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सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5992
आईएसबीएन :81-8361-171-8

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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......


पर यह सब जानकर भी जाने क्यों प्रियजन का विछोह दुर्वह प्रतीत होता है। कोई बिछुड़ता है तो उसकी स्मृतियों से मुक्त तटस्थ होने में, मुझे आज भी बहुत समय लगता है। शायद मेरी कल्पनाप्रवणता ही मुझे दिनों तक अशान्त बनाए रखती है और बिछुड़े प्रियजनों की एक-एक स्मृति एकान्त पाते ही छाती पर पाषाण बनकर बैठ जाती है। कुछ लोग आघात खाकर भी शीघ्र ही अपनी स्वाभाविक दिनचर्या में लौट आते हैं। पर मेरे जैसे कुछ दुख से जल्द उबर नहीं पाते। यह बात मेरे पति जानते थे। वे यह भी जानते थे कि मेरे जीवन में, उनका प्रथम स्थान है, और वे चले गए तो मैं उद्भ्रान्त दिशा-हारा पथिक-सी ही विवश बन जाऊँगी। अतः अपनी रोगव्याधि बढ़ने पर वे प्रायः ही अपनी आसन्न मृत्यु के लिए मेरे शून्य भविष्य की भूमिका बाँधने लगे थे। पर जहाँ वे बात उठाते, मेरी प्रगल्भा वाणी उनकी चेष्टाओं के आगे परिहास की एक दीवार खड़ी कर देती। भीतर ही भीतर उस सम्भावना से मैं थर-थर काँपती रहती थी, यह करुण सत्य हम दोनों ही भली प्रकार जानते थे। शायद पति की उसी भूमिका का प्रभाव था कि मैं अन्ततः विधाता की उस घातक मार को भी चुपचाप सह सकी। एक-एक कोने से जैसे वही परिचित कंठ-स्वर गूंजता रहता-रोना मत, मेरी आत्मा को तुम्हारा असहाय रुदन कष्ट ही देगा। जीना सीखो, मृत्यु देखकर ही मनुष्य जीना सीखता है। पति के इसी अदृश्य आदेश ने मुझे जीना सिखा दिया। माँ ठीक कहती थी, कुछ भी तो बन्द नहीं होता। सुदर्शन-चक्र सा घूमता है संसार-चक्र भी। वही स्मृतियाँ भी देता है, विस्मृति भी। सबसे देर तक अंचल ग्रन्थि किए साथ चलती हैं सुखद दाम्पत्य की स्मृतियाँ।


दाम्पत्य के भी कैसे-कैसे रूप देखे हैं मैंने अपने दीर्घ जीवन में! अल्मोड़ा में पहले पागल एवं भिक्षुक हर गली, हर मोड़ पर दिखते थे। अब याद आती है, उनमें एक वृद्ध लामा दम्पत्ति की युगल जोड़ी। प्रायः ही वे रविवार को आते। मुँह खोलकर के अलावा कोई दूसरी भाषा आती थी। वृद्ध लामा की वयस लगभग अस्सी वर्ष की रही होगी-पत्नी एक-आध वर्ष छोटी पर न पीठ झुकी थी न चाल में ही वृद्ध वयस के हस्ताक्षर दिखते थे। लामानी के गोरे चेहरे पर दोनों आँखों के नीचे काली झाँई, गालों की झुर्रियाँ अलबत्ता यह बतलाती थीं कि उसने अपने जीवन में अनेक चिन्ताएँ झेली हैं।

-तुम्हारी सन्तान नहीं है क्या? एक बार मैंने पूछा तो वह नहीं समझे। मैंने अपने भाई-बहनों को दिखा, फिर वही प्रश्न दुहराया। इस बार, वह मेरी मौन भाषा समझ गई। हाथ की पाँच अँगुलियाँ दिखा फिर वह हँसने लगी, 'पाँच हैं।

-बेटे या बेटियाँ? मैंने अपने छोटे भाई के सिर पर हाथ धरकर पूछा, तो उसने हामी भरी, अर्थात् वह पाँच-पाँच पुत्रों की जननी है। पर पाँच-पाँच बेटों के रहते, माता-पिता इस वयस में भी अपना अद्भुत नृत्य प्रस्तुत कर, प्रत्येक गृह से कुछ-कुछ बटोरकर ले जाते। तब तक मैंने उस वयस में, किसी दम्पति को ऐसे नाचते-कमाते नहीं देखा था। शायद वे इस युग में आए होते, तो देश-विदेश की यात्रा कर, न जाने कितनी ख्याति, कितना धन बटोर लेते। बहरहाल अजीब स्वरलहरी में तिब्बती वृद्धा गायन आरम्भ करती, और पति के नृत्यरत पैरों की गति, क्रमशः तीव्रतर होती जाती, फिर वृद्धा को भी जोश आता और वह भी पति के साथ लटू-सी घूमने लगती। ऐसा नृत्य मैंने इतिपूर्व कभी नहीं देखा। दोनों को नाचते-नाचते ऐसा जोश चढ़ता कि उन्हें रोकना कठिन हो जाता। हमारे आँगन में, सडक चलते राहगीरों की भीड लग जाती-लगता था दोनों, नाचते-नाचते अपना दारिद्र्य, दीर्घ वयस, बहू-बेटों की अवहेलना सबकुछ भूल जाना चाहते हैं। दोनों, थोड़ी देर तक आँगन में बैठ सुस्ताते, फिर अपना थैला थामकर किसी दूसरे घर में नाचने चल देते। दुख-दैन्य, दुर्दशा, अपमान से सहज मुक्ति। आज भी मुझे प्रायः ही उस क्लातिरहित, उन चेहरों के साथ, जिन्होंने जीवन जीकर जिया घुलकर नहीं. अर्जुन की दो प्रतिज्ञाएँ स्मरण हो आती हैं, दैन्य न दिखाना और पलायन भी नहीं।

अर्जुनस्य प्रतिज्ञा द्वयं,
न दैन्यं च न पलायनं।

ऐसा स्वाभिमान आज जनसामान्य में ही नहीं, भाषण देने में पटु हमारे जननेताओं में भी कम ही दीखता है। दीखे भी कैसे? नैतिकता गई भाड़ में, मात्र कस शत्रुपक्ष की छाती पर मँग दल सत्ता हासिल करें, यही नेताओं का मुख्य ध्यय बन गया है। स्वदेशी. स्वाभिमान या उदारता के कितने ही टोटकों के विषय में, हम अख़बारों में पढ़ते रहते हैं। पर यदि कोई नेता या समाजसेवी अपना स्वण किरीट किसी दरिद्र कन्या के कन्यादान के लिए दे दे, या चुनाव आने पर जनता के सुरापान के लिए बड़े औदार्य से गृहद्वार खोल दे, इसे हम निःस्वार्थ निःस्पृह दान नहीं कह सकते। ऐसी हरकतों से मिली लोकप्रियता सदा नहीं बनी रह सकती। देर-अबेर, जिस दिन ऐसे स्वाभिमानविहीन स्वामी के हाथों से, राजदंड छीन लिया जाता है. सहसा वे कौडियों के मूल्य बिकने लगत ह। आर लगता है ऐसे राजाओं से, हम बिना राजा के ही भले!

एक कहानी कभी पढ़ी थी कि आखेट-प्रिय एक राजा मार्ग भूल उस भयानक वन में पहुँच गया था, जो नरभक्षी सिंहों के लिए कुख्यात था। वह लौटने का मार्ग ढूँढ़ रहा था कि सहसा उसकी दृष्टि एक वृद्धा पर पड़ी, उस गहन अरण्य में, वह ठंड से थर-थर काँप रही थी। राजा ने पूछा-अम्मा, तुम यहाँ अकेली क्या कर रही हो? जानती हो यहाँ नरभक्षी दिन-रात घूमते रहते हैं? यह स्थान निरापद नहीं है।

-जानती हूँ बेटा! पर इससे निरापद स्थान और कहाँ जुट सकता है? यहाँ कोई राजा तो नहीं है।

आज. हमारे पूरे देश की यही दर्दशा है। राजा अनेक हैं, पर प्रजा इधर-उधर भाग रही है। पूरा देश, आज दुर्घट समय से गुजर रहा है। भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा तक पहुंच चुका है और राजा हैं उससे जूझने में अक्षम। हमारी होनहार युवा पीढ़ी को अब स्वदेश का उतना मोह नहीं रहा जितना विदेश का है। स्वाभिमान की परवाह किसे है?

माता नास्ति पिता नास्ति
नास्ति बन्धु सहोदरा

जो है, सो विदेश जाने का पारपत्र है, डॉलर हैं। स्वाभिमान का बन्धन वे कब का तोड़ चुके हैं। किन्तु एक-न-एक दिन उनका यह भ्रमजाल अवश्य टूटेगा, देश के प्रति उनकी गद्दारी, स्वयं उन्हें गहन अपराध भावना से भर देगी, जब परदेस में वे नस्लभेद के दर्शन करेंगे।

जीवन में मनुष्यों के अनेक बहुरूपी चेहरे देख, मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि हमारे संस्कार, हमें स्वयं झकझोरकर पुनः स्वदेश के प्रति, अपनी कृतज्ञता प्रदर्शन करने का सुअवसर अवश्य देते हैं। पश्चिमी वैभव, भले ही आज कई सरल भारतीय आँखों को चौंधिया रहा हो, पर वहाँ की सुख-सुविधाओं का मूल्य, उन्हें बहुत भारी रकम देकर जुटाना पड़ेगा। वह रकम भले ही सांस्कृतिक हो या उनके बुद्धि कौशल की। दुःख मुझे बस यही है कि उनके प्रत्यावर्तन का सुख भोगने, उनकी सहिष्णु जननी या त्यागी पिता सम्भवतः नहीं रहेंगे। तदुपरांत एक गहन अपराध भावना उन्हें जीवन-भर सालती रहेगी। सुना है कि पंजाब के एक गाँव में केवल वृद्ध या वृद्धाएँ ही रह गए हैं-अपने विस्मृत गाँव को सजाने-सँवारने में प्रवासी पत्रों ने कोई कृपणता नहीं बरती, फिर भी उस युवा पीढ़ीविहीन ग्राम में मरघट का-सा सन्नाटा रहता है। कहीं पूरा भारत ही इसी सन्नाटे से मृतप्राय न बन जाए यह भयानक सम्भावना, रह-रहकर कलेजा कँपा जाती है, इसी से वे सुनहले दिन बार-बार याद आते हैं, जिन्हें हमने भोगा है, देखा है।

मेरी असमाप्त कहानी भी सदा असमाप्त ही रहेगी क्योंकि मनुष्य का पूरा जीवन ही तो एक असमाप्त कहानी है। पर इसकी गरिमा का उत्स सदा अर्जुन की उन दो कालातीत प्रतिज्ञाओं में ही छिपा रहेगा, 'न दैन्यं न च पलायन!'

इन दो कठिन प्रतिज्ञाओं का अपने सुदीर्घ जीवन में पालन कर चलाचली की वेला में पहुँच आज मैं सिर उठाकर पीछे छूटे जाते जीवन से 'वारसी' के शब्दों में कह सकती हूँ-

बहुत दिया है तेरा साथ ज़िन्दगी मैंने।

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