लोगों की राय

संस्मरण >> सुनहु तात यह अकथ कहानी

सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5992
आईएसबीएन :81-8361-171-8

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

15 पाठक हैं

प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......


नवनीत में तेरा लेख पढ़ा, तीन बार हाथ में लिया, तीनों बार आँसुओं ने पढ़ने नहीं दिया। फिर मन पक्का कर, पूरा पढ़ गई। हृदय विदीर्ण हो गया। किन्तु एक बात कहूँ-जीवन या कार्य के अन्त का निर्णय स्वयं विधाता लेता है, उसमें किसी का वश नहीं चलता, न कोई उपाय ही होता है। उपाय, एक ही है, दिन-रात विष का यूंट पीते रहना। इन दो अंजलियों ने (मेरे पति और पिता की) मुझे जैसी अकथनीय वेदना दी है, यह स्वयं वही जानता है। किन्तु संसार चक्रमय है। भाग्य का सुदर्शन चक्र घूमता रहता है। यही समझकर धैर्य रखना कि कभी हमारी भी बारी आएगी। विधाता ने मन बहलाने का तुम्हें बहुत भारी साधन दिया है। धीरे-धीरे, तुम्हारा धैर्य ही तुम्हारी लेखनी को गति तथा स्थिरता देगा। इस क्षणिक अस्थिरता की परवाह मत करना। अन्ततः कोई चीज नहीं छूटती-खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना, हँसना-बोलना, सब शरीर के साथ अन्त तक बने रहते हैं। समय सब घाव ठीक कर देगा। यही समझना कि तुम्हारे मालिक, चौबीसों घंटे, तुम्हारे साथ हैं। मरणपर्यन्त तुम्हारे साथ रहेंगे। उन्हीं का ध्यान कर, अपना कर्तव्य करती रहो-विधाता को भूलकर भी दोष न दो, अब पति ही तुम्हारे ईश्वर हैं। जैसे, भगवान कभी प्रत्यक्ष नहीं दिखते, किन्तु पत्थर या पीतल संगमरमर की मूर्ति में अदृश्य बने रहते हैं, वैसे ही पति भी अदृश्य रूप में सदा तुम्हारी रक्षा करते रहेंगे।


माँ की मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व, जब डॉक्टरों ने मुझे मधुमेह से पीड़ित होने पर जर्दा छोड़ने की सख्त हिदायत दी थी और मैं दुर्बल इच्छा-शक्ति के कारण उस कुटेव को छोड़ नहीं पा रही थी, तब मैंने माँ से कहा था-इसके बिना मैं जी नहीं पाऊँगी।

उग्रतेजा माँ का तीर-सा तेज आघात मुझे चुप कर गया था-क्यों? जिस मालिक ने जीवनभर साथ निभाया, उसके बिना रह सकती है? इस कमबख्त जर्दे के विना नहीं?

प्रखरता और औदार्य माँ के व्यक्तित्व के दो मुख्य तत्त्व थे पर आज कई बार लगता है माँ के जीतेजी हमने उसके इन गुणों की गरीयसी वरीयता नहीं जानी। एक बार बंगलौर में हम सब भाई-बहन माँ को घेरकर बैठे थे तो हमारे पिता आए और हमारे बीच सन्तरों से भरा एक थैला रख दिया। हमने बड़े अधैर्य से, एक-एक सन्तरा उठा लिया, माँ के लिए कुछ भी नहीं बचा। तत्काल, हमने अपने-अपने सन्तरे से दो-दो फाँके माँ को थमा दीं। देखते-ही-देखते एक पूरे सन्तरे की फाँकों से अधिक फाँकों से माँ का करपुट भर गया।

देखा तुमने? पिता ने माँ से कहा-तुम्हें सन्तरा नहीं मिला फिर भी पूरी फाँकें मिल ईं। इन बच्चों के रहते तुम्हें जिन्दगी-भर कोई कमी नहीं रहेगी। इन्हें सन्त मिले तो बिन माँगे ही तम्हें फाँकें मिलती रहेंगी। पर आज लगता है, अपने जीवन में, प्रचुर सन्तरे पाकर भी क्या हम भाई-बहन अपने प्रत्येक सन्तरे की फाँक उस माँ तक पहुँचा पाए, जिसका समग्र जीवन ही त्याग की परिभाषा बनकर रह गया था?

आज लखनऊ में जहाँ बैठकर, अपने भूले-बिसरे अतीत का यह चित्र आँक रही हूँ, वहाँ कॉलोनी में इस वक्त दोपहर में मरघट का-सा सन्नाटा है। जहाँ मेरा निवास है वह सरकारी अफसरों की कॉलोनी है। प्रान्त की ऐसी दुरवस्था है कि अफसरों को दफ्तर न जाने की पूर्ण स्वतन्त्रता रहती है। आराम से विलम्बित नाश्ता निबटा, लाल-नीली बत्ती चमकाती सरकारी गाड़ियों में वे सचिवालय की बासी फाइलों को क्षण-भर को सहला, पुनः लंच के लिए अपने आवास पर पहुँच सकते हैं। पर यही अल्पविराम, मुझे एकान्त जुटा देता है। मरघट के इस सन्नाटे में कभी-कभार कबाड़ी की संगीतमयी हाँक विघ्न अवश्य डालती है, किन्त दिल्लीवाले माफ करें यहाँ की तुलना में, लखनऊ के कबाड़ियों का कंठ-स्वर अधिक सुरीला है। पाठकों से विषयांतर के लिए क्षमायाचना कर पुनः आत्मकथा पर लौटती हूँ।

मेरा जन्म, सौराष्ट्र के राजकोट नगर में हुआ किन्तु जन्मभूमि कुमाऊँ रही, और सदा रहेगी। इसे मुझसे कोई छीन नहीं सकता। कुमाऊँ ने मुझे कभी घास भी नहीं डाली, पर गढ़वाल ने कई बार सम्मानित कर सदा गले से लगाया है। मेरे पति का मातृहीन शैशव तथा प्रखर कैशोर्य भी वहीं बीता था। प्राथमिक शिक्षा भी गढ़वाल के ही ग्राम की पाठशाला में हुई। बाद में शिक्षा विभाग में उच्चपदस्थ होकर वे अपने गुरु के चरण छूने, जब तक गुरु जीवित रहे, झरिया खाल के अपने पुराने स्कूल में अवश्य जाते रहे। इसी उदारचेता गढ़वाले ने अकृपण हस्त से मुझे भी वैसा ही सम्मान दिया, जो मेरे दिवंगत पति को मिलता था। पर जन्मभूमि का मोह मनुष्य के हृदय में सदा बना रहता है। मैं तो इस धरित्री का अकिंचन कणमात्र हूँ, अनेक उद्भट विद्वानों ने कुमाऊँ की इस पावन धरणी को धन्य किया है। मेरे पितामह स्वयं इसी धरणी के नररत्न थे। रिश्ते के नाना, 'गुमानी' कवि को भी अनेक भाषाओं पर समानाधिकार था। यह इलाका सदा से जुझारू बौद्धिकों की खान रहा है। विपत्तियों के थपेड़े खाकर भी कुमाऊँवासियों के चेहरे कभी नहीं मुरझाते, एक मस्त निगरगंड साधु की-सी निर्भीकता उन्हें फक्कड़ाना अन्दाज में निरन्तर झुमाती रहती है। ईमानदारी में सदा स्वयं अपनी मिसाल रहे अपने देशबन्धुओं की प्रशंसाकृपणता का दौर्बल्य भी, मुझे अपनी इस फक्कड़ जन्मभूमि से प्यार करने से नहीं रोक पाता। श्वसुर कुल के हमारे आदिपुरुष थे जयदेव पंत, जो कोंकण से आकर कुमाऊँ में बस गए थे। कैसा दुर्भाग्य है कि आज इतिहास और परम्परा के नाम पर भगवा-लाल पताकाएँ लेकर लड़नेवालों को यह समझने का समय भी नहीं, या कहें कि इच्छा ही नहीं कि कुमाऊँ के दर्शनीय प्राचीन देवालयों के खंडहरों में न जाने कितने अन्य परिवारों, कुलों के कितने युगों का इतिहास सिमटा पड़ा है। कटरमल्ल का सूर्य मन्दिर, बागेश्वर का मन्दिर (जहाँ के विषय में कहा जाता है कि किसी परलोक यात्री की अर्थी, जब इस देवालय से होकर गुजरती है, तो मृत देह भी एक पल को करवट अवश्य बदलती है।); खेद है कि ऐसे ऐतिहासिक खंडहरों में भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने इतिहास ढूँढ़ने तथा उसे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्यता में उल्लिखित करने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया। ऐसे-ऐसे कवियों, ज्योतिषियों, वास्तुकारों की इस विद्वतप्रसूत भूमि का हमारे इतिहास में क्या कोई योगदान नहीं? स्थानीय परिवारों के सुललित स्थानीय इतिहास का पाथेय प्रायः अम्मा ही हमें थमाती रही। औपचारिक इतिहास की पुस्तकों में वह अधुनातन अदृश्य है।

माँ से ही हमने सुना था कि हमारे निवास स्थान 'कसून' की नींव पड़ी, तो ऐसे प्रसिद्ध वास्तुकारों को मंत्रणा के लिए आमन्त्रित किया गया था, जो भू-भाग की मिट्टी हाथ में लेते ही बता देते थे कि स्थान शुभ है या अशुभ। पूजा की वेदी की पुनः प्राणप्रतिष्ठा की गई थी। जब तक इस गृह की वेदी में गृह का ठाकुर परिवार विराजता रहा-हमारा परिवार, समृद्धि के सर्वोच्च शिखर से, सब सदस्यों को धन्य करता रहा। किन्तु वर्षों पश्चात् जब आधुनिक बयार चली, तो कुलदेवता स्थानच्युत कर दिए गए। देखते ही देखते परिवार की कुलदेवी की कुपित दृष्टि पूरे गृह को भस्मीभूत कर गई। मृत्यु का हृदयहीन धारावाहिक आक्रमण गृह के पुत्र जामाताओं की बलि लेकर भी शान्त नहीं हुआ। क्या यह हमारी माँ का अन्धविश्वास मात्र था, या कुलदेवी का कोप?

मेरे पिता, अश्विनी कुमार सनातनी गृह के ज्येष्ठ पुत्र थे-विदेश गए तो शिक्षा सूत्र से स्वेच्छा से ही मुक्त हो लिए। उधर पितामह, नमक भी गंगाजल से धोकर, काम में लाते थे, और चूल्हे की लकड़ियाँ भी धोकर, धूप में सुखाई जाती थीं। किन्तु सांस्कृतिक आलोड़न के बीच भी शिक्षा और पठन-पाठन के संस्कार अचल बने रहे। वहाँ की भग्न दीवारों में अभी भी, नित्य प्रातःकालीन विष्णु सहस्र नाम की गूंज, जर्जर छत को शायद थामे खड़ी है-

मनोजवस्तीर्थ करो
मनोजवस्तीर्थ करो
बसुदेता बसु प्रदः
बसु प्रदो वासुदेवो
वसुर्व सुमना हविः
<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book