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कुमारसंभव

मूलचन्द्र पाठक

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6040
आईएसबीएन :81-88140-90-2

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प्रस्तुत कृति संस्कृत के अमर कवि कालिदास के ‘कुमारसंभव’ महाकाव्य के काव्यानुवादन का एक अभिनव प्रयास है।

Kumarsambhav

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘कुमारसंभव’ का शाब्दिक अर्थ है- ‘कुमार का जन्म’। यहाँ ‘कुमार’ से आशय शिव-पार्वती के पुत्र कार्तिकेय से है। इस कृति के पीछे कवि का उद्देश्य है- शिव पार्वती की तपस्या, प्रेम, विवाह और उनके पुत्र कुमार कार्तिकेय के जन्म की पौराणिक कथा को एक महाकाव्य का रूप देना।
कुमारसंभव महाकाव्य में यो तो 17 सर्ग मिलते है, पर उनमें से प्रारंभिक आठ सर्ग ही कालिदास रचित स्वीकार किए जाते हैं। अतः प्रस्तुत काव्यानुवाद में विद्वानों की लगभग निर्विवाद मान्यता को ध्यान में रखते हुए केवल प्रारंभिक आठ सर्गों को ही आधार बनाया गया है।

कवित्व व काव्य-कला के हर प्रतिमान की कसौटी पर ‘कुमारसंभव’ एक श्रेष्ठ महाकाव्य सिद्ध होता है। मानव-मन में कवि की विलक्षण पैठ हमें हर पृष्ठ पर दृष्टिगोचर होती है। पार्वती, शिव की प्राप्ति सांस्कृतिक महत्व के प्रसंग हैं। कवि ने दिव्य दंपती को साधारण मानव प्रेमी-प्रेमिका के रूप में प्रस्तुत कर मानवीय प्रणय व गार्हस्थ्य जीवन को गरिमा-मंडित किया है।

आमुख

कविकुलगुरु के विरुद्ध से विख्यात संस्कृत के रससिद्ध  मूर्धन्य कवि कालिदास की सात कृतियाँ परंपरा से प्रसिद्ध हैं, जिनमें से ‘कुमारसंभव’ और ‘रघुवंश’ दो  महाकाव्य, ‘ऋतुसंहार’ व ‘मेघदूत’ दो खंड काव्य तथा ‘मालविकाग्निमित्र’, ‘विक्रमोर्वशीय’ एवं ‘अभिज्ञानशाकुंतल’ ये तीन नाटक उनकी सर्वतोमुखी प्रतिमा एवं प्रकृष्ट काव्य-कला के निदर्शन है। साहित्य के देशी व विदेशी सभी वि्द्वानों व पारखियों ने कालीदास को लौकिक संस्कृत साहित्य का सर्वोत्क़ृष्ट कवि स्वीकार किया है। उनकी उक्त सभी काव्य-रचनाएँ कम-से-कम डेढ़ हजार वर्ष से काव्य-रसिकों को आनंद प्रदान करती रही हैं। यह भी कहा जा सकता है कि जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, वैसे-वैसे एक विश्नस्तरीय कवि के रूप में उनकी लोकप्रियता व सम्मान का विस्तार होता जा रहा है।

कालिदास भारतीय रस-चेतना, सौंदर्य-बोध सांस्कृतिक गरिमा, काव्य-कला के चरम उत्कर्ष एवं जीवन के प्रति एक रागात्मक दृष्टि के प्रतिनिधि कहे जा सकते हैं। उनकी कृतियाँ केवल अपने कवित्य व काव्य-कला के कारण ही श्लाघ्य नहीं हैं, उनमें कवि ने मानव जीवन की जिन अनुभूतियों, मान्यताओं और मूल्यों का निरूपण किया है, वे भी उनके प्रति आकर्षण के अजस्र स्रोत हैं।

यों तो कालिदास की विभिन्न रचनाओं का भी भारत और विश्व की प्रायः सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद हो चुका है, फिर भी ऐसे अनुवादों व रूपांतरणों की  आवश्यकता निरंतर बनी हुई है, क्योंकि प्रत्येक पीढ़ी में काव्य की भाषा, अभिव्यक्ति और शैलियों में सतत परिवर्तन होता रहता है और नए पाठकों की नूतन रुचि व माँग के अनुसार क्लासिक कृतियों के अभिनव अनुवादों की अपेक्षा सदैव जीवित रहती है। कालिदास जैसे महान् रचनाकारों के बारे में तो यह बात निश्चय ही निस्संकोच कही जा सकती है। कालिदास के ‘कुमारसंभव’ महाकाव्य का यह काव्य रूपांतर इसी दिशा में एक विनम्र प्रयास है।
 
‘कुमार संभव’ महाकाव्य में यो तो 17 सर्ग मिलते हैं; पर उनमें से प्रारंभिक आठ ही कालिदास रचित स्वीकार किए जाते है; शेष नौ सर्गों की रचना बाद में, संभवतः अनेक शताब्दियों के अनंतर, किसी अन्य कवि के द्वारा की गई, जिसका न समय ज्ञात है न नाम ही। अतः ‘कुमार संभव के प्रस्तुत अनुवादन में विद्वानों की लगभग निर्विवाद मान्यता को ध्यान में रखते हुए केवल प्रारंभिक आठ सर्गों को ही आधार बनाया गया है। कुमारसंभव का शाब्दिक अर्थ है- ‘कुमार का जन्म।’ यहाँ कुमार से आशय शिव-पार्वती के पुत्र कार्तिकेय या स्कंद से है। कवि का उद्दे्श्य शिव-पार्वती की तपस्या, प्रेम, विवाह और उनके पुत्र कुमार कार्तिकेय के जन्म की पौराणिक कथा को एक महाकाव्य का रूप देना है। कवि ने कथा के सूत्र कहाँ से लिये, यह बताना कठिन है वैसे ‘शिव महापुराण’ व अन्य पुराणों में इस कथा के अनेक प्रसंग व सूत्र मिलते हैं, पर पुराणों का रचना काल अनिश्चित होने के कारण यह बताना संभव नहीं कि कालिदास ने पुराणों से यह कथा ली है या पुराणों ने ही कालीदास से काव्य से प्रभावित होकर इसके अनेक प्रसंगो व अभिव्यक्तियों को अपना लिया है।

उदाहरण के लिए शिव महापुराण में कुमारसंभव की अनेक पंक्तियां, वाक्य, शब्द-प्रयोग व प्रसंग उसी रूप में उपलब्ध है। ‘रामायण’ के बालकांड के सैंतीसवें सर्ग तथा ‘महाभारत’ के वन पर्व के अध्याय 225 में भी कार्तिकेय या  स्कंद के जन्म की कथा संक्षेप में कही गई है, पर कवि ने वस्तुतः किस स्त्रोत से यह कथा ली और उसमें क्या-क्या परिवर्तन किए, यह बताना संभव नहीं है।

नौवें से सत्रहवें सर्ग तक का भाग कालिदास कृत नहीं है, इस विषय में अनेक तर्क दिये गये हैं। अरुणगिरिनाथ व मल्लिनाथ ने ‘कुमारसंभव’ के आरंभिक आठ सर्गों पर ही अपनी टीका लिखी है। यदि आगे सर्ग उन्हें उपलब्ध होते तो वे उन पर भी टीका लिखते। दूसरे काव्यशास्त्र के आचार्यों ने प्रारंभ के आठ सर्गों में से ही अपने ग्रन्थों में श्लोक उद्धृत हैं, आगे के नौ सर्गो में से एक भी उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया। तीसरे इन सर्गों में कवित्व व काव्य कला का स्तर पूर्व के आठ सर्गों की तुलना में घटिया है, उसे कालिदास की व कवित्व शक्ति के अनुरूप माना जा सकता है। इस भाग के श्लोकों में व्याकरण की अनेक त्रुटियाँ छंदोभंग, यतिभंग तथा अनेक दोष दृष्टिगत होते हैं, जिससे कोई संदेह नहीं रह जाता कि इन परवर्ती नौ सर्गों की रचना बाद में किसी अज्ञातनामा  कवि ने की और कालिदास की मूल रचना के साथ उसे मिला दिया। इन नौ सर्गों में कुमार कार्तिकेय के जन्म बाल्यकाल, युवा होने पर उसके द्वारा देवसेना का नेतृत्व तथा अत्याचारी तारकासुर वध आदि का वृत्तांत विस्तार से प्रस्तुत किया है। इस प्रकार नौ सर्गों के इस अज्ञात लेखक ने काव्य के नाम को ध्यान रखते हुए कुमार कार्तिकेय के जन्म आदि प्रसंगों की रचना कर अपनी दृष्टि से कालिदास के अपूर्ण काव्य को पूरा करने का प्रयास किया है

कालिदास-प्रणीत अंश के आठवें सर्ग में कवि ने शिव  व पार्वती की विवाहोपरांत कामक्रीड़ाओं का काफी खुलकर वर्णन किया गया है। परंपरा से यह प्रसिद्ध है कि कालिदास के इस वर्णन से पार्वती जी रुष्ट हो गई और इसे माता–पिता के नग्न श्रृंगार-चित्रण के  समान मानते हुए कवि को शाप दिया, जिसके कारण कालिदास अपनी कवित्व-शक्ति से वंचित हो गए व काव्य को पूरा नहीं कर सके। एक मान्यता यह भी है कि शिव-पार्वती के संभोग-वर्णन को अनुचित मानते हुए तत्कालीन सहृदयों ने कालिदास की कटु आलोचना की, जिससे हतोत्साहित होकर उन्होंने काव्य को अधूरा ही छो़ड़ दिया। संभवतः इसलिए कवि काव्य के नामकरण के अनुसार इसमें कुमार कार्तिकेय के जन्म के प्रसंग का वर्णन नहीं कर सका। एक मत यह भी है कि इस काव्य की एकमात्र मूल में से आठवें सर्ग के बाद के पन्ने किसी कारण से तुल्य या नष्ट हो गए, जिनमें कुमार-जन्म का वृत्तांत रहा होगा। एक सर्ग समाप्त होने के बाद कवि की अकस्मात मृत्यु हो गई और यह अधूरा ही रह गया, पर यह कल्पना उचित प्रतीत नहीं होती, क्योंकि फिर तो हमें ‘कुमारसंभव’ को कवि की अंतिम रचना मानना पड़ेगा, जबकि ‘रघुवंश’ कुमारसंभव’ के बाद का काव्य मालूम पड़ता है।

संभव है, कालिदास का उदे्श्य कुमार कार्तिकेय के जन्म का संकेत मात्र करना रह हो, न कि उसका साक्षात् विस्तृत वर्णन। इस दृष्टि से ‘कुमारसंभव’ अपने वर्तमान रूप में एक संपूर्ण काव्य ही माना जाना चाहिए, अधूरी रचना नहीं।
संक्षेप में, कालिदास कृत ‘कुमारसंभव’ में केवल आठ सर्ग ही होने का कुछ भी कारण रहा हो, उनका कर्तव्य इसमें आठ सर्गों तक ही प्रमाणित है; अतः प्रस्तुत लेखक ने इस काव्य के अनुवाद को इसी अंश तक सीमित रखा है।
कालिदास ने  इस काव्य को हिमालय-वर्णन से आरंभ किया है। प्रथम सर्ग के प्रारंभिक सत्रह पद्यों में कवि ने हिमालय पर्वत का भव्य व गरिमापूर्ण चित्रण  करते हुए इसकी विविध छवियों, प्राकृतिक वैभव इसके निवासियों के कार्य-कलापों तथा पर्वतराज के  पुराकथात्मक व्यक्तित्व का उदात्त चित्रण किया है। तत्पश्चात् पार्वती के जन्म, बाल्यकाल, यौवन-प्राप्ति व विलक्षण सौंदर्य का परिचय देते हुए नारद की भविष्यवाणी का उल्लेख किया गया है, जिसके अनुसार पार्वती का विवाह शिव के साथ ही होगा। इस भविष्वाणी में विश्वास कर पिता हिमालय पुत्री को कैलास पर्वत पर तपस्यारत भगवान् शिव की सेवा के लिये भेज देता है।

दूसरे सर्ग में इंद्र आदि सभी देवता तारकासुर के  अत्याचारों से त्रस्त होकर ब्रह्माजी के पास जाकर अपनी कष्ट-कथा सुनाते है तथा प्रार्थना करते हैं कि आप ही तारकासुर का दमन कर सकते हैं। ब्रह्माजी अपनी विविशता प्रकट करते हैं कि मेरे ही वरदान से वह इतना शक्तिशाली हुआ है, मैं स्वयं उसका संहार नहीं कर सकता। वे देवताओं को उपाय बताते हैं कि शिव का यदि पार्वती से विवाह हो जाए तो इस युगल से उत्पन्न पुत्र तारकासुर को नष्ट कर सकता है।

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