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पाँच नायिकाएँ

तारा पांडे

प्रकाशक : प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :90
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6080
आईएसबीएन :81-88266-62-0

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भारतीय समाज की श्रेष्ठ पाँच पौराणिक नायिकाओं- सीता, सती, शकुंतला, पांचाली एवं यशोधरा- के जीवन एवं कृतित्व को पद्य रूप में प्रस्तुत किया है।

Panch Nayikayen

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


महादेवी वर्मा एवं कविवर सुमित्रानंदन पंत की समकालीन साहित्यकार स्व. श्रीमती तारा पांडे ने चौदह वर्ष की आयु से ही अपनी प्रेरणा के बल पर अनेक काव्य-संग्रह, गीता-संग्रह, महाकाव्य एवं लघुकथा-संग्रह विद्यादेवी के श्रीचरणों में अर्पित किए। इनकी कविताओं में हिमालयी पवन की पावनता एवं झलमलाते झरनों की धवलता दृष्टिगोचर होती हैं।

प्रस्तुत काव्य-संग्रह ‘पाँच नायिकाएँ’ में भारतीय समाज की श्रेष्ठ पाँच पौराणिक नायिकाओं- सीता, सती, शकुंतला, पांचाली एवं यशोधरा- के जीवन एवं कृतित्व को पद्य रूप में प्रस्तुत किया है। इन कविताओं की अनुभूति की सत्यता और अभिव्यक्ति की प्रवाहशीलता को अनेक विद्वानों ने लक्षित किया है तथा उनके प्रकृति-प्रेम को हृदय से सराहा है।

नारी आंदोलन आज की एक विशेषता है, किन्तु पौराणिक साहित्य में नारी के विषय में गहन चिंतन उपलब्ध होता है। इस कविताओं में कवयित्री ने इन पाँच महाविभूतियों के चरित्रों को लेकर अपना मौलिक चिन्तन प्रस्तुत किया है।

‘पाँच नायिकाएँ’ कृति की कविताएँ काव्यात्मक होने के साथ-साथ विचारोत्तेजक एवं मन को झकझोर देनेवाली हैं।
सीता, सती, शकुंतला, पांचाली औ’ यशोधरा। इन पाँचों की स्मृति में मेरा, मन हो जाता है अश्रु भरा।।

तारा पांडे

भूमिका


छायावादी कविता के उन्मेष में उत्तराखण्ड की प्रतिभा का महत्त्वपूर्ण योगदान सुविदिति है। कविवर सुमित्रानंदन पंत इस काव्यधारा के प्रवर्तकों में थे तथा उनकी प्रेरणा से जिन अनेक प्रतिभाशाली कवियों ने मौलिक कृतियाँ वाग्देवता की अराधना में समर्पित कीं, इनमें स्व. श्रीमती तारा पांडेय का नाम अनन्य है। इनकी कविताओं में हिमालय के पवन की पावनता और छलछलाते झरनों की स्वच्छता प्रतिफलित होती है। चिरतरुण हृदय की धूमिल अनंत की अभीप्सा, भावनाओं को सुकौमार्य तथा इन कविताओं में सुरुचि का लालित्य इनकी प्रसन्न प्रांजल पदावली में प्रवाहित है। एक ओर पाठक के अन्त:स्थल की स्निग्ध मधुरिमा तो दूसरी ओर सद्विचार की विशुद्धता आकर्षित करती है।

हिन्दी के अनेकानेक मूर्धन्य सहृदय आलोचकों ने उनकी कविताओं का स्वागत किया था। मैथलीशरण गुप्त ने इन कविताओं की अनुभूति की प्रकृति-प्रेम को सराहा है। रायकृष्ण दास ने इनमें नारी हृदय की वेदना की झनकार तथा रहस्यवाद और छायावाद की झलक पाई एवं कविवर सुमित्रानंदन पंत ने इन कविताओं में आँसुओं के मोती लक्षित किए हैं।

नारी आंदोलन आजकल की एक विशेषता है, किन्तु पौराणिक साहित्य में नारी के विषय में विभिन्न प्रकार का गहन चिंतन किया गया है। प्रस्तुत ग्रंथ में कवयित्री ने इन प्रतिमाओं एवं उनके चरित्रों को लेकर अपना मौलिक चिन्तन प्रस्तुत किया है। यह प्रस्तुति काव्यात्मक तथा विचारोत्तेजक दोनों ही है। आशा है, सहृदय सुधी पाठक प्रस्तुत पुस्तक से पुन: इस काव्यधारा का आस्वादन कर सकेंगे।

गोविन्द चंद्र पांडेय

सीता



सीता ने जब खेल-खेल में,
उठा लिया शिव धनुष भारी।
जनकराज ने पुलकित होकर,
करी प्रतिज्ञा अति भारी।।

इस पिनाक को जो तोड़ेगा,
होगा वही सिया का वर।
मूर्ख हो कि विद्वान् नहीं मैं देखूँगा,
राजा हो या रंक उसी को सीता दूँगा वर।।

विश्वामित्र यज्ञ करते हैं,
राम-लखन पहरा देते।
मार ताड़का औ’ सुबाहु को,
निर्भय सबको कर देते ।।

कितने ही राक्षस संहारे
फिर मारीच निकट आया।
बिन फर बाण गिराया उसको,
शत योजन के पार गिराया।।

राम-लखन को दी सब शिक्षा,
मुनिवर थे ज्ञानी-विज्ञानी।
दोनों बंधु विनत होकर तब,
मुनिवर की शिक्षा सब मानी।।

विश्वामित्र दिखाया आश्रम,
शिला बनी ऋषि गौतम नारी।
शाप-भ्रष्ट हो चाह रही है,
प्रभु के चरणों की रज प्यारी।।

बनी शिला थी नारि अहल्या,
राम-मिलन की थी आशा।
धरे चरण जब रघुनंदन ने,
पूर्ण हुई मन की आशा।।

बहुविध कर गुणगान राम का,
गई अहल्या अपने धाम।
नारी कितनी सहनशील है,
शीघ्र हो गई पूरन काम।।

मुनि बोले तब चलो राम अब,
धनुष-यज्ञ में चलना है।
जनकराज का आयोजन है,
हमें उन्हीं से मिलना है।।

विश्वामित्र महामुनि ज्ञानी,
राम-लखन को साथ लिये।
आगे बढ़े विदेह नगर में,
देख प्रफुल्लित गात हुए।।

ये क्या देवलोक के बालक,
नगर लोक सब चकित हुए !
ऐसा रूप न देखा पहले,
यही सोच मन मुदित हुए।।

कोई चढ़ा न सका चाप को,
रावण-सा बलशाली भी।
राजा-महाराजा सबने ही,
मन में इच्छा पाली थी।।

माँ ने कहा जानकी जाओ,
गौरी पूजन करके आओ !
माँगों फिर वरदान उन्हीं से,
हर्षित चित्त होकर आओ।।

सखियों के संग चली जानकी,
फुलवारी में थे राम-लखन।
सिया-राम दोनों ही मोहित,
नयन मिले मन हुआ मगन।।

गौरी पूजन किया सिया ने,
माला खिसकी बिहँसी प्रतिमा।
माँ, तुम इच्छा पूर्ण करो अब,
कर मेरे अपराध क्षमा।।

‘मैं आशीष तुम्हें देती हूँ,
मनचाहा वर मिल जाए।’
सखियाँ बोलीं चलो शीघ्र अब,
कहीं विलंब न हो जाए।।

सीता धीरे-धीरे चलती,
मुड़-मुड़ देख रही श्रीराम।
मिल जाए यह श्याम मूर्ति जब,
तब कर पाए मन विश्राम।।

कर प्रयत्न सब राजा हारे,
उठा न पाए धनुष विशाल।
रावण भी हारा कुछ क्षण में,
उसका भी था तब नत भाल।।

राजा जनक दु:खी थे मन में,
बीच सभा में जा कह पाए।
वीरों से विहीन है धरती,
सीता अब कुँआरी रह जाए।।

लक्ष्मण उठे क्रोध में भरकर,
यह तो वीरों का अपमान।
रघुवंशी हैं वीर मही में,
युद्ध करेंगे काल समान।।

विश्वामित्र उठे तब पल में,
कहा राम से शिवधनुष उठाओ।
चिंता जनकराज की मेटो,
अब न और तुम समय गँवाओ।।

कर प्रणाम उठ गए राम,
सीता को देख हुए विचलित।
पल में शिव-धनु तोड़ दिया,
जय-राम कहा सबने हो प्रमुदित।।


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