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1128 में क्राइम 27

सी. जे. थॉमस

प्रकाशक : सुरभि प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6010
आईएसबीएन :978-81-905547-0

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प्रस्तुत है थॉमस का दूसरा नाटक ....

1128 Mein Crime 27, A play by C. J. Thomas, 1128 में क्राइम 27 - सी. जे. थॉमस का दूसरा नाटक

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘1128 में क्राइम 27’ थॉमस का दूसरा नाटक है। इसकी समस्या सार्वदशीय हैं उन्होंने मौत को एक विशेष प्रतीकात्मक ढंग से प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है। नाटक में मृत्यु और जिन्दगी के प्रति उनका दृष्टिकोण स्पष्ट झलकता है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि वह सिनिक हैं, क्यों कि उनका यह नाटक सिनिसिज्म की सृष्टि है।.....

तत्कालीन रंगमंच पर जमी हुई हास्य रूढ़ियों के प्रति विद्रोह, प्रबोधन की शक्ति पर विश्वास रखकर संसार का उद्धार करने की मूर्खता आदि पर भी उन्होंने अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। असली जिन्दगी और जीवन की व्याख्या करनेवाले नाटक, टेकनीक के वैभवों के द्वारा उनकी असली भिन्नताओं को उसी तरह रहने देकर रंगमंच पर प्रस्तुत करने का उनका कौशल आश्चर्यजनक ही है। जिन्दगी मिथ्या है, यह दार्शनिक आशय दर्द-भरी हँसी के साथ वे मंच पर प्रस्तुत करते हैं। नाटक चलाने वाला और नाटक की व्याख्या करनेवाला गुरु एक तरफ, नाटक खेलने वाले, नेपथ्य, प्रोंप्टर, स्टेज मैनेजर आदि का एक ढेर तीसरी तरफ।

इन सबके प्रमुख गुरु के लिए जब चाहे तब इशारा कर सकने वाला एक प्रेक्षक समूह। इस प्रकार नाटक और जिंदगी को उनके असली रूप में अपने-अपने व्यक्तित्व से युक्त एक ही स्टेज पर एक साथ इस नाटक में प्रस्तुत करता है। नाटकीय प्रभाव एवं आंतरिक संघर्षों की दृष्टि से यह नाटक अत्यन्त सफल है।

भूमिका


मनुष्य को भावों और विचारों को कुशलतापूर्वक व्यक्त करने को ही कला की संज्ञा दी गई है। मानव में अपने विचारों एवं भावों को दूसरे के सम्मुख प्रकट करने की प्रवृत्ति आदिकाल से रही है। आत्मप्रकाशन की भावना को संतुष्ट करने के लिए मानव ने विभिन्न शैलियाँ तथा प्रणालियाँ अपनाईं। साहित्य द्वारा भावों का प्रकाशन सर्वाधिक सुलभ है, लेकिन साहित्य का कार्यक्षेत्र भाषाओं की विविधता के कारण अत्यन्त सीमिति रह जाता है। भारत में बाईस प्रमुख भाषाएँ और पाँच सौ लगभग बोलियाँ प्रचलित हैं तथा अधिकांश भारतीय एक-दो भाषाओं से अधिक परिचित नहीं हैं। नतीजा यह होता है कि विभिन्न भाषाओं में रची जाने वाली साहित्य-सृष्टियाँ केवल उन भाषाओं का ज्ञान रखने वाले थोड़े से साहित्य-प्रेमी कर पाते हैं और बहुसंख्यक भारतवासी इससे वंचित रह जाते हैं । विविध भाषाओं में प्रत्येक काल में उच्च साहित्य का निर्माण होता रहता है, किन्तु भाषा की दीवारों से हम इस साहित्य का आस्वादन नहीं कर पाते। भाषा की दीवारों को तोड़ना संभव नहीं है, किन्तु अनुवाद द्वारा एक साहित्य दूसरे साहित्य को हानि पहुँचाए बिना उसकी अमूल्य निधि से परिचय प्राप्त कर सकता है।

नाटकों का अनुवाद एवं रूपान्तर की प्रक्रिया प्राचीन काल से होती आ रही है। संस्कृत नाटकों का अनुवाद काफी मात्रा में हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में हुआ है। इन अनूदित संस्कृत नाटकों का उद्देश्य प्रांतीय भाषाओं के प्रेक्षकों एवं पाठकों को मूल कृतियों से परिचित कराना था। हिन्दी में अन्य भारतीय भाषाओं से अनूदित नाट्य साहित्य की परंपरा भारतेन्दु से ही शुरू होती है, जैसे रामचन्द्र शुक्ल जी ने कहा है कि हरिश्चन्द्र ने सबसे पहले विद्यासुंदर का बंगला से सुंदर हिन्दी में अनुवाद करके सं. 1925 में प्रकाशित किया।

हिन्दी में अनूदित मलयालम नाटक : एक ऐतिहासिक रूपरेखा

मलयालम का नाटक साहित्य बहुत ही समृद्ध है, लेकिन मलयालम नाटकों के हिन्दी अनुवाद बहुत कम हुए हैं। नाटकों का अनुवाद वैसे ही कठिन कार्य है, क्योंकि इसमें वार्तालाप की सहजता और भाव की स्वाभाविकता लानी पड़ती है। मलयालम के ऐसे अनेक बोलचाल के प्रयोग हैं, मुहावरे हैं जिनके लिए हिन्दी में समान प्रयोग मिलना कठिन है। इसलिए नाटकों के अनुवाद का कार्य दूसरी साहित्यिक विधाओं की अपेक्षा दुष्कर होता है, किन्तु इनमें से अधिकांश नाटकों में समस्याओं का प्रांतीय अथवा स्थानीय महत्त्व ज्यादा रहता है। इसी कारण से हिन्दी अनुवाद में ऐसे नाटकों का सौन्दर्य खो जाता है। परिवेश का अन्तर भी एक बड़ी समस्या है। इन कठिनाइयों के होते हुए भी कुछ नाटकों का हिन्दी में अनुवाद किया गया है। और उन अनुवादों के माध्यम से अनुवादकों ने केरलीय जीवन के विभिन्न पहलुओं को हिन्दी संसार के सामने उपस्थित किया है।

सबसे पहले युग प्रभात में श्री कप्पन कृष्ण मेनन द्वारा लिखित मलयालम नाटक ‘पषश्शिराजा’ के पाँच दृश्यों का अनुवाद श्री सी. गोविंदन ने प्रस्तुत किया था (युग प्रभात, 16 अगस्त, 1957)। युग प्रभात में प्रकाशित एक अन्य ऐतिहासिक नाटक है श्री के, पद्मनाभन नायर द्वारा लिखित और श्री पुरुषोत्तमन द्वारा अनूदित ‘कुंजालिमरक्कार’ (युग प्रभात, 16 जुलाई, 1964)। ये दोनों नाटक नाटकीय गतिशीलता से पूर्ण सशक्त रचना है। श्री तोपिल भाषी मलयालम के लोकप्रिय सामाजिक नाटककार हैं। केरल के प्रगतिशील नाटक संघ ने उनके नाटकों को हजारों बार प्रदर्शित किया है। श्री भासी के लगभग सभी नाटक हिन्दी में आ चुके हैं। उनके प्रसिद्ध नाटक ‘निड्गल एन्ने कम्युनिस्ट आक्की’ (तुमने मुझे कम्युनिस्ट बनाया) तथा ‘मूलधन’ शीर्षक नाटकों के अनुवाद श्री लक्ष्मण शास्त्री ने यथाक्रम ‘उद्थान’ तथा ‘पूँजी’ नाम से हिन्दी में प्रकाशित किए हैं। डॉ. विश्वनाथ अय्यर द्वारा अनूदित भासी का ‘नया आसाम नई धरती’ तथा लक्ष्मिकुटि्ट अम्मा द्वारा अनूदित ‘अश्वमेध’ भी प्रकाशित हो चुके हैं। स्त्री-शिक्षा की समस्या पर आधारित उरूब का नाटक ‘मण्णुम् पेण्णुम्’ (मिट्टी और नारी) का अनुवाद श्री के. कृष्ण मेनन ने किया है। डॉ. रामन नायर ने ‘वेलुत्तम्बिदलवा’ नामक नाटक का अनुवाद किया है। श्री टी.एन. गोपीनाथन नायर के ‘परीक्षा’ का अनुवाद श्री सुधांशु चतुर्वेदी ने किया है। हिन्दी में अनूदित अन्य प्रमुख नाट्य रचनाओं की सूची निम्न प्रकार है- इटश्शेरी गोविंदन नायर का ‘सहकारी खेती’ (अनुवादक रवि वर्मा, साहित्य अकादेमी), श्री एन. श्रीकंठन नायर का ‘काँचन सीता’ (अनु.सुधांशु चतुर्वेदी), एन. कृष्ण पिल्लै का समस्या नाटक ‘कन्यका’ (अनु.सुधांशु चतुर्वेदी), जी शंकर कुरुप का भावनाट्य ‘संध्या’ (अनु.सुधांशु चतुर्वेदी), जी.शंकर पिल्लै का ‘भरतवाक्य’, कावाल नारायण पणिक्कर के अग्नि वर्ण के पैर’ (अनु.डॉ. विश्वंभरन), ‘मलयालम के एकांकी’, एन.एन. पिल्लै का ‘गुड नैट’, पी.एम. ताज का ‘स्वकार्यम’, ‘रावुणी’, वी.के. प्रभाकरन का ‘कन्याकुमारी’ (अनु.डॉ.ए. अच्युतन) आदि अनेक नाटक हिन्दी में अनूदित हो चुके हैं।

मलयालम से जितने नाटक अब तक हिन्दी में अनूदित हुए हैं, उनसे कोई विशेष संतोष नाटक प्रेमियों को नहीं हो सकता। मलयालम में अच्छे नाटक अवश्य लिखे जाते हैं परन्तु उनके चुनाव अनुवाद दोनों की ओर प्रबुद्ध अनुवादकों का ध्यान जाना चाहिए। मलयालम में अभिनय के योग्य अनेक नाटक लिखे गए हैं, परन्तु उन्हें हिन्दी रंगमंच पर लाते समय थोड़ा-बहुत परिवर्तन आवश्यक हो जाता है। नाट्य लेखक, अनुवादक और निर्देशक के सम्मिलित प्रयत्न से इस क्षेत्र में कुछ अच्छे परिणाम निकल सकते हैं।

सी. जे. थॉमस : जीवन परिचय

स्व. सी. जे. थॉमस मलयालम के लोकप्रिय नाटककार हैं। उनके नाटक उनके अपने व्यक्तित्व का ही प्रतिबिंब हैं। व्यक्ति में अंतर्निहित परिचायक सूत्र को व्यक्ति की संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है। मनोविज्ञान के अनुसार व्यक्ति की समस्त शारीरिक, मानसिक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं का संगठित रूप व्यक्तित्व है। किसी भी साहित्यकार के व्यक्तित्व की खोज कृतित्व में और कृतित्व की खोज व्यक्तित्व में ढूँढ़ी जा सकती है। सृजन तो व्यक्तित्व की गहराइयों में उभरकर रूप ग्रहण करता है। ‘‘साहित्यकार चाहे किसी भी पात्र की भावनाओं एवं अनुभूतियों का चित्रण एवं अभिव्यंजना करे, उनमें भी उसके निजी व्यक्तित्व की छाप विद्यमान रहती है। इतना ही नहीं, वह जिन भावनाओं को अपने साहित्य में प्रमुखता देता है, वे वस्तुत: उसके व्यक्तित्व एवं जीवन की ही प्रमुख भावनाएँ होती हैं।’’

श्री सी. जे. थॉमस एक मानवीय याकोबा ईसाई पुरोहित के पुत्र थे। नवंबर, 1918 में जन्में थॉमस की मृत्यु 42 वर्ष की आयु में कैंसर महारोग के कारण जून, 1960 में हुई। उनका जीवन संघर्षपूर्ण था। पिता ने उनको एक पुरोहित बनाना चाहा, लेकिन उन्हें एक पुरोहित का चोगा (पादरी का कुर्ता) पहनना पसंद नहीं था। एस.एस.एल.सी. परीक्षा पास करने के बाद पिता ने उनको एक ईसाई पुरोहित बनाने के लिए विद्यार्थी के रूप में कॉलेज भेजा, लेकिन घर में एक हलचल मचाकर उन्होंने चोगे को छोड़ दिया। उस घटना के बाद उनका जीवन भँवर में पड़ी एक नाव के समान था।

सी. जे. थॉमस की नाट्य रचनाएँ

सी. जे. थॉमस के सभी नाटक संघर्षों की गहराइयों से जन्म लिए हुए हैं। ग्रीक त्रासदी की ओर उनकी बड़ी आस्था थी। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
‘वह फिर आ रहा है’, ‘भूत’, ‘वह आदमी तू ही है’, ‘शलोमी’, ‘कंजूस की शादी’, ‘आंटिगणी’, ‘राजा इडिपस’, लिरिसस्ट्राटा ‘क्राइम’ आदि।

1128 में क्राइम 27

‘1128 में क्राइम 27’
‘1128 में क्राइम 27’ थॉमस का दूसरा नाटक है। इसकी समस्या सार्वदशीय हैं उन्होंने मौत को एक विशेष प्रतीकात्मक ढंग से प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है। नाटक में मृत्यु और जिन्दगी के प्रति उनका दृष्टिकोण स्पष्ट झलकता है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि वह सिनिक हैं, क्यों कि उनका यह नाटक सिनिसिज्म की सृष्टि है। नाटक के मुख्य पात्र गुरु अपने शिष्य से कहते हैं :
गुरु : ठीक है। मैं भी वही कह रहा था। सुनो यार, मौत अपने आप में बड़ा तमाशा है। खासकर अपने आप की।
............
.......अगर तेरी मौत पर मेरे मन में कुछ-कुछ भाव होगा ही।
......जहाँ तक मेरा संबंध है वह मामूली बात रहेगी। कोरा तमाशा।
जिदंगी, मौत आदि के बारे में उनके दार्शनिक दृष्टिकोण के साथ-साथ उनको भी व्यंग्य करने का और उनसे दूर हटकर निरीक्षण करने की असामान्य क्षमता सी.जे. थॉमस की विशेषता है। तत्कालीन रंगमंच पर जमी हुई हास्य रूढ़ियों के प्रति विद्रोह, प्रबोधन की शक्ति पर विश्वास रखकर संसार का उद्धार करने की मूर्खता आदि पर भी उन्होंने अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। असली जिन्दगी और जीवन की व्याख्या करनेवाले नाटक, टेकनीक के वैभवों के द्वारा उनकी असली भिन्नताओं को उसी तरह रहने देकर रंगमंच पर प्रस्तुत करने का उनका कौशल आश्चर्यजनक ही है। जिन्दगी मिथ्या है, यह दार्शनिक आशय दर्द-भरी हँसी के साथ वे मंच पर प्रस्तुत करते हैं। नाटक चलाने वाला और नाटक की व्याख्या करनेवाला गुरु एक तरफ, नाटक खेलने वाले, नेपथ्य, प्रोंप्टर, स्टेज मैनेजर आदि का एक ढेर तीसरी तरफ। इन सबके प्रमुख गुरु के लिए जब चाहे तब इशारा कर सकने वाला एक प्रेक्षक समूह। इस प्रकार नाटक और जिंदगी को उनके असली रूप में अपने-अपने व्यक्तित्व से युक्त एक ही स्टेज पर एक साथ इस नाटक में प्रस्तुत करता है। नाटकीय प्रभाव एवं आंतरिक संघर्षों की दृष्टि से यह नाटक अत्यन्त सफल है।



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