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संस्मरण >> सुनहु तात यह अकथ कहानी

सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5992
आईएसबीएन :81-8361-171-8

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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......

तीन


नित्य कितने लोग उसके अटाले में खा रहे हैं, उन परिवारों में यह कभी-कभी गृहस्वामी को भी पता नहीं रहता था। भयंकर रूप से क्षुधा-कातर हमारे गाँव के असामी में से एक-न-एक तो हमारे यहाँ बना ही रहता। रोटियों का अम्बार देखते-ही-देखते चट्ट, ऊपर से भात का स्तूपाकार पर्वत खा-पीकर गगनभेदी डकारों से दिशाएँ प्रकंपित कर हमारे वे अनजाने अतिथि दिन-भर के लिए हमारे आँगन में ही पसर जाते। पितृपक्ष की आगमनी में पूरे गृह का वातावरण ही बदल जाता। आज पितामही का श्राद्ध है, आज ताऊ का। पुरोहितजी को न्यौतने हमें ही भेजा जाता, उनके नखरे भी क्या कुछ कम रहते?

"कह देना हमें इसी तिथि को दो जगह और श्राद्ध कराने जाना है, थोड़ा विलम्ब हो सकता है।" फिर वही विलम्ब हमारी आँतों को भूख से कुलबुला देता। जब तक श्राद्ध सम्पन्न न हो हमें खाना मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता था। पुरोहितजी भोजन से तृप्त हो, दक्षिणा समेट घर चले जाते, तब हमारी बारी आती। पंचमेल की दाल, ये बड़े-बड़े उड़द की दाल के बड़े, जिनके नाभिकुहर में अँगुली डाल हम कभी-कभी सुदर्शन चक्र-सा घुमाने लगते। हरी सब्जी, फूली-फूली पूड़ियाँ, कचौड़ी और मेवे पड़ी खीर-रायता-चटनी तो रहती ही।

खाना खाते ही आरम्भ होती हमारी पदयात्रा। तिमिल के चौड़े पत्ते पर श्राद्ध का प्रसाद हमें ही घर-घर जाकर बाँटना होता था। पूड़ी-कचौड़ी, रायता, चटनी और बड़ा। अब कभी-कभी हँसी भी आती है कि तिमिल के पत्ते पर धरा वह चुटकी भरा प्रसाद किस अनुपात में बाँटा जाता होगा! किन्तु बँटता था और बड़ी श्रद्धा से सिर माथे लिया जाता था। हमारे घर भी तो ऐसा ही पत्ता भर प्रसाद आता और हम चटखारे ले लेकर चखते थे।

"अरे, यह दुकानवाले ताऊजी के यहाँ का प्रसाद है, उनके यहाँ की दाडिम की चटनी, अनारदाने के चूरन-सा ही मजा देती है, अरी, मेरे लिए भी छोड़ जरा!"

उस सरल आडम्बरहीन जीवन में तब हमारे लिए दो मुख्य आकर्षण थे। एक, जब हमारे घर के सामने की सड़क से किसी की बारात निकलती और दूसरा, जब हमारे पिछवाड़े की सड़क से किसी की अरथी निकलती। अल्मोड़ा के एकमात्र श्मशानघाट के लिए तब वही एकमात्र सड़क थी। गैस के लैम्प लिए शवयात्री जोर-जोर से 'राम नाम सत्य है, सत्य बोलो सत्य है', कहकर निकलते, तो हम एक-दूसरे को धकेलते मुँडेर पर चढ़ जाते। अपनी संधानी दष्टि का फोकस बाँध, बुआ चट से जानेवाले की जाति को भी पकड़ लेती, "है तो किसी शूद्र के घर की मिट्टी, पर कैसा भाग्यवान है, बैकुंठ चतुर्दशी के दिन गया बेचारा!"

"आपने कैसे जाना कि शूद्रों के घर की मिट्टी है, बुआ?" हमने पूछा तो बोली, "ब्राह्मण इतनी जोर से राम नाम नहीं कहते।"

यदि किसी आत्मीय की मृत्यु हो जाती और हमें सूतक लग जाता, तो दस दिन के कठिन कारावास की कल्पना से हम काँप उठते। न सिर में तेल डालना, न धुले कपड़े पहनना, न नहाना, तिब्बती लामाओं की-सी ही अपनी देह-दर्गन्ध से हम भागते फिरते। खाना भी एकदम नीरस बनता, न दाल में हल्दी, न सब्जी में। इकहरा शंख बजता, इकहरे अल्पना दिए जाते और देवताओं का नहाना-धोना, पूजा-अर्चना सब बन्द।

मृत्यु का ऐसा सम्मान करना अब हम शायद भूल चुके हैं।

कभी-कभी सामने की सड़क से तुतुरी-नगाड़े और पिछवाड़े की सड़क से राम-नाम एकसाथ गूंज उठते। तब हमारे लिए धर्मसंकट उत्पन्न हो जाता। किसे देखें और किसे छोड़ें। हो सकता है, बारात देखने तक शवयात्रा निकल जाए और उसे देखने चले गए, तो सेहरा बाँधे दूल्हा, हाथ में रुमाल लिए नाचती नर्तकी ही हाथ से निकल जाए। उन दिनों रईसों की बारात में आगे-आगे नाचती नर्तकी का होना अनिवार्य था। सेहरा बाँधे, हाथ के दर्पण में अपनी छवि देख, स्वयं नैरसिस-सा मुग्ध होता नौशा, साथ ही रामनाथ बाजी की पेंचदार तुतुरी की रणबाँकुरी गूंज-तू तू तू तू...! यदि क्षत्रियों की बारात होती, तो आगे-आगे तलवार भाँजते, नाचते दर्शनीय राजपूत छोल्यारों की जोड़ी, जिन्होंने पहाड़ की ये दुर्लभ बारातें देखी हैं, वे ही जानते हैं कि तुतुरी की वह गगनभेदी गूंज पहाड़ों को चीरती-भेदती चली जाती तो पर्वतश्रेणियाँ तुरन्त जुगलबन्दी में उसका प्रत्यत्तर देती-तू तू तू...!

आज तो वह परम्परा अश्लील नाचों में खोकर रह गई है। शराब के नशे में धुत्त नौशे के मित्र कन्या के घर तक पहुँचने में ही घंटा लगा देते हैं। कभी की पीतवसना शृंगारविहीना पर्वत कन्या भी अब परम्पराओं को पैरों तले रौंदती सीधी चली जाती है पेशेवर श्रृंगार प्रसाधन की निपुणिकाओं के पास। वहाँ सिर से लेकर पैर तक उसका कायाकल्प किया जाता है। मैनीक्योअर, पैडिक्योअर, केश-विन्यास-उसे कभी-कभी ऐसे रूप में परिवर्तित कर देते हैं कि जन्मदायिनी जननी भी पुत्री को नहीं पहचान पाती। अब वे दिन लद गए जब-

कोठे के बीच लाड़ो ने केश सखाए
बाबा नवल वर ढूँढो, सुघड़ वर ढूँढो
दादी करे कन्यादान
लाड़ो ने केश सुखाए-

अब दादी-बाबा की किसे प्रतीक्षा है? कन्या तो अब स्वयं ही अपना कन्यादान कर लेती है। जमाने ने बड़ी तेजी से पैंतरा बदला है। अभी उनतीस वर्ष पूर्व किए गए अपनी पुत्रियों के कन्यादान का स्मरण हो आता है, तो उस कठिन कवायद की एक-एक मुद्रा सहमा जाती है। कैसे कर पाई थी मैं वह सब, जब पुत्री के विदा होते ही कटे पेड़-सी पस्त पड़ गई थी। दिनों तक गला बैठा रहा, पैरों में ऐसी बिवाइयाँ पड़ गईं कि धरा पर पैर धरना कठिन हो गया था। उस पर अतिथियों के दुहेजू की बीवी से नखरे। पहले उनकी आवभगत और फिर विदा-उनकी असन्तुष्ट टीका-टिप्पणी। फिर यदि विवाह एकादशी या किसी व्रत के दिन हुआ तो और मरण। दूध में गुँधे आटे की पूड़ियाँ, मेवे, मिष्टान्न, फल, फलाहारी जुटाने में प्राण निकल जाते। फिर भी, यदि कहीं भी सामान्य-सी त्रुटि रह जाती, तो दिनों तक, शहर की अली-गलियों में बखान होता रहता, "नाम के ही बड़े हैं, दर्शन के छोटे। इत्ते बड़े घर में रिश्ता हुआ, पर नीयत देखी तुमने काखी? एकदम झंत्योल (बहुत साधारण) शादियाँ की हैं। माँ तो बस कहानी-उपन्यास लिखने में ही उस्ताद है, पर कौन बोले बाबा, कहीं सुन लिया, तो अपनी क़लम से हमारा ही गला रेत देगी।"

देखते-ही-देखते, पहाड़ के इन संस्कारों का भी पूरा व्याकरण ही बदल-सा गया है। वह युग बहुत पीछे छूट गया है, जब नैनीताल की कड़कड़ी ठंड में बड़ी-बड़ी परातों में, घंटों तक दही में भीगी सूजी को कुँअर कलेवे के सिंगल के लिए सशक्त हथेलियों से फेंटा जाता। पौ फटने से पहले ही कड़ाही चढ़ जाती और सारा घर सुनहले-लाल सिंगलों की सुगन्ध से महमह महक उठता। उधर पहाड़ की भीम की गदा-सी मोटी करड़ी ककड़ी का पीला-पीला रायता तैयार होता, उधर दाडिम की चटनी। जम्बू में छौंके आलू के गुटके और काशीपुर की प्रसिद्ध खुरचन-सा स्वादिष्ट कलाकन्द।
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