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उपन्यास >> गोद

गोद

सियारामशरण गुप्त

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6102
आईएसबीएन :9788180312069

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यह अत्यन्त रोचक उपन्यास जीवन की उच्च भावनात्मक मन:स्थिति को ऐसे प्रभावी रूप में उद्वेलित कर देता है कि पाठक का मन भी अंदर तक उद्वेलित हो उठे।

God-A Hindi Book by Siyaramsharan Gupta

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

किसी निकटस्थ की गोद ऐसी भावनात्मक, मन को रोमांचित और अन्तस के तारों को छू लेने और कुरेर देनेवाली गोद होती है, जिसकी तुलना नहीं हो सकती। गोद ममतामयी माँ की हो, स्नेहसिक्त पिता की हो, हर संकट के समय प्रश्रय देने वाले बड़े भाई की हो या स्नेहमयी भाभी की गोद में ममता और सान्तवना की अद्वितीय क्षमता होती है। गोद का यह महत्त्व अद्वितीय है, अतुलनीय है।

व्यक्ति कितना भी भटकाव में हो, अपराध कर बैठा हो, किन्तु पश्चात्ताप की भावना से जब अपने वरिष्ठ निकटस्थ की गोद में सर रख देता है और उसके सर पर स्नेहपूर्ण हाथ ही सहलावट की अनुभूति होती है तो दोनों की आंखों के भावना मिश्रित आँसुओं की धाराएँ पवित्र संगम की धारा की तरह प्रवाहित हो जाती हैं।
सियारामशरण गुप्त जी के इस उपन्यास का कथानक अनेक उतार-चढ़ाव तथा पात्रों के तरह-तरह के कृत्यों के साथ आगे बढ़ता हुआ अंत में कुछ ऐसे मुकाम पर पहुँच जाता है कि वातावरण मन को अंदर तक छू लेने वाला बन जाता है।

यह अत्यन्त रोचक उपन्यास जीवन की उच्च भावनात्मक मन:स्थिति को ऐसे प्रभावी रूप में उद्वेलित कर देता है कि पाठक का मन भी अंदर तक उद्वेलित हो उठे।


श्री

विश्वास

भैया को चौसर खेलने का बहुत शौक है। जम जाते हैं तो सात-सात आठ-आठ घंटे अक्लान्त भाव से खेलते रहते हैं। किसी श्रेष्ठ औपन्यासिक का उपन्यास भी कदाचित् किसी को इतनी देर पकड़कर बैठा नहीं सकता। यह खेल भी जीती-जागती कहानियों का आकार ही जान पड़ता है। सभी बाजियों का कथानक एक, परन्तु आनन्द प्रति वार नया। प्रत्येक बाजी की कहानी ऐसी, जो सुखान्त भी हो सकती है और दु:खान्त भी; प्रत्येक अन्तिम अध्याय के अन्तिम पृष्ठ तक अनुभवी से अनुभवी खिलाड़ी को भी परिणाम का निश्चिन्त पता नहीं लगने पाता। उसमें कहानी का चढ़ाव, चरम-परिणति और उतार आदि सब कुछ देखने को मिल जाता है। चार रंग की गोटें, सब एक दूसरे को धोखा देकर, अनेक आघात-प्रतिघातों के बीच पिटती हुई और बचती हुई एक दूसरे से आगे निकल जाना चाहती हैं। इस द्वन्द्व और अनिश्चितता के बीच में जो आनन्द मिलता है, वह अच्छी से अच्छी कहानी में ही मिल सकना सम्भव है।

भैया को खेलते देख मुझे भी यह खेल खेलने की आकांक्षा हो उठती है। अनाड़ी को पाँसा अच्छा आता है, यहाँ तक तो ठीक है। परन्तु आफत की बात है कि खेलने वाले को मुनीम भी होना चाहिए। पौ बारह पड़े नहीं और गोठ उठाकर यथास्थान रख दो; गिनकर लगाने के लिए यहाँ कोई समय नहीं। यह
झंझट मुझे नहीं आती। इसलिए पाँसा मैं फेंकता जाता हूँ और भैया चाल बताते जाते हैं,-यह गोट यहाँ रक्खो और वहाँ। मेरे जैसे अनाड़ियों का खेलना निरापद भी इसी तरह हो सकता है। जीत हो तो उसका आनन्द अपना और हार हो तो उसकी लज्जा या संकोच का भार दूसरे के ऊपर।
मेरा साहित्यिक जीवन भी इसी तरह का एक खेल है। स्वयं खेलने की अपेक्षा खेल देखना ही मुझे अधिक रुचिकर जान पड़ता है, फिर भी कभी-कभी खेलने के लिए स्वयं बैठ जाता हूँ। खिलाने वाले के विश्वास के बल पर कभी कभी मैं ऐसी जगह चल देता हूँ कि यदि मुझमें समझ होती तो ऐसा करने में मुझे थोड़ा-बड़ा संकोच तो अवश्य होता।

परन्तु मुझे कोई संकोच नहीं है। साहित्यिक-जगत के इस अपरिचित और अज्ञात पथ पर चलते हुए भी मुझे कोई संकोच नहीं है। जहाँ किसी जगह भटक जाने की आशंका होगी, वहीं, खिलाने वाले का पुण्य-संकेत मुझे उचित मार्ग दिखाकर मेरी सारी कठिनाई दूर कर देगा। इस दृढ़ विश्वास के होते हुए भी मैं अपने लक्ष्य पर न पहुँच सकूँ तो चित्त में मुझे कोई ग्लानि न होगी। इसलिए आज के दिन का यह उत्सव मैं बिना किसी संकोच के, सानन्द सम्पन्न कर रहा हूँ।

चिरगाँव फाल्गुन पूर्णिमा 1989


सियारामशरण

श्री राम

गोद
1

सबेरे की धूप का सेवन करके शोभाराम नहाने की तैयारी में था। इतने में द्वार पर एकाएक एक गाड़ी आ खड़ी हुई। पार्वती के गाड़ी से उतरने के पहिले ही शोभाराम दौड़कर वहाँ पहुँचा। झट से पैर छूते हुए उसने उन्हें सहारा देकर नीचे उतारा। आनन्द और आश्चर्य से विह्नल होकर बोला-‘‘अरे भौजी, समाचार दिये बिना कैसे आ गईं ? तुम तो काशी और अयोध्या जा रही थीं।-वंसा दिन भर न जानें कहाँ रहता है; ओ भगोला, आकर सब सामान झट-से उतार तो।’’
पार्वती ने कपड़े से मुँह बँधा हुआ। मिट्टी का एक भाण्ज स्वयं उठा लिया। उसके हाथ से उसे लेकर शोभारान ने कहा-‘‘इसमें तो बड़ा माल-टाल मालूम होता है। घबराओ मत, भगोला इसे न छुएगा। तीर्थ का सब प्रसाद तो मेरे हाथ में ही आ गया ! अब इसे कोई नहीं पा सकता। मँझले कहाँ रह गये भौजी ?’’

कुम्भ के अवसर पर भौजी के साथ शोभाराम भी प्रयाग जा रहा था, परन्तु ठीक समय पर एकाएक सरदी लग जाने के कारण वह न जा सका था और पर्व-फल लेने के लिए उत्सुक पार्वती अपने भाई की संरक्षकता में चली गई थी। उन्हीं के संबंध में पूछे जाने पर कुछ संकोच के साथ उसने कहा-‘‘चौराहे तक मुझे अच्छी तरह गाड़ी पर पहुँचा कर वे सीधे गाँव पर चले गये हैं।’’

शोभाराम की सारी प्रसन्नता एक क्षण में ही तिरोहित हो गई। क्षुब्ध होकर उसने कहा-‘‘सीधे गाँव पर चले गये हैं,-यहाँ तक दो डग और चले आते तो क्या हम लोग उन्हें यहीं पकड़कर बाँध रखते ? यहाँ तक भी उनके आने की क्या आवश्यकता थी ? प्रयाग से सीधा टिकट कटाकर तुम्हें गाड़ी में बिठा देते, तब भी तो तुम रास्ते में कहीं खो न जातीं। यदि मैं ऐसा जानता तो चाहे कुछ क्यों न होता, मैं तुम्हें इस तरह किसी दूसरे के साथ कभी जाने देता।’’

मीठी भर्त्सना के साथ पार्वती ने उत्तर दिया-‘‘कैसी बात करते हो लल्ला ! भैया के साथ कहीं जाना क्या किसी दूसरे के साथ जाना है ? वे तो यहाँ पहुँचाने के लिए आ रहे थे। मैंने ही उन्हें घर जाने के लिए कहा, तब कहीं रुके। तीर्थ से लौटकर सीधे घर जाने की विधि है। इसमें किसी को बुरा नहीं मानना चाहिए।’’

भौजी का अपने भैया के साथ भी जाना शोभाराम को रुचिकर नहीं जान पड़ा था। उनके स्नेह में से, भाई हो या बहन, किसी दूसरे का हिस्सा-बाँट उसे अनधिकार-सा प्रतीत होता था। इसलिए जब उसे यह मालूम हुआ कि उसकी भौजी उसी के अपने घर की अधिष्ठात्री है, उस पर अपने पित्रालय का अधिकार भी नगण्य है, तब उसके जी का समस्त विकार दूर हो गया। हँसकर बोला-‘‘धन्य है भौजी, तुम्हारा तीर्थ- फल; और दो डग इधर चले आने में उसके खुर घिस जाते ! यदि काशी और अयोध्या और हो आतीं तब तो कदाचित् उसका यहाँ तक आना भी न हो सकता।

हाँ, तुम बीच में से ही क्यों लौट आई ?’’
‘‘प्रयाग में आजकल ऐसी भीड़ थी कि फिर और कहीं जाने की हिम्मत किसी को नहीं पड़ी। सबकी यह सलाह हुई कि अब सीधे घर ही चलना चाहिए ।’’

‘‘तुम्हें ज्वर भी तो आ गया था ?’’
‘‘वह कुछ ऐसा नहीं। बस एक रोज रात के समय कुछ अधिक हो गया था।’’
‘‘वह कुछ नहीं था यह तो चेहरे से ही मालूम होता है। भौजी तुम तीर्थ करने गई थीं तीर्थ; कुछ हँसी-खेल न था। ज्वर आये बिना तुम्हारी तपस्या पूरी न हो सकती। परन्तु अब तो तबीयत ठीक है ?’’
पार्वती ने धीमे कण्ठ से उत्तर दिया-‘‘बुरी तो नहीं जान पड़ती। तुम्हें साथ ले चलती तो बहुत अच्छा रहता।’’
शोभाराम साथ न चलने का झूठ-मूठ का उलहना उन्हें देने ही वाला था, परन्तु अब उन्होंने बिना किया वह दोष स्वेच्छा से स्वयं अपने सिर ले लिया और उसने उन्हें इस प्रकार दु:खी देखा तब उसका मन पीड़ित हो उठा। बोला-‘‘तुम क्या करती भौजी, दादा ने ही मुझे नहीं जाने दिया था। वे मेरी मामूली दरद से ही इतने घबरा गये थे कि रामू, अब न जायें क्या होने वाला है। अब खड़ी क्यों हो, जरा आराम से बैठो। इधर-उधर क्या देख रही हो ? दादा गाँव पर गये हैं। तुम पहले से सम्मन भेज देतीं तो ठीक रहता।’’


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