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काबुलीवाला

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6152
आईएसबीएन :9788170282266

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रवीन्द्र द्वारा रचित कहानी काबुलीवाला .....

Kabulivala -A Hindi Book by Ravindranath Thakur

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

काबुलीवाला

 

सहसा मेरी पांच वर्ष की लाड़ली बेटी मिनी‘‘अगड़म बगड़म’’ का खेल छोड़कर खिड़की की तरफ भागी और ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगी, ‘‘काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले !’
मैं इस समय उपन्यास लिख रहा था। सत्रहवां अध्याय चल रहा था। नायक-नायिका, को लेकर अँधेरी रात में जेल की ऊँची खिड़की से नीचे बहती नदी के जल में कूद रहा था। घटना वहीं रुक गई।

सोचने लगा—‘‘मेरी बेटी कितनी चंचल और बातूनी है। अभी कुछ पल पहले मेरे पैरों के पास बैठी खेल रही थी कि अचानक उसे यह क्या सूझी।’’ मिनी के इस काम से मुझे अचरज तो नहीं हुआ पर परेशानी ज़रूर महसूस हुई। मैंनै सोचा, ‘‘बस अब पीट पर झोली लिये काबुलीवाला आ खड़ा होगा, मेरा सत्रहवाँ अध्याय अब पूरा नहीं हो सकता।’’
ज्यों ही काबुलीवाले ने हँस कर मुँह फेरा और मेरे घर की ओर आने लगा, त्यों ही वह घर के अन्दर भाग आयी। उसके मन में एक झूठा विश्वास था कि काबुलीवाला अपनी झोली में उसी तरह के दो-चार चुराये गए बच्चे छिपाय रहता है।

इधर काबुलीवाला आकर मुस्कराता हुआ मुझे सलाम करके खड़ा हो गया। आदमी को घर पर बुलाकर कुछ न खरीदना अच्छा नहीं लगता, इसलिए उससे कुछ खरीदा। दो-चार बातें हुईं। पता चला, उसका नाम रहमत था।
अंत में उठकर चलते समय उसने पूछा, ‘‘बाबू, तुम्हारी लड़की कहाँ गई ?’’
मैंने मिनी के डर को पूरी तरह खत्म करने के लिए उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे सट कर काबुलीवाले के चेहरे और झोली की ओर शक भरी नजर से देखती हुई खड़ी रही। कबुली उसे झोली के अंदर से कुछ सूखे मेवे निकालकर देने लगा पर वह लेने को किसी तरह राज़ी नहीं हुई। दुगने डर से मेरे घुटने से सटकर रह गई।


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