गीता प्रेस, गोरखपुर >> स्वर्ण-पथ स्वर्ण-पथरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक स्वर्ण-पथ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।।श्रीहरिः।।
भूमिका
भूमिका
अध्यात्म-संदेश
हे ईश्वर के प्राणप्रिय राजकुमारो !
हमें आपके सम्मुख सदियों पुराना एक चिरनवीन संदेश रखना है; क्योंकि हमारा विश्वास है कि उससे आपको यथेष्ट प्रेरणा प्राप्त होगी। द्वापर के अन्त में ऋषि शमीक ने महाराज परीक्षित को यह संदेश भेजा कि श्रृंगी ऋषि के शाप से तक्षक के काटने से राजा मृत्यु को प्राप्त होगा, संदेश सुनते ही महाराज विह्वल हो उठे, केवल सात दिन पश्चात् मृत्यु ! महाराज को इस समय ज्ञान हुआ कि मानव-जीवन कितना अमूल्य है ! उन्होंने एक सरसरी नजर अपने सम्पूर्ण जीवन पर डाली तो उन्हें प्रतीत हुआ कि वास्तव में अब तक उन्होंने कुछ भी ठोस या स्थायी कार्य नहीं किया है। अपनी बाल्यावस्था से मृत्यु के दीर्घकाल को हलके जीवन तथा निम्न दृष्टिकोण के साथ गवाँ दिया है। अपनी बड़ी भूल का अनुभव कर वे पश्चाताप की वेदना से विक्षु्ब्ध हो उठे। सात दिन के अल्पकाल में ही राजा ने अपना परलोक सुधारने का भगरीथ-प्रयत्न प्रारम्भ किया। उन्होंने पूर्ण श्रद्धा से आध्यात्मिक अनुष्ठान किया। शेष जीवन का प्रत्येक पल उन्होंने भगवान् में लगाया। कुछ ही समय में रोम-रोम से सच्ची आध्यात्मकिता प्रकाशित होने लगी। उन्हें आत्मा की दीक्षा प्राप्त हुई और उन्होंने वास्तविक जीवन में पदार्पण किया। मृत्यु का भय उनके लिये एक नया पथ दिखाने वाला बना और परिणामस्वरूप वे आत्मवान् महापुरुष बन गये।
आप शायद समझते हैं कि बूढ़े तोते क्यों कर कुरान पढ़ सकते हैं। शायद आप कहें कि ‘हम तो अब बहुत आयु वाले हो चुके, अब क्योंकर आत्मसंस्कार करें ? हमारी तो कुछ एक ही साँसें शेष रही हैं, हमसे कुछ होना –जाना नहीं है।’ यदि आपकी ऐसी निराशा भरी धारणाएँ हैं तो सचमुच ही आप भयंकर भूल कर रहे हैं। आत्मसंस्कार जैसे महान् कार्य के लिये कभी देर नहीं होती। जितनी आयु शेष है, उसी को परम पवित्र कार्य में व्यय कीजिये। जीवन के प्रत्येक क्षण के ऊपर तीव्र दृष्टि रखिये कि हर एक क्षण का सदुपयोग हो रहा है या नहीं। आध्यात्मिक साधन प्रारम्भ करते समय मनमें यह कल्पना न कीजिये कि ‘अमुक महाशय देखेंगे तो हँसेंगे ।’ संसार झूठे लोक-दिखावे से सर्वनाश हो जाता है तथा ऐसे अनेक व्यक्ति मर-मिटते हैं जो वास्तव में उठने की क्षमता रखते हैं। नित्य बहुत-से ऐसे व्यक्ति मरते हैं, जो इसी लोक-दिखावे की मिथ्या भावना के डर से जप, यज्ञ, साधन, प्रत्याहार, आसन, प्रार्थना, मौनव्रत या दृढ़ चिन्तन इत्यादि कोई भी आत्मसंस्कार का कार्य प्रारम्भ न कर सके। यदि ये डरपोक लोग समय को ठीक खर्च करने की उचित योजना बनाते तो बहुत सम्भव था कि प्रभावशाली जीवन व्यतीत कर वे कुछ नाम या यश कमाते, अपने उद्योगों से अपना तथा दूसरों का भला करते एवं मानव-जीवन को सफल कर सकते।
हे सच्चिदानन्दस्वरूप आत्माओ !
जो समय व्यतीत हो गया, उसके लिये शोक मत कीजिए। जो शेष है, वह भी इतना महत्त्वपूर्ण है कि उचित रीति से काम में लाये जाने पर आप अपने जीवन को सफल कर सकते हैं तथा गर्व करते हुए संसार से विदा हो सकते हैं। आज से ही सँभल जाइये तथा अध्यात्म-पथ को परम श्रद्धापूर्वक ग्रहण कीजिये। तत्त्वतः ईश्वर स्वयं ही साधकों को अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचाने के लिये प्रयत्नशील है। वह आपकी गुत्थियों को स्वयं खोलता हुआ चलेगा। मध्य गुरु आत्मा है। उसको विकसित कीजिए। प्रारम्भ में जो छोटी-मोटी कठिनाइयाँ आवें, उनसे कदापि भयभीत न होइये। यही परीक्षा का समय होता है। दो-चार बार कठिनाइयाँ पार करने पर आप आत्मिक दृढ़ता प्राप्त कर लेंगे। आगे बढ़ने वाले महान् पुरुषों को इसी आत्मिक दृढ़ता का बल होता है, इसी गुप्त प्रेरणा से वे प्रलोभनों का तिरस्कार करने में समर्थ होते हैं।
हे नवीन युग के अग्रदूतो !
आज विश्वभर में खतरे का बिगुल भयंकर नाद कर रहा है। उसका संदेश है कि हम सावधान हो जायँ तथा संसार की अनित्यता के पीछे जो महान् सत्य अन्तर्निहित है, उसे पहचान लें। अपने अन्तःकरण का कूड़ा-करकट बुहार डालें। इस विषय में महाभारत में कहा गया है—
हमें आपके सम्मुख सदियों पुराना एक चिरनवीन संदेश रखना है; क्योंकि हमारा विश्वास है कि उससे आपको यथेष्ट प्रेरणा प्राप्त होगी। द्वापर के अन्त में ऋषि शमीक ने महाराज परीक्षित को यह संदेश भेजा कि श्रृंगी ऋषि के शाप से तक्षक के काटने से राजा मृत्यु को प्राप्त होगा, संदेश सुनते ही महाराज विह्वल हो उठे, केवल सात दिन पश्चात् मृत्यु ! महाराज को इस समय ज्ञान हुआ कि मानव-जीवन कितना अमूल्य है ! उन्होंने एक सरसरी नजर अपने सम्पूर्ण जीवन पर डाली तो उन्हें प्रतीत हुआ कि वास्तव में अब तक उन्होंने कुछ भी ठोस या स्थायी कार्य नहीं किया है। अपनी बाल्यावस्था से मृत्यु के दीर्घकाल को हलके जीवन तथा निम्न दृष्टिकोण के साथ गवाँ दिया है। अपनी बड़ी भूल का अनुभव कर वे पश्चाताप की वेदना से विक्षु्ब्ध हो उठे। सात दिन के अल्पकाल में ही राजा ने अपना परलोक सुधारने का भगरीथ-प्रयत्न प्रारम्भ किया। उन्होंने पूर्ण श्रद्धा से आध्यात्मिक अनुष्ठान किया। शेष जीवन का प्रत्येक पल उन्होंने भगवान् में लगाया। कुछ ही समय में रोम-रोम से सच्ची आध्यात्मकिता प्रकाशित होने लगी। उन्हें आत्मा की दीक्षा प्राप्त हुई और उन्होंने वास्तविक जीवन में पदार्पण किया। मृत्यु का भय उनके लिये एक नया पथ दिखाने वाला बना और परिणामस्वरूप वे आत्मवान् महापुरुष बन गये।
आप शायद समझते हैं कि बूढ़े तोते क्यों कर कुरान पढ़ सकते हैं। शायद आप कहें कि ‘हम तो अब बहुत आयु वाले हो चुके, अब क्योंकर आत्मसंस्कार करें ? हमारी तो कुछ एक ही साँसें शेष रही हैं, हमसे कुछ होना –जाना नहीं है।’ यदि आपकी ऐसी निराशा भरी धारणाएँ हैं तो सचमुच ही आप भयंकर भूल कर रहे हैं। आत्मसंस्कार जैसे महान् कार्य के लिये कभी देर नहीं होती। जितनी आयु शेष है, उसी को परम पवित्र कार्य में व्यय कीजिये। जीवन के प्रत्येक क्षण के ऊपर तीव्र दृष्टि रखिये कि हर एक क्षण का सदुपयोग हो रहा है या नहीं। आध्यात्मिक साधन प्रारम्भ करते समय मनमें यह कल्पना न कीजिये कि ‘अमुक महाशय देखेंगे तो हँसेंगे ।’ संसार झूठे लोक-दिखावे से सर्वनाश हो जाता है तथा ऐसे अनेक व्यक्ति मर-मिटते हैं जो वास्तव में उठने की क्षमता रखते हैं। नित्य बहुत-से ऐसे व्यक्ति मरते हैं, जो इसी लोक-दिखावे की मिथ्या भावना के डर से जप, यज्ञ, साधन, प्रत्याहार, आसन, प्रार्थना, मौनव्रत या दृढ़ चिन्तन इत्यादि कोई भी आत्मसंस्कार का कार्य प्रारम्भ न कर सके। यदि ये डरपोक लोग समय को ठीक खर्च करने की उचित योजना बनाते तो बहुत सम्भव था कि प्रभावशाली जीवन व्यतीत कर वे कुछ नाम या यश कमाते, अपने उद्योगों से अपना तथा दूसरों का भला करते एवं मानव-जीवन को सफल कर सकते।
हे सच्चिदानन्दस्वरूप आत्माओ !
जो समय व्यतीत हो गया, उसके लिये शोक मत कीजिए। जो शेष है, वह भी इतना महत्त्वपूर्ण है कि उचित रीति से काम में लाये जाने पर आप अपने जीवन को सफल कर सकते हैं तथा गर्व करते हुए संसार से विदा हो सकते हैं। आज से ही सँभल जाइये तथा अध्यात्म-पथ को परम श्रद्धापूर्वक ग्रहण कीजिये। तत्त्वतः ईश्वर स्वयं ही साधकों को अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचाने के लिये प्रयत्नशील है। वह आपकी गुत्थियों को स्वयं खोलता हुआ चलेगा। मध्य गुरु आत्मा है। उसको विकसित कीजिए। प्रारम्भ में जो छोटी-मोटी कठिनाइयाँ आवें, उनसे कदापि भयभीत न होइये। यही परीक्षा का समय होता है। दो-चार बार कठिनाइयाँ पार करने पर आप आत्मिक दृढ़ता प्राप्त कर लेंगे। आगे बढ़ने वाले महान् पुरुषों को इसी आत्मिक दृढ़ता का बल होता है, इसी गुप्त प्रेरणा से वे प्रलोभनों का तिरस्कार करने में समर्थ होते हैं।
हे नवीन युग के अग्रदूतो !
आज विश्वभर में खतरे का बिगुल भयंकर नाद कर रहा है। उसका संदेश है कि हम सावधान हो जायँ तथा संसार की अनित्यता के पीछे जो महान् सत्य अन्तर्निहित है, उसे पहचान लें। अपने अन्तःकरण का कूड़ा-करकट बुहार डालें। इस विषय में महाभारत में कहा गया है—
आत्मानदी संयमपुण्यतीर्था सत्योदका शीलतटा दयोर्मिः।
तत्राभिषेकं कुरु पाण्डु पुत्र न वारिणा शुद्ध्यति चान्तरात्मा।।
तत्राभिषेकं कुरु पाण्डु पुत्र न वारिणा शुद्ध्यति चान्तरात्मा।।
अर्थात् ‘हे पाण्डुपुत्र ! आत्मारूपी नदी संयम रूपी पवित्र
तीर्थवाली है। उसमें सत्यरूप जल भरा हुआ है। शील उसका तट है और दया तरंगें
हैं उसी में स्नान करो। जल के द्वारा अन्तरात्मा की शुद्धि नहीं हो
सकती।’ वास्तविक शुद्धि की ओर बढ़िये। असली शुद्धि तो एकमात्र
आत्मज्ञान से ही होती है।
हे ईश्वरीय तेजपिण्डों !
मत समझिये कि आप माया-मोह के बन्धनों में जकड़े हुए हैं और दुःख-द्वन्द्वों से भरा हुआ जीवन व्यतीत करने वाले तुच्छ जीव हैं, क्षुद्र मनोविकार के दास हैं। तुच्छ इच्छाएँ आपको दाब नहीं सकतीं। स्वार्थ की कामनाएँ आपको अस्त-व्यस्त नहीं कर सकतीं। प्रबल–से-प्रबल दुष्ट आसुरी भावों का आप पर आक्रमण नहीं हो सकता। आपको विषय-वासना अपना गुलाम नहीं बना सकती। आप बुद्धिमान हैं। आपकी बुद्धि में विषयों के प्रलोभनों से बचने का बल है। अतः विवेकवती बुद्धि को जाग्रत कर अध्यात्मपथ पर आरूढ़ हो जाइये। यही वास्तविक मार्ग है।
हे ईश्वरीय तेजपिण्डों !
मत समझिये कि आप माया-मोह के बन्धनों में जकड़े हुए हैं और दुःख-द्वन्द्वों से भरा हुआ जीवन व्यतीत करने वाले तुच्छ जीव हैं, क्षुद्र मनोविकार के दास हैं। तुच्छ इच्छाएँ आपको दाब नहीं सकतीं। स्वार्थ की कामनाएँ आपको अस्त-व्यस्त नहीं कर सकतीं। प्रबल–से-प्रबल दुष्ट आसुरी भावों का आप पर आक्रमण नहीं हो सकता। आपको विषय-वासना अपना गुलाम नहीं बना सकती। आप बुद्धिमान हैं। आपकी बुद्धि में विषयों के प्रलोभनों से बचने का बल है। अतः विवेकवती बुद्धि को जाग्रत कर अध्यात्मपथ पर आरूढ़ हो जाइये। यही वास्तविक मार्ग है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
स्वर्ण-पथ
इस विशाल संसार में ईश्वर ही सुख-शान्ति तथा आनन्द का आगार, सम्पूर्ण
विभिन्न पदार्थों का उत्पादक और स्वामी है; वरणीय मोक्षादि के सूत्रधार
एवं संसार के नियामक के रूप में वही आदिसत्ता हमारे प्रीतिपूर्वक गान एवं
एकाग्रताका आधार होना चाहिये; हमें ईश्वर के गुणों की स्तुति कर स्वयं
उनके अनुरूप बनने का सतत प्रयत्न करना चाहिये—इसी स्वर्ण, पथ पर
अग्रसर होकर हमारा शूलमय जीवन सफल तथा आनन्दमय बन सकता है।
मनुष्य के समस्त दुःखों का कारण उसका अहंभाव, दुरभिसन्धि, असत्य एवं अनुचित व्यवहार है। यदि हम स्वयं को ईश्वर का एक अंग मानकर उच्च आध्यात्मिक मनोभूमिका में निवास करें, आत्मा के अनुरूप ही कार्य करें, पशुत्व पर नियन्त्रण रखें तो हमारे दुःख कम हो सकते हैं। आत्मभाव को उद्बुद्ध करने का आधार ईश्वर की असीम शक्ति में विश्वास ही हो सकता है। संसार का समग्र हाहाकार इसी केन्द्र विन्दु से पृथक् हो जाने के कारण मचा हुआ है। ईश्वरीय मार्ग की आस्तिक भावना में निवास करने से ही मनुष्य हार्दिक शान्ति और सत्य सुख का अनुभव करता है।
स्वर्ण-पथ ईश्वरीय मार्ग है। जीवन की सच्ची समृद्धि प्राप्त करने और अशान्ति से मुक्ति के निमित्त हमें आस्तिक बनकर अपने जीवन एवं आदर्शों का निर्माण करना चाहिये। स्वर्ण-पथ हमारे जीवन को उन्नत और सफल बना सकता है। प्रभु इस पर दृढ़ता से अग्रसर होने में सहायक हों।
मनुष्य के समस्त दुःखों का कारण उसका अहंभाव, दुरभिसन्धि, असत्य एवं अनुचित व्यवहार है। यदि हम स्वयं को ईश्वर का एक अंग मानकर उच्च आध्यात्मिक मनोभूमिका में निवास करें, आत्मा के अनुरूप ही कार्य करें, पशुत्व पर नियन्त्रण रखें तो हमारे दुःख कम हो सकते हैं। आत्मभाव को उद्बुद्ध करने का आधार ईश्वर की असीम शक्ति में विश्वास ही हो सकता है। संसार का समग्र हाहाकार इसी केन्द्र विन्दु से पृथक् हो जाने के कारण मचा हुआ है। ईश्वरीय मार्ग की आस्तिक भावना में निवास करने से ही मनुष्य हार्दिक शान्ति और सत्य सुख का अनुभव करता है।
स्वर्ण-पथ ईश्वरीय मार्ग है। जीवन की सच्ची समृद्धि प्राप्त करने और अशान्ति से मुक्ति के निमित्त हमें आस्तिक बनकर अपने जीवन एवं आदर्शों का निर्माण करना चाहिये। स्वर्ण-पथ हमारे जीवन को उन्नत और सफल बना सकता है। प्रभु इस पर दृढ़ता से अग्रसर होने में सहायक हों।
निवेदक रामचरण महेन्द्र
स्वर्ण-पथ
उठो
जीवन की निद्रा से उठ जाइये
आपने बहुत–सा समय व्यर्थ कार्यों में नष्ट किया है। दूसरों का
छिद्रान्वेषण कर, उनकी बुराइयों तथा कमजोरियों को बताकर, उनकी खराबियों
तथा नुकसानों पर चुपचाप प्रसन्न होकर आपने अपनी व्यक्तिगत उन्नति को रोक
दिया है जो व्यक्ति दूसरों की कटु आलोचना या ईर्ष्या में ही रत रहता है,
उन्हीं की दुष्टताओं के बुरे परिणामों को देखता है, वह सोया हुआ है। उसे
यह ज्ञान नहीं कि उसका अपना कुछ भी हित-साधन बातों से होनेवाला नहीं है।
मनुष्य की यह स्वाभाविक कमजोरी है कि वह अपने में बुद्धि तथा दूसरे के पास धन अधिक मानता है। अपनी बुद्धिमत्ता की तारीफ करते वह नहीं थकता। उसे अपना प्रत्येक कार्य उत्तम प्रतीत होता है। चोर, दुष्ट, कातिल, कम तौलने वाला, काम से जी चुरानेवाला, कालाबाजार करनेवाला, झूठ बोलकर अपना कार्य निकालने वाला, अपने-आपको बड़ा चालाक समझता है। उस अबोध को यह ज्ञात नहीं कि चिराग तले अंधकार रहता है।
मनुष्य की यह स्वाभाविक कमजोरी है कि वह अपने में बुद्धि तथा दूसरे के पास धन अधिक मानता है। अपनी बुद्धिमत्ता की तारीफ करते वह नहीं थकता। उसे अपना प्रत्येक कार्य उत्तम प्रतीत होता है। चोर, दुष्ट, कातिल, कम तौलने वाला, काम से जी चुरानेवाला, कालाबाजार करनेवाला, झूठ बोलकर अपना कार्य निकालने वाला, अपने-आपको बड़ा चालाक समझता है। उस अबोध को यह ज्ञात नहीं कि चिराग तले अंधकार रहता है।
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