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चंद्रगिरी के किनारे

सारा अबूबकर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6004
आईएसबीएन :978-81-89859-54

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प्रस्तुत है उपन्यास

Chandragiri Ke Kinare

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


किसी दूसरे मर्द से एक दिन के लिए शादी करके क्या मैं बाद में अपने शौहर को पा सकूँगी ? मैंने ऐसा कौन-सा गुनाह किया है, जिसके लिए मुझे ऐसी सज़ा दी जा रही है ? दूध पीते बच्चे को उठाकर ले जाने वाले और तालाक़ देकर मुझे पीड़ित करनेवाले वे लोग हैं और सज़ा मुझे दी जा रही है ? यह कहाँ का इंसाफ़ है ? ग़लतियाँ तो मर्द करें और सज़ा औरत को मिलें, ऐसा क्यों ? अगर मेरा ख़ाविंद ही एक रात दूसरी औरत के साथ बिताएगा तो ? हूँ, मर्द का क्या है ? वह शायद मान जाएगा। उसे सवाब नहीं मिलेगा। लेकिन एक औरत के लिए यह सब कैसे मुमकिन है ? अगर मैं मान जाऊँ तो मेरे शौहर को मुझसे नफ़रत नहीं होगी- इस बात का क्या भरोसा है ? क्या यह उसे बुरा नहीं लगेगा कि उसकी बीवी ने एक रात दूसरे मर्द के साथ बिताई है ? इससे क्या पहले-सी पाक मोहब्बत और जज्बात मुमकिन हैं ? अगर दूसरे दिन रशीद मुझसे शादी करने से इनकार कर दे तो मौलवी जी क्या कहेंगे ? सब कुछ बेकार चला जाएगा न ? मौलवी जी ‘जाने दो, परवाह नहीं’ कहेंगे। इन मर्दों के कहने से एक रात किसी एक मर्द के साथ बिताऊँ, मैं जानवर हूँ क्या ?

इसी पुस्तक से

चन्द्रगिरी के किनारे



चन्द्रगिरी नदी पश्चिमी घाटी से शुरू होकर उत्तर से दक्षिण की ओर जाती है। आगे पाट बदलकर पश्चिम की ओर अरब सागर में मिल जाती है। नदी के पूर्व में किकियूर गाँव है तो पश्चिम में बागोडु।

मोहम्मद ख़ान का घर किकियूर गाँव में था। नदी के किनारे एक एकड़ नारियल की ज़मीन और उसके बीच में बना एक छोटा-सा घर ही मोहम्मद ख़ान की एकमात्र पूँजी थी। तीन-चार बकरियाँ और उनके बच्चे, थोड़ी-बहुत मुर्गियाँ- ये थीं मोहम्मद ख़ान की बीवी फ़ातिमा की पूँजी। नारियल बेचना और अंडे बेचना- यही इनका व्यापार था। घर का सारा ख़र्च इसी से चलता था।
मोहम्मद ख़ान तो अल्हड़ था और गुस्सैल भी। ज़िद्दी तो था ही, साथ ही साथ आलसी भी। फ़ातिमा की दिन-रात की मेहनत से ही घर चलता था। इन दिनों छोटी बेटी जमीला भी बीड़ी बनाना सीख गई थी। बीड़ी बनाने का सामान बाजार से लाना, तैयार बीड़ियाँ दुकान में पहुँचा, पैसे की वसूली कर घर के लिए सामान लाने की जिम्मेदारी मोहम्मद ख़ान की थी।

मोहम्मद ख़ान की बड़ी बेटी नादिरा का निकाह हो चुका था और वह पति के घर थी। उसके एक बच्चा भी था। नादिरा के पति का घर नदी के पश्चिमी भाग में था। किकियूर घाट के पास नाव में बैठकर नदी पार करते ही बागोडु गाँव है। वहाँ से एक-दो मील पैदल चलने पर मणिपुर क़स्बा आता है। इसी क़स्बे में छोटी-सी दुकान चलाकर नादिरा का पति रशीद व्यापार करता था। इस क़स्बे से रशीद के घर के लिए लगभग तीन मील चलना पड़ता था या बस में जाना पड़ता था। इस गाँव का नाम कावळिक। वहाँ लगभग आधा एकड़ नारियल की बाग़वानी, केले और सुपारी के वृक्षों के बीच रशीद का छोटा-सा घर था। पहले घर में उसकी माँ और बीवी के अलावा और कोई नहीं था। अब एक छोटा बेटा भी था। बागवानी और व्यापार में जो भी मिलता था उससे घर मज़े में चलता था।
जब रशीद का निकाह नादिरा से हुआ था तब वह चौदह वर्ष की भी नहीं थी। रशीद तेईस वर्ष का था। माँ की ज़िद की वजह से उसने शादी की थी। मोहम्मद ख़ान ने अपनी बेटी की शादी में दिल खोलकर खर्च किया। नादिरा के लिए दस तोले सोने के गहने और दो हज़ार दहेज में देकर धूमधाम से निकाह किया। ज़माना सस्ता होने की वजह से सोने के गहने देने में कोई कठिनाई नहीं हुई।

दहेज के पैसों से दुल्हन के लिए रशीद ने गहने और कपड़े बनवाए थे। यह तो गाँव की रीत थी। ससुराल वालों की आर्थिक स्थिति के अनुसार दुल्हन के गहने और कपड़े बनते थे। दहेज का पैसा इसी तरह ख़र्च किया जाता था। रशीद या उसकी माँ उस गाँव की इस रीत से अलग नहीं थे।

निकाह से पहले रशीद ने नादिरा को नहीं देखा था। उसकी माँ अमीना ने ज़रूर देखा था। इस्लाम में शादी से पहले लड़की को देखने का रिवाज नहीं है। लड़की को देखकर माँ ने जो बताया था वह रशीद को आज भी याद है।

‘‘देखो रशीद, लड़की छोटी है मगर बहुत सुन्दर है। रंग गोरा और आँखें बड़ी-बड़ी हैं। अच्छी तरह कुरान पढ़ती है। दिन में पाँच बार नमाज़ पढ़ती है। तुम्हारे लिए योग्य लड़की है। पंद्रह-सोलह वर्ष की उम्र में तो वह परी लगेगी।’’
‘‘इतनी छोटी लड़की मुझे नहीं चाहिए।’’ रशीद ने कहा था तो माँ ने जवाब दिया था, ‘‘तो फिर उसकी दादी से शादी करोगे ? मेरा निकाह जब हुआ था तब मैं दस बरस की थी।’’

रशीद के लगा था कि लड़की बहुत छोटी है, लेकिन वह माँ का विरोध नहीं कर सका था।
पहली बार उसने नादिरा को सुहागरात में ही देखा था, जब सब औरतों ने मिलकर गीत गाते हुए नादिरा को रशीद के कमरे में ढकेल दिया था और बाहर से दरवाज़ा बन्द कर दिया था। वह दोनों हाथों से मुँह छिपाए सिसक-सिसककर रो रही थी। रशीद की समझ में नहीं आया था कि गहने और रेशम की साड़ी पहने दीवार से सटकर घूँघट में रोनेवाली इस लड़की को कैसे समझाए। पलंग पर बैठकर रशीद उसे ताकने लगा। बाद में उसके पास गया। शायद आहट सुनकर वह फिर ज़ोर से रोने लगी।

‘‘नादिरा !’’ धीमे स्वर में रशीद ने कहा। उसे अपनी दुल्हन का चेहरा देखने की उत्सुकता थी। नादिरा सहमी हुई थी कि बाघ या भालू झपट पड़ेगा, लेकिन इस मीठी और ठंडी आवाज़ को सुनकर उसकी समझ में नहीं आया कि क्या करना चाहिए। सिसकना बंद हुआ, फिर भी न उसने घूँघट हटाया और न हाथ।
‘‘क्या मैं बाघ हूँ ? मुझसे डर लगता है ?’’ रशीद ने उसी मीठी-धीमी आवाज़ में पूछा, पर वह गुड़िया की तरह मुँह छिपाए खड़ी रही। रशीद ने धीरे-धीरे सूटकेस के अंदर से सामान निकालकर मेज़ पर रखने लगा।
‘‘देखो, मैं तुम्हारे लिए क्या-क्या लाया हूँ। अगर तुम मुँह छिपाकर बैठी रहेगी तो ये सब कैसे देख पाओगी ?’’ धीरे से उँगलियों के बीच से नादिरा देखने लगी। रेशमी फूलों वाली लाल साड़ी तो बहुत सुन्दर थी। एक बार उसे छूने की इच्छा हुई, लेकिन वह तो वहीं खड़ा है। सुगंधित तेल, पाउडर, सेंट, रिबन जैसा ढेर सारा सामान उस सूटकेस में था। एक क्षण के लिए नादिरा अपने आप में नहीं रही। हाथ यूँ ही सरक गया और फूलों वाली साड़ी को स्पर्श कर गया।

धीरे से रशीद ने उन हाथों पर अपना हाथ रखकर उँगलियों को सहलाया। आँसुओं से भरी पलकें और कपोलों का प्रथम दर्शन रशीद को हुआ। नादिरा ने कनखियों से उसे देखा तो वह भी मुस्कराते हुए नादिरा की ओर ही देखने लगा। नादिरा के लिए पति का अर्थ था सिर पर पगड़ी, मोटी तोंद और सफेद दाढ़ी। (घर के सामने वाली बानू को ऐसा ही शौहर मिला है न !) लेकिन सुन्दर चेहरा, नई-नई मूँछें, सजे हुए बाल और सबसे बढ़कर वह मुस्कराहट ! और सजीला रूप नादिरा के लिए अत्यन्त ही मनमोहक था। दोनों के मनमोर पंख खोलकर नाचने लगे। अब रशीद का डर जाता रहा। धीरे से उसके हाथ अपने हाथों में लिए और रूमाल से नादिरा के गाल पोंछकर उसने पूछा, ‘‘क्यों रोती हो ? क्या मैं तुम्हें मारता हूँ ?’’

‘‘ऊँहू !’’ कोई जवाब नहीं। चुप खड़ी रही।
‘‘क्या मैं तुम्हें पसंद नहीं ? अपने घर वापस चला जाऊँ ?’’ रशीद ने मज़ाक किया।
ये कितने अच्छे हैं ! मेरे लिए कितना सामान लाए हैं ! ऐसे भले आदमी से यदि मैं बात नहीं करूँगी तो क्या सोचेंगे ?
‘‘क्या मैं चला जाऊँ ?’’ उसने फिर पूछा।
‘‘नहीं।’’ तिरछी आँखों से रशीद को देखते हुए उसने सिर हिलाया।
‘‘तो फिर एक बार अच्छी तरह चेहरा दिखाओ न !’’ कानों के पास आकर जब रशीद ने मीठी आवाज़ में कहा तो नादिरा झूम उठी। घूँघट सरक गया। अब उसे डर नहीं लगा। रशीद ने उसे बाँहों में समेट लिया। उसे लगा कि देर तक उसकी बाँहों में ही रहे।

बाँहों में लेकर रशीद ने पूछा, ‘‘नादिरा, अब भी मुझसे डर लगता है ?’’ कहना चहाती थी कि अब मुझे कभी भी डर नहीं लगेगा, पर कह न सकी।
‘‘मेरे घर कब आओगी ?’’ उसके पूछने पर नादिरा ने चट से जवाब दिया, ‘‘जब आप ले जाएँगे।’’ रशीद सोच रहा था कि क्या यही वह लड़की है, जो कुछ क्षण पहले सिसक-सिसककर रो रही थी ?

रशीद और नादिरा की जोड़ी अनुपम थी। सुबह उठकर मियाँ-बीवी दोनों नहाने के बाद नमाज़ पढ़ते थे। ख़ाला भी नमाज़ पढ़ती। उसके बाद घर का काम सास और बहू मिलकर करती थीं। बकरी और मुर्गियों की सेवा अब नादिरा करती। रशीद सुबह जलपान करके मणिपुर जाता तो रात के आठ बजे ही बस से ही घर लौटता। बस छूट जाए तो पैदल ही आना पड़ता था। पति से पहले नादिरा कभी भोजन नहीं करती थी। रशीद कभी-कभी ताज़ी मछली ले आता। मछली का साँबर नादिरा ख़ुशी से बनाती थी। सब इशा की नमाज़ के बाद ही भोजन करते। यही उनकी दिनचर्या थी।

जुमे के दिन रशीद दुकान पर नहीं जाता था। घर में ही रहकर छोटे-मोटे कामों में व्यस्त रहता। सुपारी के झाड़ों को मिट्टी चढ़ाना, पानी देना, नारियल के झाड़ों की हिफ़ाज़त का बंदोबस्त करना- इन कामों में कभी-कभी नादिरा भी पति की सहायता करती। सास और बहू किसी न किसी काम में जुटी ही रहतीं। जुमे के दिन दोपहर में रशीद मस्जिद में नमाज़ पढ़ने जरूर जाता था। जुमे की शाम को सिनेमा देखने मणिपुर चला जाता। एक बार नादिरा ने पूछा था, ‘‘सिनेमा कैसा होता है जी ? एक बार मुझे भी ले जाइये न !’’


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