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कविता संग्रह >> तेरी रोशनाई होना चाहती हूँ

तेरी रोशनाई होना चाहती हूँ

अलका सिन्हा

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6063
आईएसबीएन :978-81-89859-72

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ये प्रेम कविताएं उस कोमल और अमूल्य अहसास की पहचान कराती है जिसका आभाव किसी को वहशी बना देता है तो किसी को संयासी

Teri Roshnai Hona Chahati Hoo

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


प्रतिष्ठित कवयित्री अलका सिंहा की नवीनतम काव्य कृति ‘तेरी रोशनाई होना चाहती हूँ’ की प्रेम कविताएं उस कोमल और अमूल्य अहसास की पहचान कराती है जिसका आभाव किसी को वहशी बना देता है तो किसी को संयासी। इन कविताओं में महानगरीय जीवन की आपाधापी के बीच एक भावनात्मक विस्तार की अनुभूति होती है और यह विस्तार कहीं-कहीं तो दार्शनिकता पर जा टिकता है। इसलिये पूरी कृति में बिखरे प्रेम-प्रसंगों के बावजूद नितांत निजी और आत्मीय क्षणों का अहसास कहीं भी छिछला या बेपर्दा नहीं होता। कवयित्री आम जिंदगी की मामूली घटनाओं को सरल और सधी भाषा में अपनी कविताओं में इस प्रकार गुंफित करती है मानों कविता की गलबहियाँ डाले कोई कहानी साथ-साथ चलती हो।

यह कविताएं एक ओर प्रकृति में जीवन की अनंत संभावनाओं की तलाश करती है दूसरी ओर युगीन विषमताओं पर व्यंग्य भी कसती है सामाजिक चेतना से संबद्ध एक स्वस्थ्य विमर्श इन कविताओं को लोकमंगल की भावना से जोड़ता है।

हर किसी को अपनी-सी लगती ये कविताएं तमाम तनाव परेशानी और नाकामियों के बीच जीवन के प्रति आस्था और विश्वास जगाती है और आश्वस्त करती है कि सचमुच कीमती है हमारे बीच बची प्रेम की तरलता !


मधुमास



सुबह की चाय की तरह
दिन की शुरुआत से ही
होने लगती है तुम्हारी तलब
स्वर का आरोह
सात फेरो के मंत्र-सा
उचरने लगता है तुम्हारा नाम
ज़रूरी-गैरज़रूरी बातों में
शिकवें-शिकायतों में।

ज़िन्दगी की छोटी बड़ी कठिनाइयों में
उसी शिद्दत से तलाशती हूँ तुम्हें
तेज़ सिर दर्द में जिस तरह
यकबयक खोलने लगती है उँगलियाँ
पर्स की पिछली जेब
और टटोलने लगती हैं
डिस्प्रिन की गोली।

ठीक उसी वक्त
बनफूल की हिदायती गंध के साथ
जब थपकने लगती है तुम्हारी उगलियाँ
टनकते सिर पर
तब अनहद नाद की तरह
गूँजने लगती है ज़िंदगी
और उम्र के इस दौर में पहुँचकर
समझने लगती हूँ मैं
मधुमास का असली अर्थ।


औरत और लंच-बॉक्स


बचपन में देखती थी
कचहरी से लौटकर आते थे बाबूजी
और मां
झट हाथ से छाता, बैग ले लेती थी
आसन बिछाकर भोजन परोसती थी।

बाबूजी घर- बाहर का हाल-समाचार
पूछते-बताते खाना खाते
और मां पंखा झलती रहती थी।

कितनी तृप्ति होती थी
थाली समेटती मां के चेहरे पर
सुखदायी होती थी कल्पना
खुद को इस परंपरा की
कड़ी के रूप में देखने की।

किन्तु इस भाग-दौड़ में
दो पल बतियाने की
सामने बिठाकर खाना खिलाने की
फुर्सत कहा मिलती है।

तुम्हारे लाख मना करने पर भी
धर देती हूँ दो रोटी, सूखी सब़्जी
और थोड़ा अचार
तुम्हारे लंच-बॉक्स में।

‘क्यों नाहक परेशान होती हो तुम
हमारी कैंटीन में भी मिल जाती है दाल-रोटी’
कहकर उठा लेते हो तुम अपना डिब्बा
और चल देते हो दफ्तर की ओर।

तुम कभी नहीं करते हो तारीफ
न ही शिकायत
कि आज लंच में क्या दे दिया तुमने ?

शाम जब सिंक में खोलती हूँ
उँगलियों से चाटकर
साफ किया लंच बॉक्स
तो दिखने लगता है मुझे
कि दफ्तर के लॉन
या कैंटीन में बैठकर
तुमने खोला था डिब्बा
खाई थी रोटी और
ऊँगलियों से चाटकर कटोरी
बैठ गये थे सुस्ताकर।

ठीक तभी
एकदम दबें पाँव
गुनगुनी धूप की तरह पहुँचकर मैंने
समेट-दिये थे रोटी-सब्जी के डिब्बे
जैसे कि माँ पानी छिड़कर
समेट लेती थी बासन
और चौका कर तृप्त हो जाती थी।

वैसी ही तृप्ति मुझे भी मिल जाती है
सिंक में खोलते हुए तुम्हारा लंच-बॉक्स
और सोचती हूँ तृप्ति का ये सुख
एक औरत के हिस्से का है
इसे तुम नहीं समझ पाओगे।

तुम क्या जानो


दिन भर की लम्बी यात्रा के बाद
जो थोड़ा-सा वक्त
तुम्हारे साथ बीतता है
तुम क्या जानों
वह मेरे लिए कितना कीमती होता है।

अलग-अलग भूमिकाओं की फाइलें निपटाते
प्लास्टिकी मुस्कान से परे
जब होती हूँ मैं तुम्हारे स्नेहिल आगोश में
वो नितांत निजी पल
कितने अनमोल होते है !

उस वक्त मैं कोई नहीं होती हूँ
न कोई संबंध, न संबोधन
तमाम अवरणों से परे
एक ऐसा शून्य हो जाती हूँ
जो तुम्हारे संयुक्त होने पर
अनंत को पाता है
नीले आकाश, गहरे सागर में
विलीन हो जाता है...

काश तुम जान पाते
कि दिन भर की लम्बी यात्रा के बाद
जो थोड़ा-सा वक्त तुम्हारे साथ बीतता है
वह मेरे लिए कितना कीमती होता है !

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