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भया कबीर उदास

उषा प्रियंवदा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6113
आईएसबीएन :9788126713691

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बहुत नई-सी दिखने वाली कथाभूमि पर, बहुत सहज ढंग से मानव-मन की चिरन्तन लालसाओं, कामनाओं, निराशाओं और उदासियों का अत्यन्त कुशल और समग्र अंकन...

Bhaya Kabeer Udas-A Hindi Book by Usha Priyamvada - भया कबीर उदास - उषा प्रियंवदा

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उषा प्रियम्वदा बारीक और सुथरे मनोभावों की कथाकार रही हैं, उनके पात्र न कभी ऊँचा बोलते हैं, न कभी बहुत शोर मचाते हैं, फिर भी जिन्दगी और अनुभूति की उन उँगलियों को आलोकित कर जाते हैं, जहाँ से गुजरना हर किसी के लिए उद्धाटनकारी होता है।

यह उपन्यास भी इसी अर्थ में महत्त्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने बहुत नई-सी दिखने वाली कथाभूमि पर, बहुत सहज ढंग से मानव-मन की चिरन्तन लालसाओं, कामनाओं, निराशाओं और उदासियों का अत्यन्त कुशल और समग्र अंकन किया है।

शरीर की पूर्णता-अपूर्णता का प्रश्न किसी-न-किसी स्तर पर मन और जीवन की पूर्णता के प्रश्न से भी जुड़ जाती है। यह उपन्यास शुरू से लेकर आखिर तक इसी सवाल से जूझता है कि क्या सौन्दर्य के प्रचलित मापदंड़ों और समाज की रूढ़ दृष्टि के अनुसार एक अधूरे शरीर को उन सब इच्छाओं को पालने का अधिकार है जो स्वस्थ और सम्पूर्ण देहवाली व्यक्तियों के लिए स्वाभाविक होती हैं ! उपन्यास की नायिका विदेशी भी पर अपना सहज और अल्पाकंक्षी जीवन जी रही होती है कि अचानक उसे मालूम होता है। उसे स्तन-कैंसर है और यह बीमारी अन्तत: उसके शरीर से उसके सबसे प्रिय अंग को छीन ले जाती है। लेकिन मन ! तमाम चोटों के बावजूद मन कब अधूरा होता है, वह फिर-फिर पूरा होकर मनुष्य से, जीवन से अपना हिस्सा माँगता है, अपना सुख। निश्चय ही उषा प्रियम्वदा का यह नया उपन्यास पाठकों की संवेदना एवं सोच को एक रचनात्मक आयाम प्रदान करेगा।

प्राक्कथन


अक्टूबर के उजले-उजले सुनहले दिन। हर तरफ़ रंग-ही-रंग, मे पल वृक्षों के हरे, पीले और लाल पत्ते, ओक के ताँबई किनारों पर सुनहले रंग की पट्टी और हनी लोकस्ट की पतली-पतली महीन कटाव की पत्तियाँ, हवा के चलने पर पीले वसन्ती पर्दे की तरह थरथराती, बलखाती, नीचे आ गिरती हैं।

इतने वर्षों परदेस में रहने के बाद भी उसे केवल तीन प्रकार के वृक्षों की पहचान हुई, मेप, ओक और हनी लोकस्ट, क्योंकि तीनों की पेड़ घर के पिछवाड़े मौजूद हैं। गाड़ी में बैठे-बैठे वह अपने आप से पूछती है, क्यों इस वनस्पति विज्ञान में सर खपा रही हो ?

इधर-उधर की बातों में उलझकर जो सामने है उसे टाला नहीं जा सकता।
अपने-आप से बातें करना उसकी पुरानी आदत है।
वह हिलती नहीं, रुकी हुई गाड़ी में बैठी-बैठी वह सामने ताकती रहती है। शायद अगले वर्ष-विचार को सहेजे-सहेजे वह गाड़ी-से उतरती है।

सब कुछ कितना पहचाना, फिर भी हर बार एक अजनबीपन का भास होता है।

यह सुबह है, आसपास सब कुछ जागकर अपनी दिनचर्या पकड़ रहा है, युवा नर्सें छोटे-छोटे समूहों में, हर उम्र के डॉक्टर अपनी यूनीफॉर्म में; सभी अस्पताल के बड़े-बड़े दरवाज़ों में प्रवेश कर लोप होते जा रहे हैं।

इतनी सुबह मरीज़ों का ताँता नहीं है। उनकी भीड़ तो आठ-नौ बजे के बाद होगी।
बाहर उष्ण धूप है, पर यह कमरा ठंड़ा है; मशीनों के कारण तापमान नीचे ही रक्खा जाता है। अस्पताल चिकना गाउन पहनाकर उसे बैठा दिया गया है, वह डॉक्टर की प्रतीक्षा में है। एकाएक वह काँपने लगती है, कमरे की ठंड से ? या अपने अन्दर उमड़ते हुए आतंक से ? वह कुर्सी के हत्थे कसकर पकड़ लेती है।

कुछ नहीं निकलेगा- वह बुदबुदा रही है- डॉ. जैक़री ने कहा नहीं था क्या-फिर भी ऑन द सेफ़ साइड, बायौप्सी करा ही लेनी चाहिए।

दरवाज़ा खुलता है और करीब उसी की आयु की एक स्त्री सामने आकर खड़ी हो गई, ‘‘मैं डॉक्टर अंजेला हूँ, और यह मेरे असिस्टेंट, डॉ. हैदर; यह अगर सुई डालें तो आपको आपत्ति तो नहीं होगी ?’’
वह कह भी क्या सकती है ? नहीं तो कहने का विकल्प ही नहीं है।

‘‘कोई आपत्ति नहीं- ‘‘वह मन्द स्वर में कहती है। डॉ. हैदर स्वयं हिचकिचा रहे हैं; पर फिर वह उसका झीना गाउन हटा देते हैं और बिना उससे आँखें मिलाए पूछते हैं, ‘‘क्या मैं परीक्षा कर सकता हूँ ?’’

डॉक्टर हैदर का गोरा खूबसूरत चेहरा उसके वक्ष पर झुका हुआ है, उनकी लम्बी नाजुक उँगलियाँ उसे छू रही हैं-

‘‘तीन, चार और नौ बजे-’’ डॉ. अंजेला की तरफ उन्मुख होकर वह कहते हैं। अब वह उसका दायाँ स्तन उघाड़कर उसकी परीक्षा कर रहे हैं।

चार बजे ठीक रहेगा- निश्चय ही डॉ. अंजेला सीनियर डॉक्टर और गुरु हैं। डॉ. हैदर अभी रेज़िडेंट ही होंगे, तीस के बरस के।

डॉ. अंजेला बाहर चली जाती हैं; कमरे में जब डॉ, हैदर हैं और पार्टीशन के पार एक्सरे टेक्नीशियन। ‘‘सुई की चुभन महसूस होगी,’’ डॉ. हैदर मशीन पर एकाग्र दृष्टि से देख रहे हैं- ‘‘आप परेशान न हों,’’ वह सहसा उर्दू बोलने लगे हैं, ‘‘बहुत अधिक फैलने के आसार नहीं लगते। कैंसर प्रोटोकॉल के बाद आप पाँच-छह साल मज़े से जी सकती है-

‘‘धन्यवाद डॉ. हैदर,’’- वह कहना चाहती है- ‘‘मैं इतनी बूढ़ी भी नहीं हूँ,’’ पर शायद आयु के युवक को हर औरत बूढ़ी ही लगेगी, जिसकी झोली में पाँच-छह डाले जा सकते हैं।

सुई चुभती है- ‘‘उफ’’- वह कहती है, डॉ. अंजेला पार्टीशन के पीछे से प्रगट होती हैं- ‘‘गुड जॉब हैदर-’’ उनकी दृष्टि अब मरीज पर टिक गई है, ‘‘एक ही बार में काम हो गया-’’

इस क्षण से डॉ. ज़ैकरी के फ़ोन आने तक जैसे कितनी बार प्रलय हुआ, कितनी बार सृष्टि बनी लैब रिपोर्ट आने तक के तीन दिन जैसे ब्रह्मा के दिन बन गए- हज़ारों, लाखों-करोड़ों सालों जैसे वह फ़ोन के इर्द-गिर्द ही मँडराती रही है।

फ़ोन बजता है, और डॉ. जैकरी बहुत गम्भीर, बहुत उदास भाव से कहते हैं, ‘‘हाँ ! कैंसर निकला- मुझे दुख है।’’

फ़ोन पकड़े उसे अपने पर अचम्भा होता है; कहीं बहुत अन्दर से उसे मालूम था कि कैंसर तो है ही, फिर डॉ. हैदर ने भी तो पहले ही कह दिया था।

‘‘ठीक है- मैं आपके पास प्रोटोकॉल डिस्कस करने आऊँगी-’’ उसने डॉ. जैकरी से कहा।


भया कबीर उदास



ताड़ के पत्तों से बना छप्पर समुद्र-तट की आँधी बरसात से उसकी रक्षा भला क्या करेगा ? वह क्या लगातार बरसते मानसून के बादलों से बचने के लिए वहाँ आकर बैठी है ? क्या वह देख नहीं रही है कि एक-एक करके सभी वहाँ से जा चुके हैं, नारियलवाले, सैलानी, चाट-पापड़ी और चने-मुरमुरवाले। पर वह है कि एक मड़ैया में चरमराते हुए, जर्जर तख़्त पर बैठी है और एकटक समुद्र को ताक रही है। वर्षा इतनी तेज हैं कि समुद्र भी एक धुँधले पर्दें में छिप गया है। बादल भी तो बिना गर्जन-तर्जन के बरसे ही जा रहे हैं, पानी से उसके बाल, कन्धे कपड़े सब सराबोर हैं और टपक-टपककर नीचे पाँवों के पास तलैया बना रहे हैं।
उसने सोचा था कि वर्षा में अरब सागर में ऊँची लहरें उठती होंगी, इतनी उँची कि वह यात्री निवास की पथरीली दीवारों को छू लेंगी। लहरे हैं पर ग्रासकारी नहीं। कितनी छोटी-छोटी नदियाँ नालियाँ दौड़ती जा रही हैं।
समुद्र की ओर, और सबको आत्मसात करता हुआ समुद्र यहाँ से शान्त लगता है। पर होगा नहीं, लहरें धीरे-धीरे बढ़ रही होंगी तट की ओर, क्या वह उस तक पहुँच पाएँगी ? वह उस क्षण की प्रतीक्षा में है।

कितना दाह है इस शरीर में, जैसे हज़ारों बरसाते भी उसे दूर नहीं कर पाएँगी।

अतिथि निवास का चौकीदार आकर खड़ा हो गया है, पानी से बचने के लिए वह मड़ैया के दरवादे पर ठिठक गया है- ‘‘पानी तो रुकनेवाला है नहीं मैडम, मैं आपके लिए छाता ले आया हूँ- चलिए, रात हो रही है।’’

बेचारा फ्रांसिस। वह समझता है कि मैडम बारिश रुकने के इन्तजार में बैठी हैं। वैसे अन्दर-बाहर में फ़र्क ही क्या है, चाहे छाता हो या छप्पर-
वह उठकर खड़ी हो गई, फ्रांसिस तत्परता से बाहर आ गया और छाता उसके ऊपर तान दिया। निश्चय ही एक छाते से दोनों की रक्षा नहीं हो सकती।

‘‘मैं तो भीग चुकी हूँ- तुम्हें बेकार भीगने से कोई फ़ायदा नहीं- तुम चलो, मैं आती हूँ’’


फ्रांसिस असमंजस की मुद्रा में खड़ा है, अब तक उसकी कमीज़ कन्धे तक गीली ही चुकी है।

‘‘तुम जाओ, मैं आ रही हूँ,’’ जैसे यह अँगरेज़ी में कहेगी तो ज़्यादा असर पड़ेगा-

‘‘ओ.को. मैडम- मैं जाकर चाय बनाता-’’ अब फ्रांसिस आगे-आगे है, वह थोड़ा ही पीछे, वह बारबार मुड़कर तसल्ली कर लेता है कि वह आ रही है।

गीली रेत में उसके पाँव गहरे निशान छोड़ते जा रहे हैं। अधिक देर तक टिकने वाले नहीं, बरसात का वेग उन्हें जल्दी ही मिटा देगा, पर जब तक हैं, तब तक पहचान है कि वह यहाँ थी।


उसे विश्वास था कि उसके पाँव बहुत सुन्दर हैं, एकदम सुगढ़ उँगलियाँ और अँगूठे सानुपात, सुडौल, इसी स्वरति के कारण जब से आई है, रेत पर अपने निशान छोड़ती रही है।

पानी की बूँद गर्दन पर टपक रही हैं, उसने सिर को झटका दिया- तुम्हारी आँखें कितनी सुन्दर हैं; तुम्हारी हँसी कितनी मीठी सुरीली- एक स्वर कहीं से उभरता है।

और मेरे एकदम वृत्ताकार, भरे-भरे, स्वर्ण-कटोरों-से उराजे- पुर्णेन्दु जैसे....

बरामदा ख़ाली है, पर झूला हलके-हलके हिल रहा है, शायद हवा से। उसके कमरे में जाने से पहले की फ्रांसिस थक्के-के-थक्के सूखी तौलिया उठाकर सिर और बालों पर लपेट ली।

चेहरा और बाँहें अभी भी गीले हैं, पर बाक़ी सूखाना सब कमरे में ही पहुँचकर होगा।

फ्रांसिस ने दरवाज़े खोल दिए हैं और तौलिए गुसलख़ाने में पहुँचा रहा है।

कमरे में किसी कीटाणुनाशक दवाई की महक समाई हुई है। हलके-हलके खाँसते हुए वह फ्रांसिस के जाने का इन्तज़ार कर रही है। फ्रांसिस अपने पीछे दरवाज़ा हलके-से भेड़ता हुआ चला जाता है, तब भी वह कमरे के हलके-हलके प्रकाश में खिड़कियों पर रेंगती हुई पानी की धाराओं को देखती रहती है।

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