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हास्य-व्यंग्य >> भगवान ने कहा था

भगवान ने कहा था

सूर्यबाला

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6038
आईएसबीएन :81-88267-68-6

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प्रस्तुत है पुस्तक भगवान ने कहा था .......

Bhagwan Ne Kaha Tha a hindi book by Suryabala - भगवान ने कहा था- सूर्यबाला -

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


इसके बाद भगवान का स्वर उदास हो आया, ‘‘मेरे इस मंदिर का सोने का कलश कब से टूटा हुआ है और मुझे अच्छी तरह मालूम है कि चढ़ावा इतना तो आता ही है कि कलश पर सोने का पत्तर चढ़वा दिया जाए। लेकिन पुजारी सब आपस में ही बाँट-बूँटकर खा जाते हैं। प्रबंध न्यासी भी इसमें काफी सक्रिय भूमिका निभाते हैं। और फिर प्रेस विज्ञप्तियों के सहारे सरकार तक अपनी गुहार पहुँचाते हैं कि मंदिर निरंतर घाटे में जा रहा है, अनुदान की राशि बढ़ाई जानी चाहिए।

यहाँ तक आते-आते भगवान् हताश ध्वनित हुए। अपनी स्थिति पर क्षोभ व्यक्त करते हुए बोले, ‘‘आप ही सोचिए, कलश का पत्तर उखड़ा होने से मंदिर की और मेरी भी इमेज बिगड़ती है या नहीं ? साख भी गिरती ही है। भक्तों को क्या दोष दें, सोचेंगे ही कि जब इस मंदिर का भगवान् अपना ही टूटा छत्तर नहीं दुरुस्त करवा पा रहा है तो हमारे उधड़े छप्पर क्या छवाएगा ! हमारी बिगड़ी क्या बनाएगा ! क्यों न किसी दूसरे, ज्यादा समर्थ भगवान् के पास चला जाए।’’

इसी पुस्तक से

प्रसिद्ध लेखिका सूर्यबाला के इस विविध विषयी व्यंग्य-संग्रह जीवन के लगभग हर क्षेत्र की विसंगतियों-विद्रूपताओं पर करारी चोट की गई है। एक ओर जहाँ ये व्यंग्य भरपूर मनोरंजन करते है, वहीं दूसरा ओर पाठक को कुछ सोचने-करने पर विवश करते हैं।

भगवान् ने कहा था


भगवान् के मंदिर में सुबह से जबरदस्त गहमागहमी थी। कारण, प्रदेश के नवनियुक्त सांस्कृतिक सचिव महोदय आज भगवान् के दर्शनार्थ पधारने वाले थे या कह लें, ‘विजिट’ करनेवाले थे।

सो सरगर्मी आज से नहीं, हफ्तों पहले से थी। मंदिर के चारों तरफ भक्तों और श्रद्धालुओं की पूजा-अर्चना के फलस्वरूप इकट्ठा हुआ कीचड़-काँदों और सड़े फूल-मालाओं का कचरा पूरी मुस्तैदी से हटाया जा रहा था। अगल-बगल का सारा एरिया धूल-धक्कड़ और मक्खी-मच्छरविहीन किया जा रहा था। गड्ढे-गड्ढियों में गैर-मिलावटी डी.डी.टी छिड़का जा रहा था। मंदिर प्रांगण से बाहर भी दूर तक दोनों तरफ सिंदूर-टुकुली, कंघी-शीशा और शक्कर-फुटाने का प्रसाद बेचनेवालों को खदेड़-खदेड़कर भगाया जा रहा था।

बाहरी स्वच्छता अभियान के साथ-साथ मंदिर के अंदर भी चारों तरफ के ताखों पर बैठे देवी-देवताओं को भी सिंदूर-तेल आदि चुपड़कर चमकाया जा रहा था। प्रांगण तो झाड़ू—पानी और फिनाइल से धो-धोकर ऐसे स्वच्छ कर दिया गया था कि स्वयं भगवान् को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह उनके मंदिर का प्रांगण है।
दरअसल, यह खबर अब आम हो चुकी थी कि नवनियुक्त सांस्कृतिक सचिव महोदय अत्यंत धर्मनिष्ठ व्यक्ति हैं। पर्व-त्योहार तथा कथा-प्रवचन आदि में बड़ी रुचि है उनकी। अलावा इसके हर अमावस्या तथा पूर्णमासी, प्रदोषादि दिवसों पर बिना नागा प्रातःकाल सत्यनारायण कथा के माध्यम से साधू बनिया, उसकी पत्नी लीलावती तथा कलावती कन्या से इनकी भेंटवार्ता लगभग तय रहती है।

यही कारण है कि इस शहर के दौरे का कार्यक्रम निश्चित करने के साथ ही सचिव महोदय ने राष्ट्रीय स्तर और सांस्कृतिक महत्त्व के इस मंदिरवाले भगवान् का अभिषेक करने की मनशा जाहिर की थी।

बस, इसी का नतीजा था कि पलक झपकते भगवान् का मंदिर लगभग एक विवाह योग्य हिंदुस्तानी लड़की के पारंपरिक घर में तब्दील हो चुका था।
सचिव महोदय संध्याकाल की आरती में सम्मिलित होना चाहते थे। आरती का समय ठीक सात बजे था। सालो से यह सिलसिला चला आ रहा था; लेकिन सालों से किसी सचिव, कमिश्नर ने इस मंदिर को ‘विजिट’ करने की इच्छा भी तो जाहिर नहीं की थी। इन सचिव महोदय ने की थी, अतः भगवान् और पुजारियों का यह फर्ज बनता था कि उनकी इस इच्छा को अंजाम दें।

इसलिए प्रतीक्षा आरंभ हुई। सचिव महोदय के आगमन में विलंब होने के साथ-साथ आरती की वेला भी चलने लगी। छोटे पुजारी परेशान होकर उप-पुजारी की तरफ देख रहे थे। उप-पुजारी व्यग्र भाव से प्रमुख पुजारी की ओर और प्रमुख पुजारी भगवान् की ओर। भगवान् खुद पसोपेश में थे। अतः ‘तथास्तु’ और ‘एवमस्तु’ के बीच का मिला-जुला कुछ ऐसा घालमेली सिग्नल दे रहे थे, जिसका कुछ भी अर्थ निकाला जा सकता था।

प्रमुख पुजारी अनुभवी थे। सही अर्थ लगाया कि भगवान् की मनशा है कि सांस्कृतिक सचिव महोदय के आगमन तक आरती-अभिषेक रोका जा सके तो अच्छा। प्रमुख पुजारी के इस निष्कर्ष का सभी पुजारियों ने सहभाव से स्वागत किया। इंतजार और सही। अब भगवान् कह रहे हैं तो कुछ सोच-समझकर ही कह रहे होंगे।

अंततः मंदिर के मुख्य द्वार पर लाल-पीली बत्तियोंवाली गाड़ियों का काफिला हचाक्-हचाक् की ध्वनि के साथ आकर रुका। मातहतों तथा छोटे-बड़े अधिकारियों से घिरे सांस्कृतिक सचिव महोदय पधार गए थे। चुस्त-दुरुस्त कारवाँ झूमते-झामते मुस्तैदी से मंदिर की ओर चल पड़ा।
तैयारी सब पहले से थी ही। ‘हर-हर महादेव’ के जयगोष के साथ आरती-/महाभिषेक इस तरह प्रारंभ हुआ जैसे सचिव महोदय के रूप में भगवान् अभी-अभी ही मंदिर में पधारे हैं। पूजा-अर्चना की प्रक्रिया भी कुछ इसी तरह चली। सर्वप्रथम प्रमुख पुजारी ने सचिव महोदय की अगवानी की, उन्हें तिलक लगाया, माल्यार्पण किया। अंगवस्त्रम् चढ़ाकर चाँदी के नटराज की वजनी मूर्ति भेंटस्वरूप दी। तत्पश्चात् सचिव महोदय से विधि-विधानपूर्वक पूजन अर्चन करवाया गया।

उतनी देर तक छुटभैए, पुजारी, द्वार पाल और कर्मचारी मामूली भक्तों और दर्शनार्थियों को लगातार पीछे खदेड़ते रहे। कुछ हठी किस्म के भक्त-श्रद्धालु नहीं माने तो मंदिर के बाहर तैनात पुलिसकर्मियों ने एकाध डंडे जमाकर उन्हें पस्त कर दिया। इस प्रकार सभी कार्य बड़े सुचारु रूप से संपन्न हुए।

भगवान् भी बड़े प्रेम से मिले। सांस्कृतिक सचिव महोदय को ऐसी उम्मीद न थी। उन्होंने एक आस्थावान् भारतीय की तरह गद्गद भाव से हाथ जोड़कर कहा, ‘‘बड़े दिनों से आपके दर्शन की अभिलाषा थी, प्रभो ! आज पूर्ण हुई।’’
जवाब में भगवान् ने भी बड़े प्रेम से कहा, ‘‘स्वयं मेरी भी बड़ी इच्छा थी आपके दर्शनों की।’’
सांस्कृतिक सचिव महोदय अचकचाए, ‘‘आपको मेरे दर्शनों की इच्छा ! क्या कहते हैं, भगवान् ! कुछ समझ नहीं आया।’’
भगवान् सकुचाते हुए बोले, ‘‘ठीक कह रहा हूँ, सचिव महोदय। देखते नहीं हैं, आजकल पढ़े-लिखे, सभ्य-सुशिक्षित लोग मंदिर में आते कहाँ हैं ! तरस जाता हूँ किसी सूटेड-बूटेड, सफारी-सुसज्जित ढंग के आदमी के साथ उठने-बैठने को। जब देखो, बेपढ़े, उजड्ड-गँवार मनौतियों की पोटलियाँ और लोटे भर-भर प्रदूषित नदियों का पानी लिये धक्कम-धुक्की करते चले आते हैं।’’
भगवान् शुद्ध बौद्धिक विमर्श के मूड में थे। आगे बोले, ‘‘मंदिरों में आपसी प्रतिस्पर्धा भी इतनी बढ़ गई है कि जिन लोगों में थोड़ी-बहुत श्रद्धा-भक्ति बची भी है, वे उन्हीं मंदिरों में जाना पसंद करते हैं जिनकी पब्लिसिटी बढ़-चढ़कर करवाई जाती है। ज्यादा प्रचारित मंदिरों में चढ़ावा और नकदी भी जाहिर है, ज्यादा पहुँचता है—और जहाँ नकदी चढ़ावा ज्यादा अर्पण किए जाएँगे, महात्म्य-महिमा भी वहीं की गाई जाएगी न।’’
इसके बाद भगवान् का स्वर उदास हो गया, ‘‘मेरे इस मंदिर का सोने का कलश कब से टूटा हुआ है और मुझे अच्छी तरह मालूम है कि चढ़ावा इतना तो आता ही है कि कलश पर सोने का पत्तर चढ़वा दिया जाए। लेकिन पुजारी सब आपस में ही बाँट-बूँटकर खा जाते हैं। प्रबंध न्यासी भी इसमें काफी सक्रिय भूमिका निभाते हैं। और फिर प्रेस विज्ञप्तियों के सहारे सरकार तक अपनी गुहार पहुँचाते हैं कि मंदिर निरंतर घाटे में जा रहा है, अनुदान की राशि बढ़ाई जानी चाहिए।’’

यहाँ तक आते-आते भगवान् हताश ध्वनित हुए। अपनी स्थिति पर क्षोभ व्यक्त करते हुए बोले, ‘‘आप ही सोचिए, कलश का पत्तर उखड़ा होने से मंदिर की और मेरी भी इमेज बिगड़ती है या नहीं ? साख भी गिरती ही है। भक्तों को क्या दोष दें, सोचेंगे ही कि जब इस मंदिर का भगवान् अपना ही टूटा छत्तर नहीं दुरुस्त करवा पा रहा है तो हमारे उधड़े छप्पर क्या छवाएगा ! हमारी बिगड़ी क्या बनाएगा ! क्यों न किसी दूसरे, ज्यादा समर्थ भगवान् के पास चला जाए।’’

‘‘पहले के पुजारी तो कभी-कभार मुझसे संपर्क स्थापित करने की कोशिश भी करते थे, लेकिन आजकलवालों को तो मेरी तरफ देखने तक की फुरसत नहीं। जो जितना ज्यादा कमीशन देता है उसी को घंटे-घड़ियाल और केवड़ा-गुलाब आदि का कॉण्टेक्ट दे देते हैं। पिछली बार तो मेरे अंग वस्त्रों की सारी जरी नकली निकल गई। सिल्क का रंग भी कच्चा। भक्तों के सामने कितनी लज्जा आई, कह नहीं सकता। लेकिन इन धूर्त पुजारियों को जरा भी लज्जा नहीं आई।’’ कहते-कहते भगवान् का कंठ अवरुद्ध हो आया; लेकिन अपने आप को सँभाल ले गए।
सचिव महोदय भी बड़े पसोपेश में थे। पुनः भगावन् उवाच—‘‘पुरानी कहावत है कि ‘जिसके पत्तल में खाना उसी में छेद करना’, लेकिन ये पुजारी तो इन दिनों इस तरह पेश आ रहे हैं जैसे ये नहीं बल्कि मै इनके पत्तल में खाता हूँ। खैर छोड़िए। मैं बातों में भूल ही गया था। जलपान में क्या पसंद करेंगे आप ?’’ कहते हुए भगवान् ने पूजा की घंटी बजाई।

एक पुजारी मेवे-मिष्ठान से भरी चाँदी की तश्तरी लिए अंदर आया भगवान् के अनुरोध करने पर सचिव महोदय ने मस्तक झुकाकर थोड़ा सा प्रसाद ग्रहण किया। मेवे काफी पुराने और घुने हुए थे। मिठाई भी किसी ऐसी-वैसी दुकान की थी।


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