लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> विठ्ठला

विठ्ठला

विजय तेन्दुलकर

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :92
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6094
आईएसबीएन :81-267-1552-7

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

113 पाठक हैं

प्रस्तुत है नाटक विठ्ठला ...

Viththala

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जिन्दगी बड़ी सहज होती है। हाय-हाय, भाग-दौड़ से वह सहजता नहीं रह पाती।

कभी-कभी अति महत्वाकांक्षाएँ ऐसी अँधेरी गुफा में ला छोड़ती हैं, कि हाथ मलना ही शेष रह जाता है, जिन्दगी एक छलावा बनकर रह जाती है।

बिठ्ठला भी बड़ा महत्त्वाकांक्षी था। गरीब परिवार की मर्यादा भूलकर, ऐशोआराम का जीवन जीना चाहता था, लेकिन क्या हुआ ? ऊँचे परिवार की एक विधवा से क्या दिल लगा बैठा कि अकाल मृत्यु का ग्रास बन गया।
अब उसकी अतृप्त आत्मा भटकती रहती है- पश्चाताप करने के लिए। लेकिन उसे ऐसा कोई उपयुक्त पात्र नहीं मिलता जिसकी मदद करके वह भूत योनि में भी कुछ पुण्य अर्जित कर सके।

सुप्रसिद्ध नाटककार विजय तेन्दुलकर की ऐसी रोचक नाट्य-कृति जिसमें सामाजिक विसंगितयों, धर्माडंबरों और चली आ रही पुरानी कुरीतियों पर सटीक रूपक के माध्यम से तीखा प्रहार किया गया है। तेन्दुलकर के अन्य नाटकों की तरह रंगशिल्प और भाषायी रोचकता के लिहाज से एक सक्षम नाट्यकृति।

विठ्ठला


पहला अंक
दृश्य : एक


(पर्दा उठते ही मंच पर दर्शकों की दाईं तरफ़ रखी सीढ़ी पर रोशनी आती है। बाकी मंच अँधेरे में। सीढ़ी के ऊपरी छोर पर एक अभिनेता बैठा है- एक भिखारी के भेष में, जिसके चेहरे पर उग्रता झुर्रियाँ इतनी कि मानो वक्त उसे भूलकर आगे चला गया हो। कुछ देर तक वह अपने-आप में खोया रहता है। फिर वह धीरे से घूमकर दर्शकों की तरफ देखता है। उसकी हरकत में एक अजीब सा ठंडापन है। वह भूत है। कुछ पल दर्शकों को घूरकर फिर बोलने लगता हैः)
भूत : (एक-एक शब्द धीरे से बोलते हुए) भूत बेवजह किसी को दर्शन नहीं देते और दर्शन की वजह तो शायद ही बनती है। फिर भी भूत के किस्से सुनना और सुनाना इन्सानों का पसंदीदा खेल रहा है। हर इन्सान अपनी-अपनी जरूरतों के अनुसार अपना भूत गढ़ता है। किसी का भूत उल्टें पैरों का होता है तो किसी के भूत की आँखें बाहर होती हैं। किसी का भूत सिर्फ कंकाल होता है तो किसी का एकदम पारदर्शी। हर एक का अपना अलग भूत.....सौ फीसदी मनगढंत, काल्पनिक। भूत की असलियत कोई नहीं जानता।
मरकर बचे हुए इनसान होते हैं भूत। इसीलिए करीब-करीब इनसानों की तरह ही होते हैं या फिर ऐसे मेरे जैसे। फ़र्क सिर्फ इतना कि इन्सानों को कल की आशा जिलाए रखती है, तो भूत को उसकी अधूरी आशाएँ पूरा मरने नहीं देतीं।

तो यह एक इन्सान और भूत की कहानी है। इन्सान वहाँ (मंच के जिस हिस्से में अँधेरा है उस ओर इशारा करके) उस घर में रहता था और भूत यहाँ.....इस पीपल के पेड़ पर।
दिन के आठों पहर भूत को ‘नामा’ नामक दर्ज़ी को देखना पड़ता था, सुनना पड़ता था। हालाँकि नामा के ‘नामा दर्जी़’ के विषय में रुचि बढ़ने लगी और उसका जो मनोरंजक तथा क्लेशदायक नतीजा निकला, उसी का मंचन अब यहाँ होगा।
[मंच पर रोशनी आती है और नामा दर्ज़ी का घर नज़र आता है। घर क्या है- झोपड़ी है। जैसे पीपल का पेड़ दर्शाने के लिए सीढ़ी का प्रयोग किया गया है, वैसे ही झोपड़ी दिखाई जा सकती है। बस, झोपड़ी की तरह लगे, इतना की काफी है।
घर के बरामदे में नामा दर्ज़ी एकतारी पर अभंग गाने में मग्न है। आवाज सुनाई नहीं देती.....बस, भाव नज़र आते हैं।]
ये कहानी एक भूत के नज़रिए से आपके सामने आएगी। सो इनमें जो स्थान-काल के बदलाव आएँगे वो भूत ही करेंगे। ये भूत असली हैं... मनगढंत नहीं और इसीलिए ज़रूरत पड़ने पर वे यहाँ आएँगे, अधेरे में अपने-अपने परिवर्तन करने वाले काले कपड़े पहने हुए इनसानों के लिए) मुझे ? मुझे नज़रअंदाज करना आपके लिए सम्भव नहीं है, तो अब नामा दर्ज़ी।
[धीरे-धीरे भूत पर से रोशनी कम होती हुई नामा दर्ज़ी के घर पर फैल जाती है।]

दृश्य : दो


नामदेव दर्ज़ी अपने झोंपड़ीनुमा घर के बाहर बैठा एकतारी पर भजन गा रहा है। लोग आ-जा रहे हैं। उन्हें उसके भजन सुनते रहने की आदत हो चुकी है।]


नामा : जागो जागो, भोर भई
चिन्ता हरे विठ्ठल माई।
दीन दुनी की परछाईं
पुकारते ही दौड़ी आई।
पंढरपुर भीमा तीरे
लागे सुन्दर मनोहर रे।
दोहों पर राख कटी
दरसन की जोहे बाटी।
किरिट-कुंडल मंडित
छब ऐसी सुन्दर सोहत।
वैजयंती विराजत गले
तिस पर तुलसीमाला डोले।
सुन्दर मुरत सगुण साँवरी
कंठ कौस्तुभ एकावली।
केसर-उटी परिमल भाए
भाल बुका सुहाए।


आदमी-1 : (रुककर) नामा ? साले, रात-दिन जप करता रहता है। कपड़ा कौन सिएगा, तेरा बाप ? आज महीना-भर हो गया, बंडी दी थी सिलने, अभी तक सिला नहीं है। साला, जाप करने को समय है तेरे पास-काम करते वक्त साँप सूँघ जाता है ! अब देख, परसों सुबह तक मेरी बंड़ी नहीं सिली तो या तो तू है या फिर मैं।
नामा : (एक बार आँखें खोलकर फिर बन्द कर लेता है) शिव-शिव.....पांडुरंग...माई-बाप... (फिर से भजन गाने लगता है।)
आदमी-1 : परसों देखता हूँ तेरा माई-बाप। देखता हूँ, कौन आता है तेरी मदद करने ! धन्धा दर्ज़ी का और नाम क्या नामा हो गया कि अपने-आपको सन्त नामदेव समझने लगा है- हुँ :! (जाता है)
आदमी-2 : नामा ! किधर है साला भड़वा ? (कपड़ा नामा के आहे फेंकता है) ये कुरता पहना अपने पांडुरंग को।
नामा : (मजबूरी में आँखें खोलते हुए) विठ्ठल....विठ्ठल....क्या हुआ ?
आदमी-2 : हुआ तेरा श्राद्ध ! जिसके नाप का सिया तूने कुरता ?
नामा :आपने जो दिया था, उसी नाप का....
आदमी-2 : हाँ....बदन में घुसना मुश्किल हो गया है। पहनने लगा तो आधा अन्दर, आधा बाहर। न मैं अन्दर घुस पा रहा था। आदमियों को बुलवाकर खिंचवाया, तब जाकर निकला है –समझा ?
नामा : कहीं आप....इस दौरान.......
आदमी-2 : पन्द्रह दिन में ? ज़बान में सँभालके बात कर.....क्या बक रहा है तू ? साला, दर्ज़ी है या हज्जाम ? आता-जाता कुछ अब मेरा नुकसान कौन भरेगा- तेरा विठ्ठल ?
नामा : उसे क्यों ? खामखाँ।
आदमी-2 : हाँ-हाँ....उसे क्यों ? सिरदर्द मोल लेने का शौक तो हमें चढ़ा था न !
नामा : माफ़ कर दीजिए....(झुककर हाथ जोड़ता है)
आदमी-2 : मैं कुछ नहीं देने वाला। मेरा कपड़ा वापस कर दे, नहीं तो मैं देखता हूँ, कैसे तेरा माई बाप तुझे बचाता है।

[और दो लोग आते हैं। हाथ में कपड़े।]

आदमी-3 : पाजामा ढीला बना है।
आदमी-4 : ये तो कपड़ा ही मेरा नहीं है। मेरा कपड़ा कहाँ है ?
नामा : शान्ति......शान्ति रखिए, सज्जनो !
आदमी-4 : पहले कपड़ा कहाँ गया, बता ? किसी भी कपड़े की बंड़ी सिलेगा तू ?
नामा : जिसने दिया......वो ही ले गया होगा।
आदमी-4 : ले गया होगा ? (कमीज़ की बाँहें ऊपर खिसकाते हुए) तू कपड़ा निकालता है या.........
आदमी-3 : (पाजामा दिखाते हुए) ये आपका होगा। मेरे कपड़े से आपकी बंडी सिली दीखती है।
आदमी-2 : नामा......हरामख़ोर.....!

[सारे मिलकर नामा को पकड़ लेते हैं।]

आदमी-4 : तेरी तो....आज तेरी हड्डी-पसली एक कर देंगे।
नामा : (शान्ति से) आप शरीफ़ लोग हैं। मेरी हड्डी-पसली एक करने से आपको अपना कपड़ा वापस मिलता है तो जरूर ऐसा कीजिए। बन पड़ा तो अपनी खाल के कपड़े बनवाऊँगा आपके लिए......
आदमी-2 : हमेशा का रोना है- या तो बड़ा सिलेगा, या फिर छोटा।
आदमी-3 : हुँ;, खाल के कपड़े बनवाएगा......बात करता है !
आदमी-4 : ऊपर से हमें शरीफ कहकर चिढ़ा रहा है। नहीं चाहिए तेरी खाल के कपड़े। हमें हमारा कपड़ा लौटा दे, बस ! चोर कहीं का !
नामा : शान्त....शान्त हो जाइए। सच्चे मन से माँगने से तो मोक्ष भी मिल जाता है तो कपड़ों की क्या बिसात है !
आदमी-3 : मोक्ष ? ठहर जा, मैं ही तुझे मोक्ष दिलाता हूँ।
नामा : (अन्दर की तरफ पुकारते हुए) आवले....आवले.......!

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book