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शंखनाद

महेश प्रसाद सिंह

प्रकाशक : प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6031
आईएसबीएन :81-88266-57-4

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प्रस्तुत है पुस्तक शंखनाद .....

Shankhnad

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


‘‘टिकट कब से जनाना-मर्दाना होने लगा, बाबू ?’’
‘‘मूर्ख, नित्य नियम बदलता है और बदलने वाले होते हैं मंत्री। दूरदर्शन पर प्रचार हो गया, सभी अंग्रेजी अखबारों में छप गया और इनको मालूम ही नहीं है।’’
‘‘तब क्या होगा ?’’
‘‘पैसै निकालो।’’
‘कितना ?’’
‘‘पाँच सवारी के एक सौ पच्चीस रुपए। यों रसीद लोगे  तो एक हजार लगेगा।’’
‘‘एक हजार ! तब छोड़िए रसीद। उसको लेकर चाटना है क्या ?’’ गाँठ खुली, गिन-गिनकर रुपए दिए गए।
‘‘और देखो, किसी को कहना नहीं। गरीब समझकर तुम पर हमने दया की है।’’
बेचारे टिकट बाबू के आदेश पर अब प्लेटपार्म से निकलने के लिए पुल पर चढ़े। सिपाही पीछे लग गया।
‘‘ऐ, रुको ! मर्दाना टिकट लेता नहीं है और हम लोगों को परेशान करता है।’’
उनमें से सबसे बुद्धिमान बूढ़े ने किंचित ऊँचे स्वर में कहा, ‘‘दारोगाजी, बाबू को सब दे दिया है।’’
‘दरोगा’ संबोधन ने सिपाही के हाथों को मूँछों पर पहुँचा दिया, ‘‘जनाना टिकट के बदले दंड मिलता है जानते हो ?’’
‘‘हाँ दारोगाजी, लेकिन हम जो जमा कर चुके हैं।’’
जेब से हथकड़ी निकाल लोगों को दिखाते हुए सिपाही ने कहा, ‘‘अरे, हथकड़ी हम लगाते हैं या वह बाबू ?’’
‘‘आप !’’
‘‘तब मर्दाना टिकट के लिए पचास निकालो।’’
और पुनः गाँठ अंतिम बार खुली।

इसी पुस्तक से

समाज में व्याप्त कुरीतियों विचित्रताओं, विडंबनाओं, अनाचारों एवं भ्रष्टाचार के विरुद्ध शंखनाद हैं ये कथाएँ, जो निश्चय ही पाठक की अंतर्व्यथा तथा मर्म को स्पर्श करती हैं।

प्रेरणा कथा


आज भागमभाग, आपाधापी जैसी तीव्र गतिवाली सभ्यता में तनाव-मुक्ति एवं मनोरंजन के लिए लघुकथाओं के प्रति आकर्षण बढ़ा है, किंतु लघुकथा लेखकों में हाल में स्थापित लकीर के प्रति किंचित् झुकाव कभी-कभी पाठकों को तनाव-मुक्ति के बदले चिंतन-बोझ भी दे देता है। फलतः लघुकथा अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर पाती। जैसे मैने एक कहानी गढ़ी थी, लेकिन उसे प्रस्तुत संग्रह में नहीं रख रहा हूँ। कहानी है—
बेटी के लिए वर खोज आए प्रसन्न पति से वर का पूरा परिचय जान पत्नी ने उसे नकार दिया। उसे लगा, कहीं भाई से भी बहन का विवाह हुआ है !

यह कहानी पाठक का मनोरंजन कुछ देर बाद ही कर पाएगी और आज का समय इतना अवकाश भी कहाँ देता है !
फिर यह युग मम्मी-डैडी का बन रहा है, जहां प्राचीन मान्यताओं, परंपराओं के लिए स्थान नहीं। जिन बातों पर हमें गर्व था, आज विपरीत आचरण के कारण वे नष्टप्राय हो रही हैं। शिक्षा पद्धति बदल गई, इतिहास विकृत कर दिया गया और हम हैं जो उन्हें ही स्वीकार कर जी रहे हैं, चाहे हमारी गरदन छाती से क्यों न चिपक जाए।
                                           लघुकथाओं के माध्यम से जौहर- ज्वाला में जल रही मानवीय सभ्यता-संस्कृति को बचाने का यह लघु प्रयास मात्र है। जौहर की स्थित बने ही नहीं, अगर समष्टि चेतना में यह समाहित हो जाए तो श्रम की सार्थकता प्रकट हो सकेगी।
संग्रह की ऐतिहासिक कथाओं का आधार पुस्तकीय तथ्यों में सुरक्षित है। हाँ, कड़ी जोड़ने में कल्पना के उपयोग को अस्वीकार नहीं कर सकता।
दृश्य-अदृष्य, मौखिक-लिखित रूप में जिन्होंने भी उत्साहवर्धन किया, उन सबका हृदय से आभारी हूँ।

महेश

पतिव्रता


स्वामी विवेकानन्द अमेरिका में सड़क मार्ग से गाड़ी पर जा रहे थे। अचानक उनकी दृष्टि दूर स्थित एक कब्रिस्तान की ओर चली गई। वहाँ दिखाई पड़ रहे धुँधले दृश्य पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ। निकट पहुँच जो कुछ स्पष्ट रूप में देखा, उनकी आँखें छलछला गईं। हृदय में सम्मान का भाव उछाल लेने लगा। गाड़ी से उतरते ही उनके पैरों में गति आ गई। कब्र के निकट पहुँच ‘माँ-माँ’ कहते वह साष्टांग दंडवत अवस्था में भूमि पर लेट गए।

सामने खड़ी नारी ने अचकचाकर अपने पैरों को पीछे करते हुए पूछ लिया, ‘‘तुम कौन हो, ऐसा क्यों कर रहे हो ?’’
‘‘मैं एक भारतीय हूँ और इस दृश्य से अभिभूत हो रहा हूँ।’’ स्वामीजी ने कहा।
‘‘लेकिन यह कोई ऐसा कार्य नहीं, जिसके लिए तुम मेरे पैरों पर गिरो !’’ अचंभित नारी का स्वर फूटा।
विवेकानंद की आँखों से और तेज गति से आँसू झरने लगे, ‘‘महान् नारी का यही तो लक्षण है !’’
‘‘ऐ भारतीय मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूँ।’’
स्वामीजी को व्याख्या करनी पड़ी, ‘‘यदि मैं गलत नहीं हूँ, तो यह आपके पति की कब्र है, जिनकी मृत्यु आज ही हुई है ?’’
‘‘हाँ, यह तो ठीक है।’’

‘‘बस-बस, और क्या प्रमाण चाहिए ? मैंने अपने देश की पतिव्रता नारियों के बारे में सुना-पढ़ा ही नहीं है, उन्हे देखा भी है; लेकिन आपके इस कार्य ने तो पाश्चात्य जगत् ही नहीं, विश्व की नारियों में भी आपको उच्च स्थान दे दिया है, मेरी दृष्टि भी बदल दी है।’’
‘‘देखो भारतीय, तुम गलत समझ रहे हो।’’
‘‘क्या गलत है, क्या सही, मैं स्वतः सब देख रहा हूँ। आपनी महानता को छिपाकर मुझे भ्रमित न करें, देवि !’’ और तब उन्होंने बड़ी विनम्रता से पूछा, ‘‘पति की कब्र पर कुछ ही घंटे पूर्व मिट्टी पड़ी है ?’’
 ‘‘हाँ,  सत्य है।’’
‘‘आप कब्र के ऊपर पंखे से हवा कर रही हैं, सत्य है’
‘‘हां, है।’’

‘‘बस, अब मैं और कुछ जानना नहीं चाहता। ओह ! ऐसी महान् नारी...।’’
‘‘तुम क्या-क्या बोले जा रहे हो, उसका आशय मैं नहीं जानती। मैं तो इतना ही जानती हूँ कि मेरे पति ने मरते समय मुझे शपथ दे दी थी कि जब तक उनकी कब्र की मिट्टी सूख न जाए, मैं दूसरा विवाह न करूँ, और इसीलिए मैं हवा करके शीघ्र मिट्टी को सुखाने का पयत्न कर रही हूँ।’’

इतिहास -पुरुष


भारी लौह बेड़ियों में जकड़ पृथ्वीराज चौहान को दिल्ली दरबार में मुहम्मद गोरी के सामने लाया गया। चौहान ने एक बार दृष्टि उठाकर गोरी को देखा। गोरी काँप उठा—हारने पर भी दया की याचना के बदले राजत्व का तेज चमक रहा है ! गोरी ने कहा, ‘‘तुरंत तपे लाल लौह छड़ों से  इसकी आँखे जला दो।’’
चौहान के पास खड़ा उनका चंदबरदाई बोल उठा, ‘‘हमारे सम्राट के पवित्र सिंहासन पर छलपूर्वक विराजमान ऐ विदेशी सुल्तान ! मत भूलो कि जिस स्थान पर हमारे सम्राट खड़े हैं वहाँ एक नहीं, अनेक बार थरथराते, दया की भीख माँगते तुम खड़े हुआ करते थे। हमारे राजा चाहते तो उसी समय या तराइन के मैदान में ही तुम्हें कब्र में उतार सकते थे ! लेकिन उन्होंने हमेशा तुम्हें क्षमा ही दी और एक तुम हो...’’

‘‘ऐ कवि ! तुम अच्छे गीत लिखते हो। आज से मेरे लिए लिखो, मैं तुम्हें क्षमादान ही नहीं दूँगा, मालामाल भी कर दूँगा।’’
‘‘गीत और एक लुटेरे के लिए, प्रशस्तिगान एक डाकू का, यशोगान एक हत्यारे-बलात्कारी का लिखना मैंने कभी नहीं सीखा। इसके लिए तुम्हारे गुलाम ही पर्याप्त हैं।’’
‘‘इतना बोलने का परिणाम जानता है ?’’
‘परिणाम ! मृत्यु से अधिक दे भी क्या सकते हो और मृत्यु को हम भारतीय वस्त्र-परिवर्तन मात्र समझते हैं।’’
‘‘तेरी बातें सुनने में अच्छी लगती है, कवि तू चाहता क्या है ?’’


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