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एक थी रामरती

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :129
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5990
आईएसबीएन :978-81-8361-161

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एक जीवन्त पात्र रामरती को लेकर लिखा गया मार्मिक कथात्मक संस्मरण...


स्वर-लय नटिनी


आज, समाचारपत्र का पहला पृष्ठ देखा, तो वह लगभग विस्मृत हो उठा हँसमुख चेहरा जीवन्त हो गया। ‘प्रख्यात रवीन्द्रसंगीत गायिका कनिका वंदोपाध्याय का, कलकत्ता के अस्पताल में निधन'। मैं सहसा अपनी स्मृतियों का जंग-लगा ताला टटोलने लगती हूँ। कैसा आश्चर्य है कि यह ताला अब बिना कुंजी के हाथ का स्पर्श पाते ही स्वयं खट से खुल जाता है! जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, वैस-वैसे जिज्ञासा स्वयं विलुप्त होती जाती है क्या होगा? की हमें फिर चिन्ता नहीं रह जाती, क्या हुआ था? इसी की स्मृति प्रबल हो उठती है। अतीत, क्षण-भर में वर्तमान को बहुत पीछे ढकेल देता है।

शान्तिनिकेतन का सुदीर्घ प्रवास, मेरे जीवन में सदा महत्त्वपूर्ण रहा है, और अन्त तक रहेगा। स्वयं गुरुदेव से लेकर, श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य क्षितीशमोहन सेन, प्रभात मुकर्जी, सुखमय घोष, जैसे दुर्लभ गुरुजनों की शिक्षा, अमिता सेन, कनिका, ज्योतिष देववर्मन, शान्तिदेव, शैलजा रंजन जैसे प्रतिभाशाली व्यक्तियों का स्नेहपूर्ण साहचर्य रक्तमज्जा में अभी तक रिसावसा है। ब्रह्मा के नाभिकुंड में भरे अमृत-सा वह कभी शेष नहीं हो सकता। कनिका तब मुखोपाध्याय थी, पिता सत्य दा आश्रम पुस्तकालय के लाइब्रेरियन थे। अत्यन्त अनुशासनप्रिय, सौम्य, गम्भीर व्यक्ति। 'गुरुपल्ली' में ही उनका फूस से छाया छोटा-सा मकान था, जिसमें वे अपने वृहत परिवार का पालन-पोषण, सत्य दा कैसे कर पाते थे। कनिका उनकी सबसे बड़ी पुत्री थी, उसके बाद सींक से भी दुबली कई बहनें थीं जिनकी गोद में एक-न-एक भाई या बहन अवश्य रहता। कनिका का 'डाकनाम' था मोहर, हम उसे इसी नाम से जानते थे। कब और कैसे, वह मेरी अभिन्न मित्र बन गई, मैं स्वयं ही नहीं जान पाई।

बुद्धवार को आश्रम की छुट्टी रहती, और मैं उस दिन उसके यहाँ अवश्य जाती। लैया, संथाली गुड़, बेर का आचार लाकर मोहर की माँ मुझे थमातीं-खाओ माँ, आर तो किछुई नैंई एकटू घोल करे दी? (खाओ माँ, और तो कुछ भी नहीं है, थोड़ा-सा मठा बना दूँ?)

किन्तु प्रेम से थमाई उस तश्तरी का नाश्ता मुझे अमृतोपय लगता। बहुत वर्षों पश्चात् मैंने इन्हीं आँखों से मोहर का वैभव भी देख लिया। सचमुच ही वह अपने परिवार के लिए सोने की मोहर बन गई थी। जितनी ही बार, उसकी सजी-धजी नवीन कोठी देखती, उतनी ही बार उसकी सरला जननी की स्नेह दृष्टि करती आँखें याद हो आतीं। ‘आर तो किछूई नैंई माँ, एकटू घोल करे दी?' कनिका, इकहरे बदन की लमछर, गेहुँए रंग की आकर्षक लड़की थी। जैसी प्रत्याशा उसकी उम्र की लड़कियों में आज आ गई है, जैसे एक संगीत एल्बम बनते ही आज की किशोरियाँ, स्वयं अपनी ही छवि पर न्यौछावर हुई जाती हैं, वैसी प्रत्याशा, वैसा अहंकार, उसे कभी छू भी नहीं पाया था। वह अपनी प्रतिभा से अनभिज्ञ थी, शायद इसीलिए उसके गायन में इतनी सहजता थी। उसे विधाता ने एक और गुण प्रदान किया था। शायद बहुत कम लोग जानते होंगे कि वह एक जन्मजात ‘मिमिक' थी, नकल उतारने में उस्ताद। जिस व्यक्ति की वह नकल करती, उसकी आबेहूब छवि प्रस्तुत कर देती। एक बार हम सब ‘यात्रा' (नौटंकी) देखने शिउड़ी गए। यात्रादल बाहर से आया था, टिकट था दो आना। नाटक का नाम तो याद नहीं किन्तु राधाकृष्ण की प्रेमगाथा पर आधारित था। पर्दा खुलते ही नकली बाल खोले उन दिनों का अत्यन्त लोकप्रिय गाना गाती एक गोपिका कृष्ण को ढूँढ़ने लगी :

ओरे नील जमुनार जल-
बौल रे आमाद बौल
कोथाय घनश्याम?
(अरे नील जमुना जल, मुझे बता मेरा घनश्याम कहाँ है?)

उन दिनों, नारी का अभिनय भी पुरुष ही करते थे। होंठों पर मूंछों की स्पष्ट रेखा, बाँहों में खेलती मांसपेशियों की मछलियाँ और मोटा कंठ स्वर। इतने ही में राधा प्रगट हुई-राधा के रूप में, एक विराट्काय भीमपुरुष साड़ी लपेटे, गोपिकाओं से लड़ने लगा। गर्दम स्वर में, साड़ी जाँघों तक उठाकर वह ठेठ वीरभूमि लहजे में बोला :

नंदगुस्यार छलेर संगे, कखन हाँशियाही?
हाँशियाही तो बेश करहीं, तुदेर गैलो की?


(अरी बता तो, मैं कब नंदगुसाईं के लड़के के साथ हँस रही थी? हँसी भी तो जा खूब हँसूंगी-तेरे पेट में क्यों दर्द हो रहा है?)

उसकी तिर्यक् चितवन, कमर में हाथ रखने की कलह-प्रिय मुद्रा, वैसा ही गर्दम स्वर प्रस्तुत कर, घर लौटते ही कनिका ने अपनी अद्भुत प्रतिभा का झंडा अनायास की गाढ़ दिया था।

किन्तु अमृत का उत्स था उसके कंठ में, मीरा के भजन, कबीर के निर्गुन, नजरूल की, अतुलप्रसाद की गजलें-जिनमें नजरूल की ‘ओरे बनेर हरिण आय' और अतुलप्रसाद की 'कत गान तो होला गावा, आर मिछे कैनो गावा-' जब वह आँखें मूंदकर इस गीत की अंतरा गाती तो वनवनांतर उस रस-वृष्टि से सराबोर हो उठते :

यदि आमार दिवा राति
केटै जावे बिना साथी
तबै कैनो बधूर लागी
मिछे पथ पाने चावा?

रवीन्द्र-संगीत की तो वह जन्मजात साधिका थी-किस-किस गाने से उसने यश एवं समृद्धि नहीं बटोरी? कहाँ तक याद करूँ? 'ओगो तूमी पंचदशी' या 'मेघेर परे मेघ जमेछे आंधार करे आशे' या 'वेदना की भाषाय' या 'बाजे करुणास्वरे?' क्या कंठ था और कैसी अपूर्व सहजता। उसका पहला रिकॉर्ड बनाकर, स्वयं श्री महलानवीस उत्तरायण आए थे। मैं भी कनिका के साथ सुनने गई। अपनी प्रिय आरामकुर्सी पर गुरुदेव बैठे थे आँखें मूंदें, बड़ी तन्मयता से अपनी रचना सुन रहे थे :

घरे तो भ्रमर एलो गुनगुनिये

इसके बाद, मोहर ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उसके मधुर कंठ-स्वर ने कुबेर का स्वर्णछत्र ही उसके प्रांगण में गाढ़कर रख दिया। एक बार आचार्य क्षितीशमोहन सेन उससे मीरा का भजन सुनकर आत्मविभोर हो गए थे :

हेली मौसू अब हरिबिन

रहयो न जाय

'माँ तुई नाम करबी, जा लिखे ने' (माँ तू नाम कमाएगी, जा लिखकर रख ले)-उनकी भविष्यवाणी उनके जीवनकाल में ही साकार हो गई थी।

लगभग चालीस वर्ष के अंतराल को चीर मैं एक बार आश्रम की आपादमस्तक बदल गई छवि को देख रही थी। हिन्दी-भवन की स्वर्ण जयंती में हम छात्र-छात्राओं को आमन्त्रित किया गया था।

'गुरुपल्ली' ढूँढ़ने निकली तो देखा गुरुजन ही नहीं ‘गुरुपल्ली' भी विलुप्त हो गई है। यहीं तो सत्य दा का फूस की छतवाला मकान था। ‘यह चिड़ियों का सुखधाम सखे!” चिड़ियाँ ही उड़ गईं तो घोंसले कहाँ रहेंगे? पता लगा, कनिका ने अब श्रीनिकेतन वाली सड़क पर मकान बना लिया है। वहाँ पहुँची तो अनेक परिचित चेहरे देखे, कोई व्हील चेयर पर, कोई वाकर का सहारा लिए, कुछ जा चुके थे, कुछ जाने को तत्पर! गौरी दी, श्री नन्दलाल बसु की पुत्री, उनके पुत्र विशूदा जिनका बनाया मेरा पोर्टेट, अभी भी मेरी दीवार पर टॅगा है, अब बेचारे व्हील चेहर पर इधर-उधर घिसटते रहते। उनकी पत्नी प्रसिद्ध नृत्यांगना निवेदिता, पुत्र एक ही था, जिसे हम वर्षा बाबू कहते थे, विदेश चला गया और विदेश गया बेटा क्या सहज में हाथ में आता है? अन्त समय उसके कन्धे मिल जाएँ और माँ-बाप की चिता की परिक्रमा कर ले तो समझ लें, कानों में वासुदेव मन्त्र चला गया?

दिनकर कौशिक, जो कभी मेरे गाने के साथ बंशी बजाता था, उसकी स्नेहमयी पत्नी पुष्पा तर्वे। पूरी परिक्रमा कर कनिका का द्वार खटखटाया तो क्षीण स्वर में किसी ने पूछा-के रे? द्वार खुला था, मैं भीतर गई, मुझे देखते ही. पहले वह चकित होकर देर तक देखती ही रही फिर उसने बाँहें फैला दीं-। बड़ी देर बाद समझ में आया कि वह उठने में लगभग असमर्थ हो चली है। कैसा असाध्य रोग था। ‘अचल रोग, जानीश'। यह अचल रोग कहलाता है, सब हड्डियाँ चक्का जाम। उसकी करुण हँसी कलेजा बींध गई–'की कष्ट रे बाबा-' वह फिर हँसी। क्या यह वही कनिका थी जो कभी अपनी क्षीण कटि की बंकिम कलहप्रिय मुद्रा में टिड्डे-सी फुदकती गाती थी :

हेशेछी तो बेश करछी

तुदेर गैलोकी?

वह उस विराट् मकान में एकदम अकेली, कभी-कभी छोटी बहन आ जाती थी-कंठ में तो विधाता ने अमृत बूटी भर दी किन्तु सन्तान-सुख से वंचित कर दिया-वर्षों पूर्व, उसने एक बार गुरुदेव की दक्षिणी पद्धति में बाँधी बिदिश गाई थी- 'बाजे करुणा स्वरे' आज वही गूंज उसकी आँखों में उतर आई थी।

मेरे मुख से आती जर्दे की सुगंध, सहसा उसे फिर टटका कर गई-तुई जर्दा खाश ना की रे? वाह की सुन्दर गन्ध, दे ना एकटू (तू भी जर्दा खाने लगी है क्या? वाह क्या खुशबू है, दे तो जरा-)

मैंने उसे अपनी डिबिया थमा दी-'तू रख ले, मैं तो जाते ही फिर ले। लूँगी'।

यही नहीं, मैंने उसे वह चार पंक्तियाँ भी सुना दी, जो लखनऊ के किसी नवाब ने अपने सहर्स से कही थी। वे अपनी डिबिया साथ लाना भूल गए थे और सहर्स के मुँह से आती सुगन्ध ने उन्हें हाथ फैलाने को विवश कर दिया था :

जा की ऐसी मोहनी
लाँबे जाके पात
लाख टके का आदमी
जाय पसारे हाथ!

चलने लगी, तो उसकी आँखें भर आईं-शायद मील का अन्तिम पत्थर पकड़े हम दोनों ही जान गई थीं कि यह मिलन, अंतिम मिलन ही रहेगा।

-तुझे देवी अट्टहास के मन्दिर की बात याद है?

-कैसे भूल सकती हूँ मोहर, आज भी याद कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

-उसी दिन वह कापालिक हमारी बलि दे देता तो इस दीर्घ जीवन का दीर्घ अभिशाप तो नहीं झेलना पड़ता।

उस दिन, हम दोनों खोदाई नदी के पार, बड़े दुःसाहस से देवी दर्शन को पहुँचे थे। वह आश्रम के लिए वर्जित क्षेत्र था। सुना था, वहाँ अट्टहास देवी का एक सैकड़ों वर्ष पुराना जीर्ण मन्दिर है, वहाँ देवी की अट्टहास मुद्रा में एक अद्भुत मूर्ति है। एक दुर्वासा-सा क्रोधी कापालिक ही वहाँ पूजा-अर्चना करता है। जिसे चीमटा मारता है, फिर उसकी कोई इच्छा अपूर्ण नहीं रहती, किन्तु वही मदालस तान्त्रिक मानुष बलि भी दे सकता है।

हम पहुँचे तो अँधेरा होने लगा था, मन्दिर के बरामदे में अधजली धूनी की अवसन्न धूम्ररेखा से धूमित एक लम्बा-सा चीमटा गढ़ा था, अधखुले द्वार से देवी अट्टहास की लपलपाती जीभ स्पष्ट दिख रही थी। हम दोनों के कलेजे हिम हो गए और एक अज्ञात भय से रोंगटे खड़े हो गए थे। धूनी के पास, पेड़ का कटा तना सम्भवतः बलि के लिए धरा था। हमने आव देखा न ताव, पलटकर भागने को ही थे कि एक आबनूसी चेहरे का अर्धनग्न व्यक्ति, हाथ में बोतल लिए खड़ा हँस रहा था-दीदी मद खाबी ? (दीदी लोग, शराब पिएँगी?)


हम दोनों की प्रत्युत्पन्नमति ने हमें कसकर चाबुक-सा मारा और हम बगटुट भागे।

-दीदी, दीदी गो मद निये जा।

उसका राशिभूत अट्टहास बड़ी दूर तक हमारा पीछा करता रहा। विधाता ने जैसे हम दोनों के पैरों में विद्युत संचालित कर दी थी। आज कनिका, शायद उसी मन्त्रपूत अट्टहास की गूंज से खिंचती, स्वेच्छा से मेरा हाथ विलग कर मुझे अकेली उसी अरण्य में छोड़ गई है। भले ही वह सदा के लिए बिछुड़ गई हो, मैं न उसे कभी भूल सकती हूँ, न उस कापालिक के अट्टहास को!

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