कविता संग्रह >> भविष्य घट रहा है भविष्य घट रहा हैकैलाश बाजपेयी
|
6 पाठकों को प्रिय 45 पाठक हैं |
कैलाश बाजपेयी की कविताओं का नवीतम संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘भविष्य घट रहा है’ कैलाश बाजपेयी की कविताओं का नवीतम संग्रह है। साठ के
दशक में अपने पहले काव्य-संग्रह ‘संक्रान्त’ के माध्यम से कैलाश बाजपेयी
ने समाज में व्याप्त विसंगतियों पर तीखा प्रहार करते हुए अपनी खरी और
ईमानदार अभिव्यक्ति का प्रमाण प्रस्तुत किया था। तब न सिर्फ उनके
प्रतिरोधी स्वर को सराहा गया बल्कि उनके सामाजिक सरोकार भी लम्बी चर्चा का
विषय बने थे। यान्त्रिकता और मनुष्यता के बीच भासमान विद्रूप को रेखांकित
करती उनकी रचनाओं में भवितव्यता के संकेत भी विद्यमान थे। और लगता है काल
के बहाव मे बनते-बिगड़ते वे सभी घटक वर्षों पहले दीख पड़े प्रच्छन्न वलय
जैसे अब चरितार्थ हो रहे हैं। आज बेतहाशा प्रगति और सूचक- विस्फोट से आदमी
को वहाँ ला खड़ा किया है जहाँ उसने कभी आना भी नहीं चाहा था। बाहरी विघटन
सामूहिक उपचेतन को भी खण्ड-खण्ड कर गया है। कहना न होगा कि लय, ध्वनि और
व्यंजना की अर्थगरिमा से सम्पन्न कैलाश जी के इस संग्रह की कविताएँ अपने
ही बनाये औजारों से आहत, एक नितान्त अजनबी जीवन जीने के लिए अभिशप्त आज के
आदमी की सर्वहारा छटपटाहट का दस्तावेज हैं। ‘भविष्य घट रहा है’ की कविताओं
में प्रेम और शेषप्राय पारस्परिकता के बीच सोये-खोये वे रिक्त-स्थल भी
मुखर हैं जो सर्वथा नये हैं या फिर जो रोजमर्रा की जिन्दगी जीते आदमी की
पकड़ से चुपचाप छूट जाते हैं। आज की सार्थक हिन्दी कविता के पाठकों के लिए
एक विचारोत्तेजक कविता संग्रह।
भविष्य घट रहा है
कोलाहल इतना मलिन
दुःख कुछ इतना संगीन हो चुका है
मन होता है
सारा विषपान कर
चुप चला जाऊँ
ध्रुव एकान्त में
सही नहीं जाती
पृथ्वी-भर मासूम बच्चों
माँओं की बेकल चीख़।
सारे के सारे रास्ते
सिर्फ़ दूरियों का मानचित्र थे
रहा भूगोल
उसका अपना ही पुश्तैनी फ़रेब है
कल तक्षशिला आज पेशावर
इसके बाद भेद-ही-भेद
जड़ का शाखाओं से
दाहिनी भुजा का बायीं
कलाई से।
बीसवीं सदी के विशद
पटाक्षेप पर
देख रहा हूँ मैं गिर रही दीवार
पानी की
डूब रहे बड़े-बड़े नाम
कपिल के सांख्य का आख़िरी भोजपत्र
फँसा फड़फड़ा रहा-
अन्त हो रहा या शायद
पुनर्जन्म
पस्त पड़ी क्रान्ति का।
बीसवीं सदी के विशद मंच पर
खड़े जुनून भरे लोग-
जिन नगरों में जन्मे थे
उन्हीं को जला रहे
एक ओर एक लाख मील चल
गिरता हुआ अनलपिण्ड
और
दूसरी तरफ़ बुलबुला
बुलबुला
इनकार करता है पानी
कहलाने से
बडा समझदार हो गया है बुलबुला।
असल में अनिबद्ध था विकल्प
विकल्प ही भविष्य था
भविष्य पर घट रहा है।
इस क्षणभंगुर संसार में
अमरौती की तलाश भी
जा छिपी राष्ट्रसंघ के
पुस्तकालय में
देश जहाँ प्रेम की पुण्यतिथि मना रहे
ज़िक्र जब आता वंशावलि का
हरिशचन्द्र की
पारित हो लेता स्थगन प्रस्ताव
शायद सभी को
अपना भुइँतला ज्ञात है।
बहारों की नगरी में नाद बेहद का
आकाश फट रहा
एक आँखों वाले संयन्त्र पर
देख रहे बच्चे
अपनी जन्मस्थली
बेपरदा हुई मनुष्यता
भोग के प्रमाणपत्र बाँट रही
खुल रही पहेली दिन-ब-दिन
रहस्य
झिझक रहा फुटपाथ पर पड़ा
अपने पहचान-पत्र का अभाव में
दरिद्रदेवता
पूछ रहा पता
हवालात का
जहाँ उसने अपनी शिनाख़्त की
अनुपस्थिति के सबूत के अभाव में
फाँसी लगेगी...लगनी है
असल में यह अनुपस्थिति का मेला है
खत्म हुई चीज़ों की ख़रीद का विज्ञापन
युवा युवतियों को बुला रहा
कि गर्भ की गर्दिश से बचने के
कितने नये ढंग अपना चुकी है
मरती शताब्दी
शोर-शोर सब तरफ़ घनघोर
नेता सब व्यस्त कुरते की लम्बाई बढ़ाने में
स्त्रियाँ
उभराने में वक्ष
किसी को फ़िक्र नहीं सौ करोड़ वाले
इस देश में
कितने करोड़ हैं जो अनाथ हैं
कुत्तों की फूलों में कोई रूचि नहीं
न मछलियों का छुटकारा
अपनी दुर्गन्ध से
यों सारी उम्र रहीं पानी में।
कैसे मैं पी लूँ सारा विष
विलय से पहले
मुझ नगण्य के लिए यह
पेंचीदा सवाल है।
सब फेंके दे रही सभ्यता
धरती की कोख
दिन-ब-दिन ख़ाली
पानी हवा आकाश
हरियाली धूप
धीरे-धीरे
बढ़ती चली जा रही
कंगाली सब्र की
समझ कै़द
बड़बोले की कारा में
त्वरा के चक्कर में
सब इन्तजार हो गया है
काल को पछाड़कर
तेज़ रफ्तार से
सब-कुछ होते हुए
होना
बदल गया है
समृद्धि के अकाल में
अस्ति से परास्त
विभवग्रस्त आदमी
एक-एक कर
फेंककर
सारी सम्पदा
क्या पृथ्वी भी
फेंक देगा ?
मेरे समक्ष यह
संजीदा सवाल है
ठीक है कि सूर्य बुझनहार धूनी है
किसी अवधूत की
अविद्या-विद्यमान को ही़
शाश्वत मानना
ठीक है कि हस्ती
एक झूठा हंगामा है
हर प्रतीक्षा का
गुणनफल
सिराना चुक
जाना है।
तभी भी निष्ठा उकसाती मुझे
सब कुछ को रोक देना
जरूरी है
भूलकर अपनी अवस्था।
चिड़ियों से फूलों से
पेड़ से हवा से
कहना चाहिए
भीतर से बाहर का तालमेल
नाव नदी संयोग
के बावजूद
बना अगर रहा न्यूनतम भी
बिसरा सरगम
किसी ताल में
होकर निबद्ध फिर
आएगा।
पृथ्वी बच जाएगी
मैं रहूँ नहीं रहूँ
फ़र्क क्या।
दुःख कुछ इतना संगीन हो चुका है
मन होता है
सारा विषपान कर
चुप चला जाऊँ
ध्रुव एकान्त में
सही नहीं जाती
पृथ्वी-भर मासूम बच्चों
माँओं की बेकल चीख़।
सारे के सारे रास्ते
सिर्फ़ दूरियों का मानचित्र थे
रहा भूगोल
उसका अपना ही पुश्तैनी फ़रेब है
कल तक्षशिला आज पेशावर
इसके बाद भेद-ही-भेद
जड़ का शाखाओं से
दाहिनी भुजा का बायीं
कलाई से।
बीसवीं सदी के विशद
पटाक्षेप पर
देख रहा हूँ मैं गिर रही दीवार
पानी की
डूब रहे बड़े-बड़े नाम
कपिल के सांख्य का आख़िरी भोजपत्र
फँसा फड़फड़ा रहा-
अन्त हो रहा या शायद
पुनर्जन्म
पस्त पड़ी क्रान्ति का।
बीसवीं सदी के विशद मंच पर
खड़े जुनून भरे लोग-
जिन नगरों में जन्मे थे
उन्हीं को जला रहे
एक ओर एक लाख मील चल
गिरता हुआ अनलपिण्ड
और
दूसरी तरफ़ बुलबुला
बुलबुला
इनकार करता है पानी
कहलाने से
बडा समझदार हो गया है बुलबुला।
असल में अनिबद्ध था विकल्प
विकल्प ही भविष्य था
भविष्य पर घट रहा है।
इस क्षणभंगुर संसार में
अमरौती की तलाश भी
जा छिपी राष्ट्रसंघ के
पुस्तकालय में
देश जहाँ प्रेम की पुण्यतिथि मना रहे
ज़िक्र जब आता वंशावलि का
हरिशचन्द्र की
पारित हो लेता स्थगन प्रस्ताव
शायद सभी को
अपना भुइँतला ज्ञात है।
बहारों की नगरी में नाद बेहद का
आकाश फट रहा
एक आँखों वाले संयन्त्र पर
देख रहे बच्चे
अपनी जन्मस्थली
बेपरदा हुई मनुष्यता
भोग के प्रमाणपत्र बाँट रही
खुल रही पहेली दिन-ब-दिन
रहस्य
झिझक रहा फुटपाथ पर पड़ा
अपने पहचान-पत्र का अभाव में
दरिद्रदेवता
पूछ रहा पता
हवालात का
जहाँ उसने अपनी शिनाख़्त की
अनुपस्थिति के सबूत के अभाव में
फाँसी लगेगी...लगनी है
असल में यह अनुपस्थिति का मेला है
खत्म हुई चीज़ों की ख़रीद का विज्ञापन
युवा युवतियों को बुला रहा
कि गर्भ की गर्दिश से बचने के
कितने नये ढंग अपना चुकी है
मरती शताब्दी
शोर-शोर सब तरफ़ घनघोर
नेता सब व्यस्त कुरते की लम्बाई बढ़ाने में
स्त्रियाँ
उभराने में वक्ष
किसी को फ़िक्र नहीं सौ करोड़ वाले
इस देश में
कितने करोड़ हैं जो अनाथ हैं
कुत्तों की फूलों में कोई रूचि नहीं
न मछलियों का छुटकारा
अपनी दुर्गन्ध से
यों सारी उम्र रहीं पानी में।
कैसे मैं पी लूँ सारा विष
विलय से पहले
मुझ नगण्य के लिए यह
पेंचीदा सवाल है।
सब फेंके दे रही सभ्यता
धरती की कोख
दिन-ब-दिन ख़ाली
पानी हवा आकाश
हरियाली धूप
धीरे-धीरे
बढ़ती चली जा रही
कंगाली सब्र की
समझ कै़द
बड़बोले की कारा में
त्वरा के चक्कर में
सब इन्तजार हो गया है
काल को पछाड़कर
तेज़ रफ्तार से
सब-कुछ होते हुए
होना
बदल गया है
समृद्धि के अकाल में
अस्ति से परास्त
विभवग्रस्त आदमी
एक-एक कर
फेंककर
सारी सम्पदा
क्या पृथ्वी भी
फेंक देगा ?
मेरे समक्ष यह
संजीदा सवाल है
ठीक है कि सूर्य बुझनहार धूनी है
किसी अवधूत की
अविद्या-विद्यमान को ही़
शाश्वत मानना
ठीक है कि हस्ती
एक झूठा हंगामा है
हर प्रतीक्षा का
गुणनफल
सिराना चुक
जाना है।
तभी भी निष्ठा उकसाती मुझे
सब कुछ को रोक देना
जरूरी है
भूलकर अपनी अवस्था।
चिड़ियों से फूलों से
पेड़ से हवा से
कहना चाहिए
भीतर से बाहर का तालमेल
नाव नदी संयोग
के बावजूद
बना अगर रहा न्यूनतम भी
बिसरा सरगम
किसी ताल में
होकर निबद्ध फिर
आएगा।
पृथ्वी बच जाएगी
मैं रहूँ नहीं रहूँ
फ़र्क क्या।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book