गीता प्रेस, गोरखपुर >> सत्यप्रेमी हरिश्चन्द्र सत्यप्रेमी हरिश्चन्द्रगीताप्रेस
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परमात्मा ही सत्य है। वह नित्य एकरस और अविनाशी है। सत्य में कभी परिवर्तन नहीं होता।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।।श्रीहरि:।।
सत्यप्रेमी हरिश्चन्द्र
परमात्मा ही सत्य है। वह नित्य एकरस और अविनाशी है। सत्य में कभी परिवर्तन
नहीं होता। संसार के इतिहास में इसके अनेकों दृष्टान्त हैं और ऐसे
दृष्टान्तों में सत्यनिष्ठ हरिश्चन्द्र का नाम प्रधानता से लिया जा सकता
है।
त्रेतायुग की बात है। उन दिनों अयोध्या के राजा इक्ष्वाकुवंशी हरिश्चन्द्र थे। वे सम्पूर्ण पृथ्वी के एकमात्र सम्राट थे, धर्म में उनकी सच्ची निष्ठा थी और उनकी कीर्ति तीनों लोकों में फैली हुई थी। सभी की जुबान पर हरिश्चन्द्र का नाम था, सभी उनके सद्व्यवहार, दानशीलता और सत्यनिष्ठा का लोहा मानते थे।
देवता उन पर प्रसन्न थे। उनके शासनकाल में प्रजा संतुष्ट थी, कभी अकाल नहीं पड़ता था। न कोई बीमार होता और न तो किसी की अकाल मत्यु होती। सारी प्रजा भगवान् की उपासना करती थी और अपने-अपने धर्म में तत्पर थी। सब धनी थे, शक्तिशाली थे, तपस्वी थे; परन्तु अभिमान किसी में नहीं था। राजा हरिश्चन्द्र सबको समान दृष्टि से देखते थे, सबसे समान प्रेम करते। अनेकों यज्ञ-याग करते रहते। सबसे बड़ी बात उनमें यह थी कि वे सत्य से कभी विचलित नहीं होते थे।
त्रेतायुग की बात है। उन दिनों अयोध्या के राजा इक्ष्वाकुवंशी हरिश्चन्द्र थे। वे सम्पूर्ण पृथ्वी के एकमात्र सम्राट थे, धर्म में उनकी सच्ची निष्ठा थी और उनकी कीर्ति तीनों लोकों में फैली हुई थी। सभी की जुबान पर हरिश्चन्द्र का नाम था, सभी उनके सद्व्यवहार, दानशीलता और सत्यनिष्ठा का लोहा मानते थे।
देवता उन पर प्रसन्न थे। उनके शासनकाल में प्रजा संतुष्ट थी, कभी अकाल नहीं पड़ता था। न कोई बीमार होता और न तो किसी की अकाल मत्यु होती। सारी प्रजा भगवान् की उपासना करती थी और अपने-अपने धर्म में तत्पर थी। सब धनी थे, शक्तिशाली थे, तपस्वी थे; परन्तु अभिमान किसी में नहीं था। राजा हरिश्चन्द्र सबको समान दृष्टि से देखते थे, सबसे समान प्रेम करते। अनेकों यज्ञ-याग करते रहते। सबसे बड़ी बात उनमें यह थी कि वे सत्य से कभी विचलित नहीं होते थे।
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