नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
[अदिति के साथ आसन पर बैठे हुए मरीचि दिखाई देते हैं।]
मरीचि : (रजा को देखकर) दाक्षायणि! यह देखो दुष्यन्त।
ये ही वे राजा दुष्यन्त हैं जो सारे संसार का पालन करते हैं जो तुम्हारे पुत्र इन्द्र की लड़ाई में सबसे आगे रहते हैं और जिनके धनुष ने इतना काम कर डाला है कि इन्द्र का तीखी धार वाला वज्र उनका आभूषण बनकर शोभायमान हो रहा है।
अदिति : इनके डील-डौल से ही इनके पराक्रम का ज्ञान हो रहा है।
मातलि : आयुष्मन्! यह हैं देवताओं के माता-पिता। ये आपकी ओर ऐसे प्यार से देख रहे हैं जैसे माता-पिता अपने बच्चों को देखते हैं। जाओ, उनके समीप जाओ।
राजा : मातलि! ये ही वे हैं-
जो ब्रह्मा से एक पीढ़ी उपरान्त दक्ष और मरीचि से उत्पन्न हुए थे, जिन्हें ऋषि लोग बारहों आदित्यों के माता-पिता मानते हैं। यज्ञ में भाग लेने वाले इन्द्र ने जिनसे जन्म लिया है और अपने में अपने-आप उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा भी संसार का कल्याण करने के लिए जिनकी गोद में जन्म लिया करते हैं।
मातलि : और नहीं तो क्या?
[राजा पास पहुंचकर]
राजा : नित्य ही इन्द्र की आज्ञा का पालन करने वाला यह दुष्यन्त; आप दोनों को प्रणाम करता है।
मरीचि : वत्स! चिरंजीव रहो। पृथ्वी का भली प्रकार पालन कर यश अर्जन करो।
अदिति : वत्स! अप्रतिरथ बनो। तुम इतने बलवान बनो कि कोई भी शत्रु तुम्हारे सम्मुख टिकने न पाये।
शकुन्तला : मैं अपने पुत्र के साथ आप दोनों के चरणों में प्रणाम करती हूं।
मरीचि : वत्से!
तुम्हारा पति इन्द्र के समान है, तुम्हारा पुत्र जयन्त के समान है। इसलिए मैं असमंजस में हूं कि तुम्हें किस प्रकार का आशीर्वाद दूं। हां, मैं तुमको आशीर्वाद देता हूं कि तुम पौलोमी, अर्थात् इन्द्राणी के समान तेजस्वी बनो।
अदिति : बेटी! तुम अपने पति से आदर पाने वाली बनो। तुम्हारा पुत्र दीर्घायु पाकर दोनों कुलों को सुख देने वाला बने।
आओ, बैठ जाओ।
[सब प्रजापति के चारों ओर बैठ जाते हैं।]
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