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अलाव

हिमांशु द्विवेदी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6054
आईएसबीएन :81-7315-677-8

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अलाव एक निरंतर जागरुक और जलती हुई संवेदनाओं की समसामयिक प्रतिक्रियायों का संगम है।

Alaav - A Hindi Book by Himanshu Dwivedi - अलाव - हिमांशु द्विवेदी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अलाव युवा संपादक हिमांशु द्विवेदी के लेखों, साक्षात्कारों का संग्रह मात्र नहीं है, बल्कि एक निरंतर जागरुक और जलती हुई संवेदनाओं की समसामयिक प्रतिक्रियों का संगम भी है। हालाँकि संपादकीयों की भाषा एंव शैली सामान्यतः संतुलित, तार्किक तथा भावुकता से बचती हुई ठंडे चिंतन की भाषा होती है, लेकिन हिमांशु द्विवेदी के इन लेखों, संपादकीयों में तार्किकता एवं गहरे सरोकारों के साथ तीखी अभिव्यक्ति भी है। अभिव्यक्ति के इस तीखे, दो-टूकपन को तरुणाई की विशेषता कहा जा सकता है। प्रस्तुत संग्रह के लेखों में लेखक का प्रिय औजार है समसामयिक घटनाओं और व्यक्तित्वों को पौराणिक संदर्भों में देखने और प्रस्तुत करने की उनकी विशेषता।
‘अलाव’ में संकलित टिप्पणियाँ, जीवन-वृत्त, आलेख एवं साक्षात्कार सुधी पाठक के अंतस को गहरे तक स्पर्श कर पाएँगे हमारा विश्वास है।

भूमिका


‘अलाव’ एक युवा संपादक के लेखों, साक्षात्कारों का संग्रह तो है ही, लेकिन उससे ज्यादातर एक निरंतर जगी हुई और जलती हुई संवेदना की समसामयिक प्रतिक्रियाओं का संगम है। संपादकीयों की भाषा औऱ शैली आमतौर पर संतुलित, सुतर्कित, भावुकता से बचती हुई और एक प्रकार से ठंडे विवेक के साथ किए गए चिंतन की भाषा होती है। हिमांशु द्विवेदी के कई संपादकीय आपको इस धारा से थोड़ा अलग दिख सकते हैं। उनमें आप चिंतन, तार्किकता और संतुलन तो पाएँगे लेकिन एक असंयुक्त, तटस्थ विवेक के ठंडेपन के साथ नहीं बल्कि गहरे सरोकारों और साफ पहचान में आनेवाली संवेदनाओं की तीखी अभिव्यक्ति के साथ।

अभिव्यक्ति के इस तीखे, दो-टूकपन को आप तरुणाई की विशेषता भी मान सकते हैं या एक स्पष्ट मूल्यबोध और निश्चित निष्ठा का परिणाम भी। हिमाशु की कई स्थापनाओं से सहमति या असहमति का फैसला आपकी अपनी निष्ठाओं और मूल्यबोध के कारण अलग हो सकता है, लेकिन उनकी वैचारिक स्पष्टता और धार की उपस्थिति से सहमत होना कठिन होगा। बुद्धि से सोचनेवाले तो सभी होते हैं, हिमांशु हृदय से सोचने लगते हैं। जब उनके सांस्कृतिक बोध को झकझोरने वाली बात होती है तब उनकी टिप्पणियों में एक अतिरिक्त तीखापन और धार आ जाती है। तत्पश्चात वह उतने तटस्थ भी नहीं रहते। लेकिन तटस्थता से यह विचलन दुविधा या चतुराई के कारण नहीं, बल्कि एक पारदर्शी पक्षधरता के साथ उपस्थित रहता है। इसलिए उनकी टिप्पणियों से असहमति की गुंजाइश तो निकलती है, किंतु संदेह की नहीं।

यह धार कई बार बड़ी भाषा पैदा करती है। जैसे उमा भारती के प्रसंग में उनके विरोधाभासी व्यक्तित्व के विश्लेषण में यह वाक्यांश—‘संबोधनमें साध्वी और प्रवृत्तियों में सामज्ञी...’। जैसे सांसदों के भ्रष्टाचार पर ऑपरेशन दुर्योधन के स्टिंग प्रसंग पर टिप्पणी में ‘कृष्ण की जगह कैमरा...’ व्यंगोक्ति हिमांशु का एक सशक्त हथियार है, जिसका वह भरपूर इस्तेमाल करते हैं। जैसे भाजपा के लौह पुरुष लालकृष्ण आडवाणी के जिन्नावाले बयान पर क्रुद्ध हिमाशु का आवेश यों निकलता है—‘‘....तो जयचंद को देशभक्त, महमूद गजनवी को मसीहा और रावण को धर्मात्मा करार दिया जाय तो आश्चर्य कैसा ?’’
दो बातें और दिखती हैं, हिंमाशु के संपादकीय लेखन में आपको एक तो उनके विचारधारात्मक आग्रह और दूसरा पौराणित संदर्भों की उनकी समझ एवं उनसे लगाव। हिमाशु की सबसे विचारपूर्ण, अंतर्दृष्टिवाली टिप्पणियाँ संघ परिवार या भाजपा या भारतीय/हिंदू संस्कृति पर आघात पहुँचाने वाली या पहुँचाने का आभास देने वाली घटनाओं पर हुई हैं। कांची के शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती की गिरफ्तारी पर संपादकीय में राजनीति और राजनीतिज्ञों के दो मुँहेपन पर उनका विश्लेषण और छद्म धर्मनिरपेक्षता के पार्दर्शी छल पर उनकी टिप्पणी तीखी भी है, मार्मिक भी। आडवाणी की जिन्नावाले बात पर भी हिमांशु की वैचारिक निष्ठा स्पष्ट और प्रतिक्रिया कठोर है। इस संवेदनशीलता की एक और झलक मणि शंकर अय्यर के सावरकर पर बान पर हिमांशु की प्रतिक्रिया में भी दिखती है।

हिमांशु का दूसरा प्रिय औजार है, समसामयिक घटनाओं और व्यक्तित्वों को पौराणिक संदर्भों में देखने और प्रस्तुत करने की उनकी विशेषता। ‘महाभारत’ उन्हें विशेष प्रिय है और उसके प्रमुख पात्र-कृष्ण, भीम, द्रोण, दुर्योधन, दुशासन, द्रौपदी—प्रिय चरित्र और भारतीय राजनीति में आए दिन ‘महाभारत’ के किसी-न-किसी प्रसंग और चरित्र से तुलना किए जाने लायक घटनाओं एवं लोग तो मिलते ही रहते हैं।

इन वैचारिक आग्रहों के बावजूद इस युवा संपादक ने अपनी संपादकीय स्वायत्ता के साथ समझौता नहीं किया है, यह बहुत संतोषजनक है। अकसर ही देखने में आता है कि क्षेत्रीय अखबारों के संपादकों को ढेरों स्थानीय कारणों से राज्य की सरकार, मुख्यमंत्री आदि के साथ बनाकर रखना पड़ता है। राष्ट्रीय अखबारों मे यो संपादकेतर प्रभाव और लचीलापन भी राष्ट्रीय हो जाते हैं। सब जगह नहीं, पर कई जगह। एक क्षेत्रीय अखबार के संपादक होने के कारण कई जगह आपको हिमांशु के लेखन में क्षेत्रीय घटनाओं, नेताओं और व्यक्तियों के लिए थोड़ी अतिरिक्त जगह और महत्त्व दिखता है। यह भी दिखता है कि छत्तीसगढ़ के वर्तमान मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह उनके प्रिय पात्र या प्रिय नेता हैं। लेकिन उनके बारे में लिखते समय एक सावधान भाव दिखता है, चाहे वह संपादकीय लेख हो या साक्षात्कार।

साक्षात्कार हिमांशु की प्रिय विधा है। उन्होंने कई साक्षात्कार दिए हैं इस संकलन में। रमन सिंह, अजीत जोगी, विद्याचरण शुक्ल, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, भजनलाल, करुणा शुक्ला आदि के साक्षात्कार मुख्यतः राजनीतिक हैं, तो राज कुमार बड़जात्या की उनके फिल्मी जीवन और राम के बारे में रोचक बातचीत एक सुखद विषयांतर करती है। मुझे सबसे रोचक लगा आजीत जोगी का लंबा साक्षात्कार वह जोगी के आश्चर्यजनक कैरियर और जीवन को उसकी सारी विविधता और उतार-चढ़ाव के साथ उनकी ही जुबानी कहलवाने में खूब कामयाब रहे हैं। जोगी ने खुलकर बात की है, अपने जीवन और अंतर्मन के कई अज्ञात या अल्पज्ञात कोनों, मोड़ों को उजागर किया है।

एक पत्रकार के रूप में हिमांशु में लोगों को सहज करके मुक्त और अंतरंग बातचीत के लिए तैयार करने का गुण है। एक पत्रकार के लिए यह गुण उपयोगी है।
लेकिन हिमांशु की भाषा की रवानगी में खटकने वाली एकाध बातें भी हैं। उद्धरण-चिह्नों के प्रति उनका लगाव खलता है। हर तीसरे विशेषण के साथ उद्धरण-चिह्न लगा देना भाषा को बेहतर नहीं बनाता, उसको उलटा ही करता है हिमांशु को इससे बचना चाहिए।

कुल मिलाकर यह संकलन एक युवा संभावनाशील पत्राकर के प्रभावशाली वर्तमान के साथ-साथ उसकी भावी चुनौतियों को भी सामने लाता है, क्योंकि हर उपलब्धि भविष्य की बड़ी चुनौतियों का आभास देती है इस संपादक की सहज प्रतिभा को नए, ज्यादा बड़े फलक के विषयों को छूना है, अपनी प्रखर लेखनी के दायरे में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों को लाना है। रुचियों, अनुभव, विशेषतज्ञा और संवेदना के नए क्षितिजों एवं आयामों का साक्षात् करना है।

मुझे विश्वास है कि हिमांशु यह करेंगे हमारी उम्मीद से जल्दी।

राहुल देव

जमीन तैयार करने का काम


‘आस्था, अस्मिता और अस्तित्व की चीर-हरण पर निस्पंद कृष्ण’, यह हिमांशु द्विवेदी की पुस्तक के एक लेख का शीर्षक है। मुझे लगता है, यह हमारे वर्तमान के समूचे चरित्र पर की गई कचोटनेवाली टिप्पणी भी हो सकती है। इस पुस्तक की पांडुलिपि पढ़ते समय यह शीर्षक लगातार मेरे सोच पर हावी रहा। हालाँकि यह शीर्षक एक विशेष संदर्भ में दिया गया है और कतई जरूरी नहीं कि इस चीर-हरण से सहमत हुआ ही जाए; लेकिन इस शीर्षक में जो पैनापन है, सटीकता है, एक ईमानदार प्रतिक्रिया व्यक्त करने की जो तड़प है, वह अनायास अपनी ओर आकर्षित करती है। पूरी पांडुलिपि पढ़ने के बाद यह अहसास बहुत दूर तक साथ रहा कि इसका लेखकर चीजों के मर्म को सिद्दत के साथ महसूस करता है और अपनी सोच को निर्भीकता के साथ व्यक्त करने में विश्वास करता है। यह शिद्दत और निर्भीकता किसी भी लेखन को महत्त्वपूर्ण बना देती है।

पत्रकारिता की बहुत सी परिभाषाओं में से एक यह भी है कि पत्रकारिता जल्दबाजी में लिखा गया साहित्य है। इसका अर्थ यह हुआ कि जो अपेक्षाएँ हम साहित्य से करते हैं, उनका कुछ अंश तो पत्रकारिता से भी अपेक्षित होता ही है। मेरा यह मानना है कि साहित्य क्रांति भले ही न कर सकता हो, बदलाव के लिए जमीन अवश्य तैयार करने का माध्यम है, होनी चाहिए। पत्रकारिता का उद्देश्य मात्र जानकारी देना ही नहीं, जानकारी को पूरे संदर्भ में प्रस्तुत करके समाज के सोच को गति और दिशा भी देना है। यह दायित्व है पत्रकारिता का और जब भी किसी पत्रकार के लेखन तौला जाए, एक महत्त्वपूर्ण संदर्भ यह दायित्व भी होगा। इसी दायित्व का तकाजा है ताकि पत्रकारीय लेखन अनुभूति की गहराई और अभिव्यकित की ईमानदारी दोनों को प्रदर्शित करनेवाला हो। पत्रों में दैनिक अथवा साप्ताहिक स्तंभ भले ही त्वरित टिप्पणियों की परिभाषा के अंतर्गत आते हों, लेकिन इन टिप्पणियों को सार्थकता इसी बात में निहित है कि वे समय के सवालों को सिर्फ उछालें ही नहीं, उनके सार्थक हल खोजने की ईमानदार कोशिश भी करें। इसमें कोई शक नहीं कि इस कोशिश पर टिप्पणीकार के सोच और मान्यताओं का रंग चढ़ता है। स्वाभाविक है। यह एक हद तक जरूरी भी है। तभी वह पत्रकार ‘निस्पंद कृष्ण’ की भूमिका से बाहर आता है, अपने ढंग से सवालों से जूझने की कोशिश करता है, स्थितियों में परिवर्तन लाने की प्रतिक्रिया में हस्तक्षेप किसी दुःशासन के चीर-हरण करते हाथ रोकने की प्रेरणा दे सकता है और कभी किसी निस्पंद कृष्ण को मदद का हाथ बढ़ाने के लिए प्रेरित कर सकता है।

हिमांशु के लेखन में मुझे ऐसे ही हस्तक्षेप की कोशिश दिखाई देती है। वे सिर्फ यह नहीं कहते कि ‘एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो’, वे आकाश में छेद करने की आवश्यकता भी प्रतिपादित करते हैं और यह अहसास भी देते हैं कि छेद करने की ईमानदार कोशिश भी रंग लाएगी। यहीं इस बात को रेखांकित किया जाना जरूरी है कि पत्रकारीय हस्तक्षेप उत्तेजित करने के लिए नहीं होता। वह ठोस वैचारिक आस्था एवं विवेकपूर्ण विश्लेषण पर आधारित होता है (या होना चाहिए)। इसलिए एक जिम्मेदारी का भाव इसमें अंतर्निहित होता ही है—सार्थक संवाद की स्थितियों के निर्माण की जिम्मेदारी। सवाल पत्रकार के सोच या विश्लेषण से सहमत होने का नहीं है, उससे प्रेरित होकर अपनी सोच को दिशा देने की कोशिश की प्रेरणा जगाने की है। यह काम इस पुस्तक में संगृहीत बहुत से लेख करते दिखाई देते हैं। मैं इसे संकलन की आवश्यक भी मानता हूँ और सफलता भी।

यह एक दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है कि संवाद की स्थितियाँ समाप्त होती जा रही हैं। अपनी-अपनी आस्था के नाम पर खेमेबंदी का शिकार होता जा रहा है समाज मे जबकि आवश्यकता इस बात की है कि वैकल्पिक आग्रहों के बावजूद विभिन्न सोचों-वर्गों में संवाद की स्थिति बना जाए। मुझे इस संकलन में इस आशय की कोशिश देखकर सुख मिला है। संकलन के अधिकांश लेख राजनीतिक गतिविधियों एवं व्यक्तित्वों से प्रेरित हैं, यह स्वाभाविक भी है। जनतांत्रिक व्यवस्था में अपने आस-पास घटती राजनीति के प्रति नागरिक की रुचि और प्रतिक्रिया एक जरूरी शर्त है इस व्यवस्था की सफलता की। यह पुस्तक इस दिशा में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है—सोच के लिए जमीन तैयार करती है। लेखक इसके लिए बधाई का पात्र है। समय-समय पर लिखे गए लेखों का यह संकलन हमारी जरूरत को पूरा करता है—आस्था, अस्मिता और अस्तित्व के चीर-हरण से उत्पन्न स्थितियों को समझाने और उनसे जूझने की जरूरत। इस चीर-हरण की पीड़ा को जो महसूस करते हैं, उन्हें यह पुस्तक सोचने के लिए बाध्य कर सकती है। क्या इससे भी बड़ा कोई उद्देश्य हो सकता है लेखक है ?

विश्वनाथ सचदेव

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