनका मन स्वीकार कर ले उसे ही ठीक मान लेना चाहिए। जो भी हो, मैं इससे ठीक-ठीक बात जानने का यत्न करता हूं।
शकुन्लता : (घबराकर) अपने शरीर पर जल के छींटे पड़ने से घबराकर उड़ने वाला यह भौंरा, इस चमेली को छोड़कर बार-बार मेरे ही मुंह पर मंडराने लगा है।
[भौंरे से पीड़ित होने का नाटक-सा करती है।]
राजा : (ललचाता हुआ-सा) सोचता है-
अरे भौंरे! तुम सचमुच बड़े भाग्यशाली हो जो तुम इसकी चंचल चितवन से देखे जाते हुए इस कांपती हुई बाला को बार-बार छूते जा रहे हो, उसके कानों के पास जाकर ऐसे धीरे-धीरे गुनगुना रहे हो, मानों बड़े भेद की बात उसको सुनाना चाहते हो। और बार-बार उसके हाथों से झटके जाने पर भी तुम उसके रस भरे अधरों का रस पीते जा रहे हो। इधर हम हैं कि उसके विषय में ठीक बात जानने की द्विविधा में ही लुट गए हैं।
शकुन्तला : अरे, यह दुष्ट तो मानता ही नहीं है। यहां से हटकर दूसरे स्थान पर जाना चाहिए।
[दूसरे स्थान पर जाकर और दृष्टि फेरकर]
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