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असतो मा सद्गमय

रेणु राजवंशी गुप्ता

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6041
आईएसबीएन :81-88267-60-0

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प्रस्तुत है पुस्तक असतो मा सद्गमय ...

Asto Ma Sadgamay a hindi book by Renu Rajvanshi Gupta - असतो मा सद्गमय - रेणु राजवंशी गुप्ता

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जिस प्रकार नदी का पानी बहते-बहते मिलता भी है तो बिछुड़ता भी है, पुराने तटों को छोड़ता है तो नए तट पकड़ता भी है, उसी प्रकार हम संसार के प्राणी जीवन से जीवन, स्थान में स्थान और काल से काल तक की यात्राओं में मिलते-बिछुड़ते रहते हैं।
प्रस्तुत उपन्यास ‘असतो मा सद्गमय’ में जीवन के सनातन पहलुओं से गुजरती हुई कथा आधुनिक राजतांत्रिक और अफसरशाही तक भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार की कथा भी है तो हमारी पुरातन, परन्तु नित नवीन आध्यात्मिक भारत की कथा भी है। इस कथा में भक्ति ज्ञान, अहंकार, उच्चाकांक्षा, संतोष, भाग्य, पदलिप्सा, लोभ, कर्म, स्नेह, औदार्य- सभी भाव समाहित हैं। यह कथा जीवन की सभी कलाओं से परिचय कराती है तथा चेतावनी देती है कि बुरे कर्मों का परिणाम बुरा ही होता है।
प्रस्तुत उपन्यास की कथा यथार्थ की भूमि से निकली है, जिसे प्रसिद्ध लेखिका रेणु ‘राजवंशी’ गुप्ता ने अपने विद्यार्थी जीवन में निकट से देखा था।
इस उपन्यास को पढ़कर पाठक एक ओर भारतीय पुलिस तंत्र की पदलिप्सा, भ्रष्टता, उच्चाकांक्षा तो दूसरी ओर ईमानदारी, स्नेह और औदार्य से परिचित होंगे।

भूमिका

श्रीमती रेणु गुप्ता ‘राजवंशी’ अमेरिका में रहनेवाली ऐसी लेखिका हैं, जिन्होंने हिन्दू धर्म, संस्कृति, साहित्य तथा सामाजिक कार्यों में भारी योगदान किया है। उनका जीवन इन्हीं कार्यों में व्यतीत होता है और इससे बड़ी विशेषता यह है कि वे अमेरिका में रहनेवाले भारतीयों के संगम और सम्मिलन के माध्यम से उन्हें भारत की मिट्टी से जोड़े रखने के उद्योग करती रहती हैं। रेणुजी से मेरी पहली भेंट मेरे निवास पर तब हुई जब वे विगत वर्ष दिल्ली आईं थीं। तब उनसे उनके रचना-संसार तथा प्रवासी भारतीयों के जीवन पर विस्तार से बातचीत हुई थी और मैंने आग्रह किया था कि वे महात्मा गांधी के जीवन पर एक उपन्यास लिखें। उसके बाद उनके आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर न्यूयॉर्क में भेंट हुई और तीन दिन बराबर उनका सान्निध्य मिलता रहा, तभी उन्होंने बताया कि उनका उपन्यास ‘असतो मा सद्गमय’ प्रकाशित होने जा रहा है और मुझे उसके लिए कुछ शब्द लिखने हैं।

मेरी रुचि प्रेमचन्द के बाद प्रवासी हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक है और मेरा प्रयास रहता है कि उसे हिन्दी का मुख्य धारा का अंग बनाया जाए। सूरीनाम में आयोजित सातवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर मैंने ‘विश्व हिन्दी रचना’ कृति का संपादन किया था, जिसे भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया तथा जिसका विमोचन सूरीनाम के राष्ट्रपति द्वारा किया था। आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर भोपाल से प्रकाशित हिन्दी पत्रिका ‘साक्षात्कार’ के ‘प्रवासी हिन्दी साहित्य विशेषांक’ का भी संपादन किया, जिसे बहुत पसंद किया गया। मेरा दृढ़ मत है कि हिन्दी के प्रवासी साहित्य की अभी तक जो उपेक्षा होती रही है, उसे बंद करके हमें इस साहित्य को जनता तक पहुँचाना चाहिए, उसे हिन्दी की मुख्य धारा का अंग मानना चाहिए तथा इस साहित्य को भी पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। हिन्दी का यह प्रवासी साहित्य हमें नई संवेदना, नए परिवेश तथा नए-नए सरोकारों से अवगत कराता है तथा एक ऐसे संसार से परिचित कराता है जो भारत में रहनेवाला लेखक नहीं दे सकता। अत: हमें प्रवासी हिन्दी साहित्य को देते हुए उसके समुचित मूल्यांकन का मार्ग खोलना चाहिए।
 
श्रीमती रेणु जी ने कहानी, कविता, लेख, उपन्यास, आदि अनेक विधाओं में लिखा है और उसकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘असतो मा सद्गमय’ उनका नया उपन्यास है। यह उपन्यास प्रमुख रूप से भारत के पुलिस अधिकारियों के कदाचार और भ्रष्टाचार तथा अपनी शक्ति के दुरुपयोग के परिणाम भोगने की मार्मिक कहानी है। इसमें पुलिस अधिकारियों के दो रूप हैं- एक रणजीत सिंह चौधरी हैं, जो पुलिस उच्च पदाधिकारी हैं और सभी तरह की बुराइयाँ उनमें हैं। वे शक्तिशाली हैं, राजनेताओं और अपने बड़े अधिकारियों के प्रिय हैं, खूब रिश्वत लेते हैं और अपने प्रतिकूल पुलिस अधिकारियों को दबाकर रखते हैं तथा अवसर मिलने पर दंडित भी करवाते हैं। मुख्य कथा इसी पात्र की है। उसके पुत्र-पुत्री सुख-सुविधाओं में जीते है, शादी-व्याह में लाखों खर्च होते हैं और बेटा मधुकर अमेरिका पढ़ने जाता है तो वहाँ के संघर्षपूर्ण जीवन में व्यवस्थित न होने पर आत्महत्या कर लेता है।

उपन्यास के अन्त में चौधरी और उसकी पत्नी दोनों मर जाते हैं और कथावाचिक की दादी का यह वचन सत्य है कि जो जैसा कर्म करता है, वह वैसा ही फल पाता है। रणजीत सिंह चौधरी जैसे कर्म किए उसे वैसा ही फल मिला। पुलिस अधिकारी का दूसरा रूप है- सत्येन्द्र शर्मा का, जो रिश्वत नहीं लेता, सीधा-सरल जीवन जीता है। शर्मा कई बार चौधरी रणजीत सिंह से अपमानित, प्रताडित तथा दंडित होता है, परन्तु अपना जीवन-दर्शन नहीं बदलता तथा वह चौधरी के कुटिल व्यवहार पर उससे कोई बदला भी नहीं लेता। यहाँ तक कि उसकी बेटी अमेरिका में रणजीत सिंह चौधरी के बेटे मधुकर की सहायता करती है और उसकी आत्महत्या पर अत्यन्त दु:खी होती है।

‘असतो मा सद्गमय’ पुलिस जीवन पर लिखा गया यथार्थवादी उपन्यास है, जो भारतीय पुलिस के भ्रष्टाचारी तथा तानाशाही से पूर्ण चेहरे को उद्घाटित करता है। उपन्यास की कथा तथा अंत यथार्थपूर्ण हैं, परन्तु लेखिका का संदेश यही है कि हमें सद्मार्ग पर चलना चाहिए। लेखिका का यह आदर्शवाद उपन्यास में छिपा है, लेकिन घटनाओं के परिणाम तथा वर्णनकर्ता की दृष्टि इस आदेश को हृदयंगम करने को प्रेरित करती है। लेखिका ने मधुकर के माध्यम से अमेरिका को भी कथा से जोड़कर अपने कौशल का परिचय दिया है। लेखिका की सफलता कथा-संयोजन तथा पात्रों के चरित्रांकन में है तथा उसकी वर्णनात्मकता में भी अनोखा कौशल है। यह कुछ आश्चर्य की बात है कि वर्षों से अमेरिका में रहनेवाली लेखिका ने भारतीय पुलिस के भ्रष्टाचार को इतनी बारीकी तथा प्रामाणिकता के साथ कैसे प्रस्तुत किया है ? हमें लेखिका की प्रतिभा और संवेदनशीलता के घनत्व को स्वीकार करना होगा। मुझे विश्वास है कि पाठक इसे पढ़कर यह अवश्य सोचेगा कि सद्मार्ग पर चलना ही श्रेयस्कर है। इस कृति के लिए लेखिका को मेरी बधाई !

-कमल किशोर गोयनका

अपनी बात

कल्पना पहले जनमी या यथार्थ पहले धरा पर आया ? यह अंडा और मुरगीवाली पहेली जैसे ही जटिल है। यथार्थ की नींव कल्पना पर रखी जाती है तो प्रत्येक कल्पना कहीं-न-कहीं यथार्थ का रूप धारण करती है।
प्रस्तुत उपन्यास या कहूँ उपान्यासिका, की भूमिका यथार्थ की भूमि से निकली है। अपने विद्यार्थी जीवन में इस कथा को मैंने निकट से देखा है। यह कथा तीस वर्ष मेरे हृदय-स्थल में स्थापित हो गई थी तथा मानस पटल पर लिखी हुई थी। पिछले तीस वर्षों से मेरे अंतर्मन में पल रही यह कथा उथल-पुथल मचाती रही, नित नवीन आकार लेती रही। अंतत: मेरी लेखनी ने तीस वर्ष पश्चात् इस कथा को ‘असतो मा सद्गमय’ के नाम से धारण किया है।
जीवन के सनातन पहलुओं से गुजरती यह कथा आधुनिक राजतांत्रिक एवं अफसरशाही तथा भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार की कथा भी है तो हमारी पुरातन, परन्तु नित नवीन आध्यात्मिक भारत की कथा भी है। इस कथा में भक्ति ज्ञान, अहंकार, उच्चाकांक्षा, संतोष, भाग्य, पदलिप्सा, लोभ, कर्म, स्नेह, औदार्य- सभी भाव परिलक्षित होते हैं। यह कथा जीवन की सभी कलाओं से परिचय कराती है। बुरे कर्मों का नतीजा बुरा ही होता है, यह चेतवनी भी देती है। हमारा व्यक्तित्व एवं सामाजिक पतन कितना ही हो जाए, परन्तु उच्च जीवन-मूल्यों एवं सांस्कृतिक निधि ने हमें गिरने से बार-बार बचाया है और गिरे हुओं को उठाया है।

जिस प्रकार नदी का पानी बहते-बहते मिलता भी है तो बिछुड़ता भी है, पुराने तटों को छोड़ता है तो नए तट पकड़ता भी है, उसी प्रकार हम संसार के प्राणी जीवन से जीवन, स्थान में स्थान और काल से काल तक की यात्राओं में मिलते-बिछुड़ते रहते हैं। यह बहुधा संभव हो सकता है कि ‘असतो मा सद्गमय’ के काल्पनिक पात्रों में आपको अपना या अपने परिचितों का चेहरा दिखाई दे। वास्तव में लेखक की सार्थकता तभी है जब उसके लेखन में व्यक्तिगत से सार्वभौमिक बनने की क्षमता हो। वह समस्त मानवजाति की आपबीती बन जाए।

उपन्यास लिखने का यह मेरा प्रथम प्रयास है। पात्रों के चयन, उनके चरित्र के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, शब्दावली, व्याकरण, भाषा-प्रवाह या कथानक के विकास में पाठकों को त्रुटियाँ मिल सकती हैं। मेरा विश्वास है कि पाठक मेरी त्रुटियों को क्षमा करेंगे तथा अपने मूल्यवान सुझावों से मेरे लेखन को परिष्कृत करेंगे।
मैं अपने माता-पिता का भी कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने उपन्यास के लिखने के लिए अपने अनुभवजनित सुझाव दिए तथा अनेक घटनाओं और सरकारी तंत्र की बारीकियों से परिचित कराया।

मेरे पति, मित्र एवं सहयोगी अरुण ने सदैव मुझे प्रोत्साहित किया है। उन्होंने मेरी सफलता को सदैव अपनी सफलता माना है डॉ. कमल किशोर गोयनका मेरे लेखन के पथ-प्रदर्शक रहे हैं। प्रवासी साहित्य को भारत में लाने का उनका प्रयास स्मरणीय रहेगा। आपने अपने बहुमूल्य समय में से समय निकालकर इस उपन्यास पर अपने आशीर्वाद-स्वरूप सुझाव दिए हैं।
पाठकों के सुझाव सादर आमंत्रित हैं।

राजवंशी’ गुप्ता


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