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बाकी धुआँ रहने दिया

राकेश मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6072
आईएसबीएन :978-81-263-1430

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प्रस्तुत है पुस्तक बाकी धुआँ रहने दिया ...

Baki Dhuan Rahane Diya a hindi book by Rakesh Mishra - बाकी धुआँ रहने दिया - राकेश मिश्र

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


पिछले कुछ वर्षों में मीडिया, बाज़ार, विज्ञापन अपराध और राजनीतिक सत्ताओं द्वारा, हमारा मानवीय-सामाजिक-नागरिक यथार्थ जितना क्षतिग्रस्त हुआ है, उससे कहीं अधिक तहस-नहस हुआ है यथार्थ के बोध, संज्ञान, चेतना और स्मृति का इलाक़ा। ज़ाहिर है भाषा इस विध्वंस का सबसे पहला शिकार हुई है, भाषा की समस्त संरचनाएं, शब्द और विधाएँ जिस तरह आज हताहत और ‘डिफंक्ट’ हैं, उतनी शायद ही किसी और दौर में रही हों। क्योंकि हम सब जानते हैं कि यह विध्वंस सभ्यतामूलक है। यानी इन तारीख़ों में हम हर रोज़ अपने आपको अचानक ही एक नयी सभ्यता और उसकी सत्ता का नागरिक या उपनिवेशक बनते हुए लाचारी में देखते हैं। विचार से लेकर राजनीति और कलाओं तक की पिछली संरचनाएं अचानक अपने सारे पाखंड, फ़रेब, संकीर्णता और नीयत के साथ हमारे सामने बेपरदा खड़ी दिखाई देने लगती हैं। बिना किसी ‘मास्क’ और ‘मिथ’ के।

राकेश मिश्र की विलक्षण कहानियाँ ठीक इसी संक्रान्त काल के उन पलों को भाषा में दर्ज़ करने का प्रयत्न करती हैं, जिन पलों में इतिहास और स्मृति, शब्द और अर्थ, राजनीति और विचार, मिथक और यथार्थ एक दूसरे के संहार के लिए रोज़ हमारे सामने नये रूपक रचते हैं। जब हम अचानक अपने आपको इस दुविधा में घिरा पाते हैं कि नमक के बदले हुए स्वाद को दुबारा किस चीज़ से नमकीन बनाया जाए, पानी से अलग चुकी तृप्ति और प्यास को दुबारा पानी तक कैसे लौटाया जाय, चारो ओर दिखते वस्तुजगत को किसी तरीके से उसकी वास्तविकता वापस दी जाय। और यह कि कहानियों में उनकी कहानी और क़िस्सागोई बचाकर किस हिफा़जत के साथ उन्हें वापस सौंपी जाय।

ज़ाहिर है ऐसे में कोई औसत दर्जे़ की प्रतिभा नये मुल्लों की तरह ‘अतिरंजित’ औज़ारों और युक्तियों का प्रयोग करती है और अन्ततः अपना ही विनाश करती है। राकेश मिश्र अपने समकालीनों से ठीक इसी बिन्दु पर अलग होते हैं।‘ तक्षशिला में आग’ ‘पृथ्वी का नमक‘, ‘राजू भाई डॉट कॉम’ और ‘शह और मात‘ जैसी कहानियों के एक-एक वाक्य, उनके बिम्ब और कथात्मक छवियाँ जिस तल्लीनता, मेहनत और विदग्धता के साथ रची गयी हैं, उसमें सिनेमा और स्मृति या ‘मिस्टीक’ और असलियत का दुर्लभ विडम्बनाओं से भरा कौतुक और जादू एक साथ मौजूद है। राकेश की कहानियाँ सिर्फ़ भाषा का उपद्रव और लापरवाह शब्दों की चमकदार लफ़्फाज़ी नहीं हैं। वे समकालीन कथोपकथन में किसी बातूनी ‘वीजे’ का कॉमर्शियल ‘चैटर’ नहीं है, जिसकी भाषा और विन्यास को ‘कट’ करके क्रिकेट कमेंट्री और विज्ञापन से लेकर सोप ऑपेरा और सत्ता-राजनीति के चालू ‘विमर्शों’ तक कहीं भी पेस्ट कर दिया जाए ये कहानियाँ हमारे यथार्थ और चेतना के गहरे और मारक उद्वेलन की मार्मिक विडम्बनाओं की यादगार कहानियाँ हैं। एक ऐसे सत्ताविहीन और लाचार युवा रचनाकार की कहानियाँ जो अपने समय में प्यार से लेकर ‘पॉवर पॉलिटिक्स’ तक के ईमानदार अनुभवों को उनकी सम्पूर्ण बहुआयामिता और अन्तर्द्वन्द्वों के साथ किसी क़िस्से में तब्दील करता है, उन्हें हलके-फुलके ‘गॉसिप’ में विसर्जन होने से बचाते हुए। और यह कोई आसान काम नहीं है।

पहले प्रेम के गहरे एकान्त क्षणों में अचानक बच उठने वाले ‘मोबाइल’ की तरह राकेश मिश्र की कहानियाँ अपने पहले ‘पाठ’ में ‘शॉक’ और फिर अन्य ‘पाठों’ में उन दुर्घटनाओं और बड़ी विडम्बनाओं से हमारा साक्षात्कार कराती हैं, जो फ़िलहाल कहीं और दुर्लभ है।
ये कहानियाँ एक अत्यन्त सम्भावनापूर्ण, स्मृति और अन्तर्दृष्टि सम्पन्न युवा कथाकार की अविसम्रणी कहानियाँ हैं। अपने होने का महत्त्व वे स्वयं स्थापित करेंगी, इसका पूरा विश्वास मुझे हैं।

-उदय प्रकाश



तुमने जहाँ लिखा है प्यार, वहाँ सड़क लिख दो


(शीर्षक डॉ. केदार नाथ कि कविता से लिया गया है। उनके प्रति आभार के साथ-कथा लेखक)


वैसे देखा जाए तो रामसुधार मिसिर झटकों के आदी थे, परन्तु यह झटका उनके चलते-फिरते जहाज को टाइटैनिक बना देगा, इसकी कल्पना उन्हें नहीं थी, वरना जहाँ तक उनकी समझदारी का सवाल है तो उनके यार-दोस्त उनसे अपेक्षा रख ही सकते थे कि वे अभी इस जहाज को समुद्र में न उतारें और उतारें भी तो हवा के बहाव का ध्यान रखें और हवा प्रतिकूल बह रही हो तो अतिरिक्त बुद्धि के मुगालते में चट्टान के करीब-करीब से जहाज को निकाल ले जाने के भ्रम में ना रहे।

लेकिन यह भी तय है कि इस समूचे प्रकरण में चाहे आप अतिरिक्त बुद्धि के मुगालते को क्रेन्द्र बिन्दु मानकर इस पर फाइनल रिपोर्ट लगा दें, परन्तु यही वह अतिरिक्त बुद्धि थी, जिसके चलते वे सिर्फ और सिर्फ रामसुधार मिसिर नहीं थे, बल्कि एक इंटेलेक्चुअल भी थे।

वैसे इस तथाकथित अँग्रेजी शब्द के हिन्दी अनुवाद ‘बुद्धिजीवी’ से उनका दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध न था। वे शुद्ध रूप से पिता-जीवी थे, अर्थात उन्हें अपनी मूलभूत आवश्यकताओं तथा भोजन, वस्त्र, आवास के साथ-साथ अपनी कुटेव आवश्यकताओं सिनेमा, सर्कस, चाय-सिगरेट आदि तक के लिए पिताजी के भेजे मनीऑर्डर पर निर्भर रहना था जो हर महीने कलेजे पर पत्थर रख एक बड़े विश्वविद्यालय में गम्भीर पढ़ाई करने के स्वांग पर बतौर पारिश्रमिक भेजे जाते थे। वैसे इस प्रक्रिया को निर्बाध और सुचारू रूप से जारी रखवाने के लिए वे जितनी बुद्धि खर्चते थे, उससे भी आप उन्हें ‘बुद्धिजीवी’ मान सकते हैं।

परन्तु अपने आपको इंटेलेक्चुअल समझने की उनकी समझ दूसरी थी और कहलवाने के हथियार दूसरे।

अब उनकी समझ और उनके हथियारों पर विस्तृत और ब्यौरेवार कैनेथ स्टारीय रिपोर्ट की तफ़सील में न जाकर बात वहीं से शुरू हो, जहाँ से शुरू हुई थी। मतलब झटकों से। यहाँ यह सूचना आवश्यक है कि रामसुधार मिसिर अपनी मुकम्मल जिन्दगी के आधे से भी कम पायदानों पर खड़े थे, और इन पायदानों पर अकसर दो ही किस्म के झटके लगते हैं। एक तो एक स्थायी ‘चेयर’ का मतलब नौकरी का, दूसरे एक हल्के से ‘केयर’ का यानी छोकरी का। रामसुधार मिसिर इस बात पर तय थे कि यदि किसी बुद्धिजीवी की चिन्ता में ये चेयर और केयर सम्मलित रूप से शामिल हो जाएँ तो उनके विकास के आगे ‘बैरियर’ का लगना तय है, और रामसुधार मिसिर अपने विकास में किसी किस्म का अवरोधक बर्दाश्त नहीं कर चुके थे। मतलब कैरियर का झटका उनको नहीं लगना था। सच कहें तो एक तरह से वे कैरियरप्रूफ थे।

वैसे उनके कैरियर प्रूफ होने का यह मतलब नहीं था कि उनके पिता ‘बिल गेट्स’ के रिश्तेदार लगते थे बल्कि रात को जब वे अपने छात्रावास के कमरे में अँधेरा कर अपने दिल पर हाथ रख दिल से सोचते थे तो वाकई उनकी आँखों के आगे अँधेरा छा जाता था, लेकिन उनकी ‘अतिरिक्त क्षमताओं’ में से एक क्षमता यह भी थी कि दिल में आँख में चाहे घुप्प अँधेरा हो, दिमाग की बत्ती जली रहती थी और उसकी ‘लाइट’ चेहरे पर साफ देखी जा सकती थी।

और जब कभी उनकी अतिरिक्त निश्चिन्तता से आतंकित उनके सहपाठी और उनके प्रभामंडल से आकर्षित उनके जूनियर उनके कैरियर के बारे में आशंकित होते तो उनके चेहरे पर निहायत दार्शिकाना भाव आ जाता और उनके दीर्घ और लचकदार भाषण का सारंश यह होता है कि वर्तमान व्यवस्था में जो कि मुख्यतः अमेरिकी पूँजीवादी व्यवस्था का निकृष्टतम संस्करण है, नौकरी का उपक्रम निश्चित रूप से घृणित व्यवस्था को मजबूत करने का प्रयास होगा और यह मानव को उत्तरोत्तर ‘लघुमानव’ बनाते जाने की साजिश है, जिससे उन्हें पूरी शिद्दत से इनकार था।

प्रतिप्रश्न की गुंजाइश हालाँकि उनके पास कम होती थी, परन्तु यदि हो भी तो उनके उतार-चढ़ाववाले लच्चेदार वक्तव्यों की आँधी में उनका टिक पाना बहुधा असम्भव नहीं तो कठिन जरूर होता। कुल मिलाकर उनके शारीरिक अवयवों की स्थूल संरचना पर न जाए तो वे सिर्फ और सिर्फ तर्कों से बने थे। अपने हर काम के औचित्य के लिए उनके पास लाजवाब तर्क थे, जिसमें धुआँधार सिगरेट की निकोटिन और यदा-कदा अल्कोहलिक उत्तेजना का ‘न्यूरान’ था पर सकारात्मक प्रभाव से लेकर ‘पैसा दुनिया का नाश करता है, हम पैसे का नाश करते हैं’ तक का व्यापक फैलाव था जिसमें वे सम्बन्धों, संवेदनाओं, भावनाओं, भावुकताओं को बचाने के लिए पूरी ईमानदारी के साथ जिन्दा रहने के मुकम्मल कारणों से जीवित थे।

और जब कभी वे अपनी तर्कशक्ति पर आत्ममुग्धता की स्थिति में पहुँचते, अकसर कागजी घोड़े पर सवार हो जाते थे और मन-ही-मन कभी आई.ए.एस की पी.सी.एस. कभी लेक्चरर और ज्यादातर मशहूर पत्रकार होने तक के क्षेत्र में दौड़ लगाते। खैर, यह तो हुई ठोस दुनिया की बेरहम दौड़, जिसमें रामसुधार मिसिर ‘कागजी घोड़े’ पर चढ़ते थे, परन्तु इन सबों से अलग उनकी एक और दुनिया भी थी, वाद-विवाद प्रतियोगिता, भाषण प्रतियोगिता, निबन्ध और कवितादि प्रतियोगिताओं की दुनिया। और कहना न होगा, इस दौड़ में वे तर्क-सवार होते थे, इसलिये अकसर ‘अपराजेय’।

उनके लगातार अपराजेय रहने के प्रमाण में हालाँकि उनके पैतृक आवास के बैठक खाने में रखे पुरस्कारों से भरे शो-केस को देखा जा सकता है, परन्तु इसकी आवश्यकता उन्हें न थी, बल्कि इसी दुनिया में दौड़ जीतने के पुरस्कार में उन्हें वह मिला था, जिसकी घोषणा अकसर ठोस दुनियावादी दौड़ के लिए ही की जाती है। मतलब कि इस घोर कैरियरवादी युग में भी अपने कैरियर के प्रति पूरी तरह सचेत एक लड़की रामसुधार मिसिर की जिन्दगी में थी – कविता।

जिन्दगी में जितना विश्वास रामसुधार को अपने तर्कों पर था उससे ज्यादा आकर्षण कविता को रामसुधार मिसिर के लिए था। उम्र में वह उनसे चार साल बड़ी थी, परन्तु अपने मानसिक विकास के कारण रामसुधार मिसिर उस अवस्था में थे, जहाँ उम्र की सांख्यिकी कोई मायने नहीं रखती थी। अपनी उम्र के दुगुने, तिगुने उम्र के लोगों के साथ उनका बैठना या बराबराना व्यवहार था। अतः उन्हें कम-से-कम इस बात पर आश्चर्य नहीं था कि उनसे चार साल ही बड़े कमलेश गौतम उनके सर्वाधिक करीबी मित्र-रूप-रंग, पहनावा-ओढ़ावा और बात विचार में कई मौलिक भिन्नताओं के बावजूद ऐसे कई प्लेटफार्म थे, यहाँ दोनों एक साथ खड़े थे। दोनों धुआँधार धुआँ छोड़ते थे, दोनों ‘पैसों के नाश’ के प्रति प्रतिबद्ध थे। दोनों कि चिन्ता समकालीन साहित्य में पहचान बनाने की थी और इन सबसे बढ़कर दोनों की जिन्दगी में एक-एक अदद प्रेमिका थी, जिसके साथ बिताये एकान्तुक क्षणों को दोनों–एक दूसरे से शेयर करते थे।

लेकिन कमलेश गौतम की जिन्दगी में प्रभा का वही मतलब नहीं था, जो रामसुधार मिसिर के लिए कविता का होना एक नया अनुभव था, जिसे वे अपनी तमाम गहराइयों के साथ अनुभूत करना चाहते थे, जबकि कमलेश गौतम के लिये प्रभा लंबी यात्रा के दौरान, पकड़ी गई तीसरी पैसेंजर ट्रेन थी, जिसके पहले वे सुषमा व अनामिका नामक दो सुपर फास्ट ट्रेन से उतर चुके थे और उन दोनों ट्रेनों के छूटने का गहरा अफसोस भी था उनको। लेकिन परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी बनी थीं कि उनके पास अफसोस जाहिर करने के अलावा कोई चारा न था।

अब दोनों पूर्व प्रसंगों के उल्लेख में चाहे आप अनामिका के सन्दर्भ में अन्य कारकों को चिन्हित करते हुए, बाजारवाद, उपभोक्ता वाद के खतरों को सूँघ लें, लेकिन सुषमा-प्रसंग में महज और महज परिस्थिति ही जिम्मेदार थी। अब इसे क्या कहेंगे कि सोलह-साला कमलेश गौतम अपनी उच्च मानसिक अवस्था के साथ पन्द्रह–साला पड़ोसन सुषमा से प्यार कर रहे हैं। उसकी हँसी, उसकी छुअन, उसका चुम्बन, उन्हें हर रोज एक नयी पुलक से भर दे रहा है और विज्ञान के मेधावी छात्र कमलेश गौतम रासायनिक अभिक्रिया के नीरस परिणामों को छोड़कर वास्तविक रूप से रसज्ञ हो रहे हैं कि एक रात सुषमा के पिता ने अपने तबादले से समूची प्रतिक्रिया में ही आमूल-चूल तब्दीली ला दी। कमलेश गौतम की प्रयोगशाला में इस अवांछित केमिकल की अभिक्रिया से विस्फोट होना ही था। हुआ भी। लेकिन परिणाम अन्ततः सुखद ही हुआ। यह कुछ-कुछ एक रेडियोऐक्टिव विस्फोट ही था, जिसका उद्देश्य शान्तिपूर्ण तथा रचनात्मकता में उसका उपयोग होना था, हुआ और प्रकारान्तर से कमलेश गौतम कला के मेधावी छात्र होकर उसी बड़े-विश्वविद्यालय में विशुद्ध कला ‘फाइल’ आट्र्स’ के विशुद्ध व्यावसायिक विभाग अप्लाइड में नामांकित हुए, जिनमें रामसुधार मिसिर साहित्य में गहरी दिलचस्पी लेते हुए इतिहास की गम्भीर पढ़ाई कर रहे थे।

रामसुधार मिसिर से कमलेश गौतम का मिलना करीब-करीब वैसे ही तय था जैसे कृष्ण का अर्जुन से, गाँधी का राजेन्द्र से, मार्क्स का एंगेल्स, से लेकिन जो तय नहीं था, वह था कमलेश गौतम का अनामिका से मिलना। क्योंकि सुषमा प्रकरण के बाद कमलेश गौतम ने भी हीरामन की तरह ‘तीसरी कसम’ खायी थी–जिन्दगी में लड़की कभी नहीं। लेकिन कसम तभी सही हो पाती, जब ‘फाइन आट्र्स’ की जिन्दगी इसी दुनिया की जिन्दगी होती है और अनामिका सिर्फ लड़की। विश्वविद्यालय का फाइन-आट्र्स विभाग एक तिलिस्म था और अनामिका आदि लड़कियाँ उसकी परियाँ। विश्वविद्यालय का यह विभाग सर्वाधिक प्रगतिशील और संवेदनशील था। सभी लड़के सभी लड़कियों के लिये और उससे थोड़ा ज्यादा अनुपात में सभी लड़कियाँ सभी लड़कों के लिए संवेदनशील थीं। अतः यदि एक लड़के की संवेदानात्मक फ्रिक्वेंसी किसी लड़की की फ्रिक्वेंसी से मिल जाती तो उसे विभाग में ‘जोड़े’ की संज्ञा दे दी जाती। लेकिन यहां ‘जोड़े’ अलग फ्रिक्वेंसी से अलग नहीं होते थे और जहाँ कोई अन्य फ्रिक्वेंसी ज्यादा हांट करने लगे तो साथी बदलने से उन्हें कोई गुरेज न था। जब तक फ्रिक्वेंसी साथ दे, तब तक वे स्पर्श, आलिंगन, चुम्बन, भ्रमण के बाद ‘नाइट शेयर’ की सीमा तक प्रोग्रेसिव थे और फ्रिक्वेंसी के टूटते ही एक अजनबीपन भरी मुस्कान के साथ शिष्टाचारवश कहा गया ‘हलौ’ का सम्बोधन होता।

सो एक निश्चित समय में अनामिका की फ्रिक्वेंसी कमलेश गौतम की फ्रिक्वेंसी से मिल गयी। अनामिका इस तिलिस्म की उन परियों में से थी जिसका संवेदनात्मक विस्तार काफी दूर तक था। दूर का मतलब विभाग की परिसीमा से बाहर तक भी। वस्तुतः अनामिका उन लड़कियों में से थी जो अपनी इच्छाओं के हरेक प्रतीक के साथ जुड़ना चाहती हैं। उसकी इच्छा एक सफल कैरियरिस्ट बनने की थी। अपने कैरियर के प्रति पूरी तरह समर्पित एक लड़का गिरीश उसकी जिन्दगी में आया। वह एक अच्छा चित्रकार होना चाहती थी। विभाग के प्रतिभाशाली चित्रकार साहा से उसकी नजदीकियाँ बढ़ीं और इसी क्रम में जब उसकी प्रतिभा ने जोर मारा, तो उसकी जिन्दगी में कमलेश गौतम आ गये।

कमलेश गौतम इन तरंगों के उतार-चढ़ाव से अनभिनज्ञ थे। उनके दिमाग में तो प्यार-प्रेम का मतलब सुषमा के होने से था। आँखों में आँखें डालकर देखना, हौले से सिर पर हाथ फेरना, उँगलियों के पोरों को हाथों से चटखाना फिर चेहरे को हाथों में भरना, उसकी अधखुली, अधमुँदी पलकों को उठाना, उसके कपोलों पर धीरे-से अपने होठों को रख देना, इस सारी हरकतों में एक क्लासिकल रोमांटिक टच हुआ करता था और इन सबसे बढ़कर यह अहसास कि ऐसा उस लड़की के साथ वे और सिर्फ वे ही कर सकते हैं।

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