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कविता संग्रह >> कुछ पानी कुछ आग

कुछ पानी कुछ आग

नरेश शांडिल्य

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :87
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6049
आईएसबीएन :81-288-1738-8

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‘कुछ पानी कुछ आग’ नरेश शांडिल्य के दोहों का संग्रह है।

Kuch Pani Kuch Aag

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘कुछ पानी कुछ आग’ शीर्षक द्वारा कवि अपने अचेतन और परिवेशीय-देशीय दार्शनिक निकाय के दो बड़े तात्विक घटकों को छेड़कर पाठकों के चित्त में सुप्त संस्कारों को झंकृत करना चाहता है 'पानी' और 'आग' मनुष्य जाति के आदिम पुरातन तथा प्रथम अति परिचित संवेग भी है और संवेद भी है इस दोहा संग्रह में भाव और ज्ञान की द्वंद्वात्मक संवेदना को प्रस्तुत करने की कवि की पूर्ण चेष्टा है।

भाव और ज्ञान की द्वान्द्वात्मक संवेदना


‘कुछ पानी कुछ आग’ नरेश शांडिल्य के दोहों का संग्रह है। दोहा संस्कृति परंपरा से चल कर मध्ययुगी संतों-भक्तों की भक्ति तथा रीतिवादियों की अति ललित अभिव्यंजनाओं की भाव-सिक्त भूमियों की कल्लौल क्रीड़ाओं से संबंधित हिन्दी का अति लघु, किन्तु उतना ही कठिन छंद है। इसके कौशल को अर्जित करना भारतीय छांदस परंपरा में दीक्षित होने जैसा है क्योंकि केवल चौबीस मात्राओं की संख्या-पूर्ति करना तेरह-ग्यारह पर यति तथा अंत में गुरु लघु की गणित ही पर्याप्त नहीं आरंभ में भी ‘जगण’ नहीं होना तथा दोहा की विशेष लय का साधना, बिम्बात्मकता एवं समकालीन भावबोध की कसौटियां भी अनिवार्य है जो इस छंद को दोहने का कलात्मक आवश्यकताए है इन सीमांकनों में बधने पर दोहा-छन्द की खुशबू खिलती-घुलती है जो अपनी लघुता में गहन-गंभीर प्रभाव और घात छोड़ती है। नरेश शांडिल्य का कवि इससे पूर्व भी अपने दोहा-कविता संग्रहों ‘टुकड़ा-टुकड़ा ये जिन्दगी’ और ‘दर्द जब हँसता है’ के माध्यम से अपनी साधना और समर्पित निष्ठा की सुखद पहचान दे चुका है।

‘कुछ पानी कुछ आग’ शीर्षक के कवि अपने अचेतन एवं परिवेशीय-देशीय दार्शनिक निकाय के दो बड़े तात्विक घटकों को छेड़कर पाठकों के चित्त में सुप्त संस्कारों को झंकृत करना चाहता है। इसकी संयुक्त संवेद्य परिस्थिति हमारे भीतर यों ही स्वाभाविक लय-लपट उपन्न कर देती है फिर युग की चेतना एवं परिवेशीय समकालीन वेदना तथा उल्लास की अनुभूतियाँ हमें गहरी प्रतीतियाँ देकर आनंदित करती है नरेश शांडिल्य का कवि इस छन्द के माध्यम से कलात्मक के साथ भावबोध की साधना में अपनी आस्थावान चेतना के सोपान चढ़ रहा है समकालीन मुक्तछंद (छंद मुक्त) को रवायत करने के फैशन में बेचारगी ढोते कवियों विपरीत (पृथक नहीं) वह उल्टी धारा को चाहने वाला कवि है जो पानी और आग के प्राकृतिक मिथको को अपनी अभिव्यंजना का माध्यम बना रहा है। शीर्षक दोहा है।


अपने में जिन्दा रखो, कुछ पानी कुछ आग।
बिन पानी बिन आग के, क्या जीवन मे राग।।


पानी आँखों में लाज लिहाज से लेकर विभिन्न भावों की चमत्कृति एवं प्रति-बिम्बिन प्रक्रिया के लिये भी आवश्यक है। तथा आग जीवन-ऊर्जा, अस्तित्व रक्षा संघर्षशीलता के लिये अनिवार्य है। वैसे भी भारतीयों के सभी मुख्य संस्कार जन्म-मत्यु विवाह आदि में अग्नि की साक्षी उपस्थिति से बढ़ कर और कुछ इतना महत्त्व नहीं रखता। भारतीय अग्नि एवं सूर्य-पूजक जाति है

नरेश शांडिल्य के दोहों में भारतीय जीवन-दर्शन की छाप मौजूद है। इनके विश्व की किसी भी भाषा में अनूदित होने पर भी देख कर पहचाना जा सकता है। यह भौतिकता की छाप भी है और सृजनात्मकता की भी। विशेषकर सांस्कृतिक मिथकों में नये अर्थ-स्तरों की सांकेतिकता से अपने काव्य-सामर्थ को आस्वाद और सौन्दर्य से मंडित करने में। जैसे-


तन झर-झर शबरी हुआ, मन खिल कर राम।
बस उसकी ही रट लगी, मुझको आठों आम।।


रामचरितमानस की आदिवासी भीलनी और राम के मिलन की घटना के मिथक में नये अर्थ भरते हुए नरेश शबरी के तन ‘झर-झर शबरी हुआ’ से तन को झरने के जल –सा झरते बना रहे है या झरे पत्तों-फूलों वाले वृक्ष-,सा या अश्रुओं के झरने की स्थिति को संकेतिक कर रहे हैं। शबरी का आत्म-मन पुष्पों-सा खिल कर विकसित होकर राम बन गया है। यानी राम-सा दिव्य विराट, स्नेही और प्रेम बन गया है। उस राम का नाम आठों पहर रटने से मन राम ही बन गया है। भृंगकीट-न्याय-सा इतना हा नहीं इसी मनोदशा के विकास में

वो ही मेरा दिन सखी, वो ही मेरी रात
वो ही मेरा मौन है वो ही मेरी बात।।

दिन हो या रात मौन हो या वाक् मुखरता-सब एकमेक होकर अपनी पृथक स्थिति-पहचान गंवा चुके हैं। प्रेम की पराकाष्ठता को सटीक अभिव्यक्ति दे रहा है उक्त दोहा। प्रेमिका के लिये अपना रंग, रूप, गंध, वजूद, गँवा की विहल तत्परता भारतीय नायिका की अपनी उत्कट आकांक्षा विश्व साहित्य की नायिकाओं में उसे विशिष्ट बना देती है। उसका ज्वलंत उदाहरण जायसी में देखा जा सकता है। नागमती विरहाग्नि में राख बनकर पवन द्वारा उड़ा कर कंत के पाँव धरने के स्थान पर बिछ जाना चाहती है ताकि प्रेमी के पाँवों का स्पर्श पा सके।
दूसरी ओर, आधुनिक देश काल के प्रति कवि के सजगता-संवेदना विनाश की शक्तियों को रोकने और मानवीय आग्रहों को यो व्यक्त करती है-

बंदूकों को फेंक कर, लो वंशी को थाम।
नई सदी के पृष्ठ पर, लिखो नया पैग़ाम।।

आज तक की मनुष्य-सभ्यता बर्बरता के जिन घिनौने अत्याचारों-आतंकों को रास्ते से गुजर आयी है उस राह को नई सदी में छोड़ कर मानवीय-संवेदनीय-आत्मीय वंशी को अपनाने-थामने का पैग़ाम, दर्ज करने को कवि रह रहा है, क्योंकि इस पैमाने में धरती के समूचे अस्तित्व की ‘पुकार’ समायी हुई है। यहाँ मात्र व्यक्तिवादी सामी संस्कृति-सभ्यता की स्वार्थों-सनी आवाज नहीं। सभ्यता-संघर्ष नाम देकर विश्व के वर्तमान हिंसाचार में व्यक्त जो सभ्यता- संस्कृतियां उलझी हुई हैं।– उन्हें तीसरी समृद्ध आत्मिक आयाम वाली संस्कृति सही राह पर देखना चाहती है। क्योंकि यह तीसरी सांस्कृतिक पुकार-जड़-चेतन को तथा मनुष्य-मनुष्येतर जीवों को अभिन्न आत्मवत मानती है। यहाँ चिड़िया और मनुष्य के अस्तित्व एवं आवास की आकांक्षा में गंतव्य में, अंतर नहीं है-

चिड़िया रहती नीड़ में, मानुष रहा मकान।
अलग-अलग सामान है, मतलब एक समान।।

और उक्त मानवीय-संवेदनात्मक धरातल तक पहुँचने के लिए एक ऐसी पुस्तक की दरकार है, जो युगों के अंधकार को दूर करे और जिस पुस्तक का अक्षर-अक्षर अक्षय (परमात्मीय) ज्योति देने वाला हो तथा जो इस ज्योति को फैलाकर सभी प्रकार के अँधेरों को मिटा दे। फिर इसी पुस्तक को पढ़ने से वृहत्तर मानवीय धर्म से जुड़ने पर क्रिसमस, गुरुपर्व, दीवाली और ईद भी समवेत एकात्मभाव से मनायी जा सकेगी-

क्रिसमस हो गुरुपर्व हो, दीवाली या ईद।
ये शुभदिवस मनाइए, पुस्तक एक खरीद।।


कुबेर (धन कुबेर-पूँजीवादी सोच-व्यवहार) की अपेक्षा कबीर (आध्यात्मिक चेतना-सोच-सरोकार) की संतई तथा लोक उद्धार की चिंतना भारत की थाती रही है, जो इधर भारतीयों को जीवन सोच-व्यवहार में से तेजी से छीजती जा रही है, बल्कि कहना चाहिए वर्तमान बाजारवादी वैश्विक सोच के फैलने और फैलते जाने से क्षीण होती जा रही है। नरेश शांडिल्य का कवि इस क्षीण होती धारा के साथ है और भौतिकवादी, तथाकथित यथार्थवादी वृहत् होती धारा के विरूद्ध संतरणशील है मुखर है—

बेशक होगा शाह वो, मैं अलमस्त फ़कीर।
उसका पीर कुबेर है, मेरा पीर कबीर।।

पानी में उतरें चलो, हो जाएगी माप।
किस मिट्टी के हम बने, किस मिट्टी के आप।।


कवि के स्वर में एक चुनौती भी है। निर्धन, उपेक्षित, उत्पीड़ित की पक्षधरता में वह दृढ़ता से सन्नद्ध ही नहीं, ललकारता भी है-अपनी मानवीय संवेदना की जमीन पर खड़ा होकर –अलमस्त फ़कीर और कबीर के स्वरों में। जुझारूपन, संघर्ष और चुनौती को मशाल की तरह उठाए कवि कबीरी-फ़कीरी दुःसाहस में बोलता है, जो अपने समय की अपने से अतिशय बड़ी राजसी –साम्प्रदायिक, सामाजिक सत्ता-व्यवस्थाओं से भिड़ने से जरा भी संकोच नहीं करता।


भारतीय जीवन आज के अनेक प्रकार के जातीय धार्मिक विरोधाभाषों, अंधविश्वासों, कर्मकांडों में घिरा हुआ है। उसे पुनःआत्मजागृति, तर्कशीलता, वैज्ञानिक सोच से संयुक्त करने के आग्रह भी यहाँ कम मुखर नहीं है—


धर्म-मोक्ष का भी रहे, अर्थ-काम में ध्यान।
एक हाथ वेदान्त हो, एक हाथ विज्ञान।।


प्रकृति के साथ तादात्म्य भारतीय संस्कृति का मूलाधार है, इस कारण भारतीय कवि अनिवार्य रुप से पर्यावरण-विनाश को मानवीय विनाश से जहाँ पृथक करके नहीं देखता वहाँ दोनों के साझे दुःखों की वेदनाओं को परस्पर जोड़कर अनुभूत करता है तथा प्रकृति के तत्वों, घटकों के माध्यम से बिम्ब-प्रतीक लेकर मनुष्य के दुःखों को आकार देता है-


नदिया यानी ज़िंदगी, सागर यानी मौत।
दोनों के मन जग रही, महामिलन की जोत।।






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