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संस्मरण >> एक थी रामरती

एक थी रामरती

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :129
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5990
आईएसबीएन :978-81-8361-161

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एक जीवन्त पात्र रामरती को लेकर लिखा गया मार्मिक कथात्मक संस्मरण...


मत तोड़ो चटकाय



हर ईद की आगमनी मेरी स्मृतियों का सिंहद्वार चरमराकर खोल देती है।

बचपन रामपुर में बीता, जहाँ मेरे पिता पहले हिन्दू होम मिनिस्टर नियुक्त थे। 'मुस्तफा लॉज'; की आलमगीर कोटी, ड्योढ़ी पर संगीनधारी गारद, चारों ओर फैला मेहँदी की बाड़ और नीले ऊडे फूलों की खुशबू से महकता बाग-इसी परिवेश में हम खेले-कूदे, बड़े हुए इसी से शायद आज तक, ईद हमारे लिए उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जितनी हमारी होली, दीवाली।

अब, कभी-कभी लगता है कि जमाने की बेरहम करवट ने, हमारे त्योहारों की दुनिया ही बदलकर रख दी है। पहले जिन त्योहारों की आगमनी हमें उत्साह से भर देती थी, आज उन्हीं को मनाना हमारी विवशता बन गई है। जितने में कभी एक तोला सोना आता था, उतने में अब आधा किलो खोया तुलता है, वालाई पगी सेवइयाँ हमारे लिए सपना बन गई हैं और मेवों से उँसी-फँसी स्वस्थ गुझिया, आकाश कुसुमवत् बन चली है। दीवाली के खील-बताशे, खाँड के दर्शनीय खिलौने, सबकुछ पकड़ से बाहर-उस पर न वह स्वाद, न छटा। अब तो खाँड के बने हाथी-घोड़े भी आपको खंडित ही मिलेंगे, हाथी की सूंड तो घोड़े की टाँग। यहाँ तक कि अंगूठे भर के गणेश-लक्ष्मी भी पाँच रुपए से कम नहीं मिलेंगे।

खिलौने के साथ-साथ हमारे हृदय भी निश्चित रूप से खंडित हुए हैंकहीं-न-कहीं आपसी भाईचारे और प्रेम की दीवार-संशय, अविश्वास और प्रवंचना ने हिलाई अवश्य है। देखा जाए तो हमारी धर्मांधता ने ही स्वयं हमें, हमारा दुश्मन बना दिया है।

मैं आज से लगभग छप्पन वर्ष के उस युग की साक्षिणी रही हूँ, जब इनसान, इनसान था, न हिन्दू न मुसलमान। हर हिन्दू त्योहार में, देश-भर के पढ़े-लिखे, अपढ़ मुसलमान समान उत्साह से भाग लेते थे और हर हिन्दू उसी उत्साह से मुसलमानों के त्योहार में भाग लेता था। हर हिन्दू जवान पर सेंवइयों की मिठास रहती और हर मुसलमान गुझियों का आनन्द उठाता था। आज जब वे दिन याद आते हैं तो कलेजे में हूक-सी उठती है। ऐसा नहीं था तब हिन्दूमुस्लिम दंगे नहीं होते थे, मैंने बनारस के वे भयानक दंगे भी देखे हैं, जव 'अल्लाह हो अकबर' और 'हर-हर महादेव' के रोम-रोम कँपा देनेवाले नारों से बनारस की अली-गलियाँ थर्रा उठती थीं, पर तब वे चतुर चालाक अंग्रेजों की भड़काई आग थी, आज हमारे अपने राजनीतिज्ञ ही हमारे घरों को फूंक तमाशा देख रहे हैं।

मैं तब, ग्यारह या बारह साल की रही हूँगी, फिर भी ईद की वे रंगीन कस्तूरी रामपुरी शामें, मुझ दो के पहाड़े-सी याद हैं। तड़के ही हम नहा-धोकर तैयार हो जाते कि कब हमारे पिता के सेक्रेटरी अलवी साहब आएँ और हमें ईद का मेला दिखाने ले चलें। साथ में रहते हमारे ट्यूटर स्मिथ साहब के दोनों बेटे पीटर और माइकेल। ठेठ रामपुरी लिबास, कुर्ता-पाजामा, सिर पर नमाजी टोपी, टोपी से निकले सुनहले बाल और नीली आँखों में अदम्य उत्साह-चरखी में बैठेंगे। चीनी के बने गिलास, लालटेन साइकिल सब इकन्नी में। रंगीन कसी गरी में मिले किशमिश, कटे छुहारों की पुड़िया दो पैसों में। ईद का खास तोहफा। न कर्ण्य का भय न दफा 144 का आतंक! शाही सवारी भी क्या कम शान से निकलती थी! पर न साथ में होते थे मनहस काले कमांडो. न ही काले बिल्ले! नवाब साहब बेखटके ताज पहने, मुस्कराते चले जा रहे हैं, रेजगारी लुटाई जा रही है-आज के ये राजा, बिना कमांडो या ब्लैककैट के दस्ते के, एक कदम चलकर तो देख लें! भले ही बुलेट प्रूफ कार के शीशे अभेद्य हों या बुलेट प्रूफ जैकेट के जिरहबख्तर पहने हों, रिमोट कंट्रोल पूरे दल-बल को ही तो पल भर में उड़ाकर रख सकता है। और जब स्वयं राजा ही ऐसी असुरक्षा से आतंकित हो तो वह प्रजा की क्या खाक सुरक्षा करेगा? पहले से गुरुजनों को लिखे गए पत्र में, एक पंक्ति अवश्य लिखी जाती थी'श्रीमन मुख्य अपने गात का जतन को जिएगा तब हमारी पालना होगी।' अब. ऐसी मूर्खता कोई नहीं करता। यह पंक्ति ही पत्रों से उड़ गई है। हम जान गए हैं कि अपने अभागे गात का जतन हमें स्वयं करना है।

ईद के एक दिन पहले ही हमारा नया जोड़ा सिलकर मोहम्मद अली पेशकार साहब के यहाँ से लाकर हमारे सिरहाने रख दिया जाता। जोड़ा भी ऐसा कि, हर ईद पर, हर तुरपन और बखिया में नई खुशनुमा ताजगी रहती। बड़े-बड़े पायचोंवाली शलवारें और नारंगी रंग का महीन तंजेबी कुर्ता, जिसकी बाँहों में खस और हिना की चुटकियों की चुन्नटें रहतीं, यह सब ठेठ रामपुरी कुर्तों का अपना अन्दाज था, शायद अब भी हो। राजारानी मलमल का, कड़ी कलफ में महीन चुन्नटों में बँधा इन्द्रधनुषी दुपट्टा, जिस पर अबरकी चमक बीच-बीच में तारों-सी झिलमिलाती, नोंकदार सलमा-सितारे जड़ी जूतियाँ ऐसी कसतीं कि चलते तो लगता अँगुलियाँ ऐंठी जा रही हैं पर मजाल जो हमारे मुँह से उफ तो निकल गए। जितनी बार नखूनी गोटा किरन लगा दुपट्टा सम्हालते, उतनी ही बार हथेली मदमस्त खुशबू से महक उठती। खुशबू भी ऐसी कि आज के फ्रांसीसी क्रिस्टीन डियारे के संट पानी भरें। आज हम विदेशी-सुगन्ध डोर से मुग्ध हो, सैकड़ों रुपया वहा, एक छोटी-सी प्रख्यात फ्रेंच परफ्यूम की शीशी हथियाने टूट पड़ते हैं, किन्तु अपने देश में जो दुर्लभ इत्रों का अशेष कोष है, उसका हमें ज्ञान ही नहीं है-वही पंक्तियाँ सटीक लगने लगती हैं कि 'अलि आवत सौ कोस से लेन सुमन की वास-दादुर रस पावत नहीं रहै सुमन के पास! शमातुलंबर, हिना, खस, अतर गुलाब कहाँ गईं वे सुगन्ध?

ईद के दिन मनिहारिन सुबह ही आकर चूड़ियाँ पहना जाती थी, हाथ भर रंगीन काले लच्छे, एक रुपए सैकड़ा, बीच-बीच में सुनहले लच्छे-चूड़ियों का उस युग में विशेष महत्त्व था, जैसे ही लुभावने रंग वैसे ही कंगूरेदार बनावटमनिहार है तो कन्धे पर चूड़ियों की माला लटकाए, मनिहारिन है तो सिर पर चूड़ियों भरी टोकरी! नीचे धर, कपड़ा हटाती तो हमारे हृदय धड़कने लगते, कैसे-कैसे रंग और कैसी-कैसी छटा। वही अन्दाज, उन दिनों की लोकप्रियता रिकार्डों में उतर आती, उन दिनों सर्वाधिक लोकप्रिय रिकार्ड था- 'अब के बालम फिर पिन्हा दे, आसमानी चूड़ियाँ।' न आज के-से लोकप्रिय गीतों की बेहूदी भाषा, न विचित्र धुनें।

फिर, आरम्भ होती ईद-मिलन की परिक्रमा। सबसे पहले जाते चीफ साहब की कोठी 'रोजविले' ! चीफ साहब, सर अब्दुल समर खान, रामपुर नवाब के ससुर थे, और हमारे पिता के अभिन्न मित्र भी! जैसी ही ऊँची कद-काठी, वैसा ही रोबदार चेहरा। चाँदी की कटोरियों में सेवइयाँ आतीं, हमारा माथा चूम हमें ईदी थमाते, फिर न जाने कितने घरों की परिक्रमा होती, डॉ. वहीदी, डॉ. कुरैशी, माजिद साहब, मुहम्मद अली पेशकार साहब, रजा भाई और न जाने कितने और-

पेशकार साहब के सन्त के-से सौम्य चेहरे की एक-एक रेखा मुझे याद है। होंठों से लगी स्नेहसिक्त हँसी, करीने से सँवरी दाढ़ी, काली शेरवानी और गोल टोपी। उनकी बेगम, जिन्हें हम खाला कहते थे, साक्षात् अन्नपूर्णा थीं। बड़े प्रेम से खिलातीं, चौबीसों घंटे उनकी गोरी गदबदी अंगुलियों में तसवीर घूमती रहती। हमारे घर में कोई भी बीमार पड़ता तो फूंक डलवाने, उन्हें ही बुलवाया जाता।

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