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एक थी रामरती

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :129
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5990
आईएसबीएन :978-81-8361-161

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एक जीवन्त पात्र रामरती को लेकर लिखा गया मार्मिक कथात्मक संस्मरण...


जीवन-भर कभी आँखें न दुखने का उनका टोटका भी हमारे लिए अचूक रहा।

एक बार कहीं से एक सपेरे को पकड़ लाए। लाल-लाल आँखें। सिर पर उलझा रूखा जटा-जूट, कानों में बड़ी-बड़ी फीरोजा गुंथी बालियाँ। बुंदेल राजाओं की-सी विभाजित मेहँदी रंगी दाढ़ी। कन्धे के काँवर में लटकी, गैरिक कथरी में बँधी दो टोकरियाँ और टोकरियों में क्रुद्ध विवश फूत्कार छोड़ते विषधर। लोहनीजी ने हमें एक कतार में बिठा दिया।

“लो महाराज!” सपेरे ने बीन बजाकर एक टोकरी का ढकना खोलकर कहा, “सीधे अमरकंटक से पकड़कर लाया हूँ यह पद्मनाग! अभी जहर के दाँत भी नहीं उखाड़े...”

उस भयावह विषधर को गुलदस्ते-सा थाम, फिर उसने बारी-बारी से हमारी बन्द आँखों पर छुआया तो रक्त भय से जमकर हिम हो गया। न जाने कौन-सा मन्त्र पढ़कर बोला, “लो साहब, जिन्दगी-भर अब इन बच्चों की आँखें उठे तो हमारी आधी मूंछे मुंडवा दें!"

उसकी दुःसाहसी घोषणा हमें पूर्णतया आश्वस्त कर गई। अब इन मिचमिची कीचड़ सनी सूजी आँखों की सम्भावना भी हमें त्रस्त नहीं कर पाएगी। यदि कभी आँखें उठ आईं तो उसकी घनी लाल मूंछे मूंडने के मोहक प्रस्ताव का निर्वाह करने हम उसे भला कहाँ ढूँढ़ पाएँगे, यह दुर्भावना हमारे दिमाग में ही नहीं आई। किन्तु उसका आश्वासन व्यर्थ नहीं गया। नागराज का वह मृत्युंजयी स्पर्श आज तक हमारी पलकों पर प्रहरी बना बैठा है। दंत चिकित्सक के रूप में लोहनीजी की विशेष ख्याति थी। हम भाई-बहनों की बचपन की पूरी दूधिया बत्तीसी, उन्हीं की कला को समर्पित हुई। दाँत हिला नहीं कि एक पतला तागा बाँध, लोहनीजी बड़े कौशल से खींचकर हमारी हथेली पर धर देते, “जा, अब हरी दूब के नीचे गाड़ आ।" ऐंटिबायटिक के रूप में हमें खाने को मिलता, शुद्ध घृत में तर, गरम-गरम सूजी का हलवा। मुझे स्मरण नहीं पड़ता कि कभी भी हमारे नए उगे स्थायी दाँतों में से किसी दाँत ने टेढ़े-मेढ़े होने की अनुशासनहीनता दिखाई हो। अब, जब बचपन से ही लोहे के तारों में कसी-फँसी अधिकांश किशोरियों की बत्तीसी देखती हूँ तो उन पर तरस आता है। जो उम्र नए-नए चपटे स्वाद चखने की है, उसी की बत्तीसी बेडियों में कसकर रख दी। सना था चीन में बचपन में नन्हीं बालिकाओं के पैर उन्हें सुन्दर बनाने के लिए बाँध दिए जाते थे। लगता है, अब पूर्ण रूप से सभ्य बन गया मानव संसार-भर की किशोरियों की बत्तीसी बाँधकर ही रहेगा। अब शायद हमारा विश्वास अपने आदि सृष्टि-कौशल से उठ गया है। इसी से तो उसकी कला में मीन-मेष निकला, आए दिन हम उसके नम्बर काटने लगे हैं। उसके बनाए चेहरे को सँवारने के लिए हमारे पास अब प्लास्टिक सर्जरी है। उसका दिया रंग-रूप निखारने के लिए एक से एक रंग-रोगन है। अभी कुछ ही दिन पहले बम्बई में, मेरे भतीजे के नन्हे बेटे के दाँत में दर्द उपजा। दर्द से तड़पते उस तीन वर्ष के बच्चे को, तत्काल विशेषज्ञ के पास ले जाया गया। एक्स-रे हुआ। मन्त्रणा हुई। पद-पद पर विशेषज्ञों की मुट्ठी गर्म हुई और निश्चय किया गया कि उस नन्ही-सी जान को, बेहोशी देकर, दंतकोटर भरा जाएगा। अब कोई उन नए लुकमानों से पूछे कि उस तीन साल के बच्चे को बेहोशी देना. वह भी एक निरीह कच्चे दाँत के कोटर को भरने के लिए, कहाँ की बुद्धिमानी है? पर नहीं, अब तो जो विशेषज्ञ, जितना अधिक तामझाम सजाकर, हमसे जितनी बड़ी रकम उघाएगा, हमारी दृष्टि में वही सबसे बड़ा चिकित्सक है।

हमने भी कभी अपने कच्चे दाँतों में असह्य पीड़ा सही है। जहाँ दर्द उठा, लोहनीजी ने दूध टपकाती मदार की टहनी तोड़ी और वह दूध रुई से दाँत में भर दिया। फिर कहते, “अब लार टपका। खबरदार, निगलना नहीं, न हाथ आँख में लगे।” फिर न जाने कौन-सा कीलक पीठ में ऐसा लूंसा मारते कि पूरा मेरुदंड झनझना जाता। बस, दर्द हवा! इसे पहाड़ी में 'भेद' कहते हैं। तब अल्मोड़ा में ऐसे दो ही दुर्लभ दंत-भेदिए थे-एक हमारे पुरुषोत्तम लोहनी, दूसरे गोवर्धनजी! फिर, हमने एक-एक कर बचपन की वे बीमारियाँ भी झेलीं। खसरा-जब आँख-नाक से बहता पानी और तीव्र ज्वर लगभग प्राण ही ले लेता। चेचक-जो देखते-ही-देखते सारे शरीर में मोती के-से छलछलाते दाने बिखेर देती थी। तब, रात-रात-भर हमारे सिरहाने बैठ, लोहनीजी मयूरपंख से हमारी पूरी देह को सहलाते। मन्त्रोच्चार से झाड़ते :

रोगान् शेषान्नपहसि तुष्टा
रुष्टातु कामान् सकलान्नभीष्टान्
त्वामाश्रिता न विपन्नराणां
त्वामाश्रितानह्याश्रयतांभवंति

लगता था दाने-दाने की तपन, मोरपंख ने पल-भर में सोख ली है।

रवीन्द्रनाथ की एक मार्मिक कविता है-जब गृह का एक पुराना भृत्य अपने साथी के साथ वृन्दावन तीर्थ जाता है, वहाँ स्वामी को चेचक हो जाती है। वह उस परदेश में, दिन-रात स्वामी की सेवा में उसके सिरहाने खड़ा रहता हैः

मुखे दैय जल, शुधाय कुशल
शिरे दैय मोर हाथ
दांडाए निझूम, चोखे नाँही
घूम मुखे नेई तार भात

वह पानी पिलाता है। बार-बार पूछता है-अब कैसी तबीयत है? सिर सहलाता दिन-रात मेरे सिरहाने खड़ा रहता है। न उसकी आँखों में नींद है, न मुँह में भात। फिर एक दिन स्वामी रोगमुक्त हो जाता है, किन्तु वही रोग सेवक को जकड़ लेता है। स्वामी की कालव्याधि को उसने जैसे स्वयं ग्रहण कर, स्वामी को रोगमुक्त कर दिया हो।

होये ज्ञानहीन, काटिल दू दिन
बन्द होइल नाड़ी
ऐतो दिन तारे गैनू छाड़ि बारे
ऐतो दिन गैलो छाड़ी

ज्ञानहीन भृत्य ने दो दिन काटे। फिर नाड़ी बन्द हो गई। जिसे कई बार जाने को कह चुका था, इतने दिनों बाद स्वयं चला गया। शोक-संतप्त स्वामी गृह लौटता है :

बहु दिन परे आपनार घरे
फिरिनू सारिया तीर्थ
आज साथे नाँई
चिरसाथी मोर शई पुरातन भृत्य

बहुत दिनों बाद तीर्थाटन कर घर लौटा हूँ, पर आज मेरे साथ मेरा वह चिरसाथी भृत्य नहीं है। हमारी कालव्याधि स्वयं ग्रहण कर वे चले गए, हम रह गए। उन्होंने हमारे साम्राज्य का उत्थान और पतन दोनों ही देख लिए थे। इसी से अब हमारा श्रीहीन गृह, उन्हें पद-पद पर डंक देने लगा। पहले पितामह को जाते देखा, फिर हमारी बहन को, पिता को, चाचा को, फिर भी वे साहस से जीर्ण वटवृक्ष की जिद से ही हमारे गृहप्रांगण में डटे रहे। किन्तु, जब एकएक कर उन सबको भी भरी जवानी में ही कन्ध देना पड़ा, जिन्हें उन्होंने कन्धे पर बिठाकर घुमाया था, तो वे टूट गए। एक-एक कर पुराने नौकर चले गए। धीरे-धीरे मोनोग्राम अंकित, चाँदी की थालियाँ, कटोरियाँ बिकीं। वे भारी-भारी कालीन, कारचोबी की भारी शेरवानियाँ, कलंगियाँ, लहरदार साफे जो बिरादरी के शादी-ब्याहों में जितनी बार माँगी जातीं, उतनी बार लोहनीजी का पारा गरम हो जाता, न जाने कहाँ विलीन हो गईं! चाँदी का वह मस्जिदी गुम्बदवाला पानदान, जिसकी चेनों में गुंथी सुवासित मगही गिलौरियाँ मुँह में रखते ही, बताशा हो जाती थीं, वह चाँदी की तश्तरी, जिसमें अंकित बीसियों हाथी, अपनी सजीली सँड उठाए परिक्रमा-सी करते मन मोह लेते थे, क्षीणकटि की गंगाजमुनी काम की गुलाबजलियाँ, सब पुराने कपड़ों में लपेटे, लोहनीजी ही एक-एक कर बेच आए और जितनी बार हमारी गृह-समृद्धि का कोष रिक्त कर लौटते, उतनी ही बार हमारे पट्टांगन की दीवार पर ऐसे मुँह लटकाए घंटों बैठे रहते, जैसे मुर्दा फूँककर लौटे हों।

अब उनकी आँखों की ज्योति भी क्षीण हो गई थी। वह सीना जो हमेशा कबूतर-सा तना रहता था, सिमट-सिकुड़कर बित्ते-भर का रह गया था। उनके बन्द गले का काला कोट, क्रिकेट खिलाड़ियों-सा सफ़ेद, पीली-नीली पट्टीदार स्वेटर जो कभी मेरे पिता ने उनकी फरमाइश पर उन्हें विदेश से लाकर दिया था, क्रमशः क्षीण होती जा रही उनकी काठी पर ऐसे झूलने लगे, जैसे खेतों में खड़े बाँस के कागभगोड़े के तन पर झूल रहे हों। किन्तु रस्सी जलकर खाक भले ही हो गई हो, ऐंठ नहीं गई थी। उनकी जेब घड़ी, जिसने हमारे गृह की तीन-तीन पीढ़ियों के हर पल, हर क्षण को अनुशासन में साधकर रखा था, अभी भी उसी बाँकपन से, एक सिरा उनके कोट के बटन से लटकाए, उनकी जेब में टिकटिक कर रही थी। किन्तु उनके जीवन की घड़ी, धीमी पड़ने लगी। जो गृह नित्य ठसकेदार अतिथियों से गुलजार रहता था, अब वहाँ साधारण तबके के अतिथि वह भी भूले-भटके ही आते थे। लोहनीजी कहते :

पंत देख पांडे देख

मरण बखत करड़ी देख

अर्थात् पंत देखे, पांडे देखे, आज मरते वक़्त करड़ियों (करणी नाम का एक दरिद्र ग्राम) को देखना पड़ रहा है!

माँ उनसे कई बार घर लौट जाने का आग्रह कर चुकी थी, किन्तु उनकी अदम्य जिजीविषा ने उन्हें और भी जिद्दी बना दिया था।

“कैसे जाऊँ? अभी तो त्रिभी की शादी देखनी है, उसके बच्चों को गोद में खिलाना है...”

उसी भाई के विवाह के लिए, लड़की देखने का काम उन्हें ही सौंपा गया था। उस दिन उनकी सफ़ेद मूंछों से बरसती हँसी, रोके नहीं रुक रही थी। ऐसे यत्न से उन्होंने अपने को सँवारा, जैसे हमारे भाई के लिए नहीं, स्वयं अपने लिए कन्या देखने जा रहे हों। लौटे तो हमने घेर लिया- “कैसी लगी हमारी भाभी?”

“नौ रत्ती, बावन तोले,” वे बोले, और फिर सहसा हमारे धैर्य को चुनौती देने होंठ भींचकर बैठ गये। एक चुप, हजार चुप। “बताइए ना, खूब गोरी है ना?"

“हमने चेहरा थोड़ी ही ना देखा-हम क्या जानें, गोरी हैं या काली! हाँ, चाय उनकी माँ ने जरूर पिलाई।"

“तब?” वह भुनभुना उठे, “क्या आप कन्या की माँ को ही देखकर चले आये?"

“और क्या! कन्या की माँ को देखकर पसन्द की गई लड़की कभी खोटी नहीं निकलती--एकदम पक्का रंग निकलता है उस लड़की का।"

“क्या भाभी का चेहरा सचमुच नहीं देखा आपने?"

"नहीं, पैरों के, हाथों के नाखून देख लिए थे हमने, माँ के पास घुटनों में। सिर झुकाए बैठी थी...”

हम अम्मा पर बरस पड़े, “लो, और भेजो इन्हें! अब तक तो यही सुना था कि जानवरों की पहचान ही नाखून देखकर की जाती है।"
“तू चुप कर!" अम्मा ने डपट दिया, “लोहनीजी नारद बाबा के साथ रहे हैं, सिद्धि प्राप्त है उन्हें।"
बाबा की गाँजे की चिलम साधते-साधते भले ही उस अमल से लोहनीजी अछूते नहीं रहे हों, कुछ शक्ति उनमें थी अवश्य! कभी-कभी एकान्त में पतली चिलम के कड़वे धुएँ की लम्बी कश खींच वे कहते :

उस लड़के से लड़की भली
जिसने न पी गाँजे की कली

देखते-ही-देखते आँखें गुड़हल-सी लाल हो जातीं। उस दिन उनका मूड, उन्हीं की सुनाई कहानियों के चमत्कारी सिद्ध-सा हो जाता-“माँग बच्चा, जो माँगना है, माँग ले..."

हमारे गृह में दो ही चमत्कारी किस्सागो थे-एक हमारी माँ, दूसरे लोहनीजी! हमारे यहाँ तब दो लाइब्रेरी थीं, एक पितामह की, दूसरी माँ की। माँ की लाइब्रेरी में घर-भर के प्राण बसते थे, बंकिम ग्रंथावली से लेकर शरतचन्द्र, मेघाणी, मुंशी गुजराती, हिन्दी पुस्तकों से अल्मारियाँ ठसी रहतीं। घर का हर सदस्य पढ़ने के पीछे दीवाना था- 'चाँद', 'विशाल भारत', 'सुधा', गुजराती की 'बेघड़ी मौज', गिजुभाई बधेका की दर्शनीय नन्हीं पुस्तकें, नियमित रूप से आतीं।

उन दिनों एक और प्रचलन था। हर तीसरे-चौथे महीने पुस्तकों से भरा टीन का बक्सा, कुली के सिर पर लाद, एक मनमोहक फेरीवाला आता। कैसीकैसी पुस्तकें और शायद ही कोई अठन्नी से महँगी! 'चहारदरवेश', 'किस्सा हातिमताई', 'आल्हा ऊदल', 'उमरावजान अदा'। हमारा गृह फेरीवाले का पुराना ग्राहक था। इसी से कभी-कभी कमीशन के रूप में एक-आध पुस्तक हमें उपहार रूप में थमा जाता। ऐसे ही एक उपहार ने मेरे दाढ़ की जड़ें ही लगभग हिला दी थीं। हुआ यह कि उस दिन काफी खरीदारी हुई और मैं, ठीक वैसे ही एक फ्री पुस्तक की माँग कर बैठी जैसे चूड़ी पहननेवाले से फ्री सोहाग की चूड़ी की माँग किया करती थी।

"ले लो, अठन्नी की कोई भी किताब छाँट लो!” उसने कहा। मैंने इधरउधर देखा और चट-से वह लुभावनी पुस्तक उठा ली, जिसे कभी न पढ़ने की चेतावनी कई बार दी जा चुकी थी-'तोता-मैना'।

इधर मैंने पुस्तक उठाई और उधर लोहनीजी न जाने कब आकर पीठ पीछे खड़े हो गये। फिर जो करारा झापड़ पड़ा कि दाँत झनझना गए, “मना किया था ना तुम्हें।"

मैंने जीवन में, सेंसर के ऐसे दो ही चाँटे खाये हैं, एक ‘सरस्वतीचन्द्र' पढ़ने पर अम्मा का। अपराध था दस वर्ष की उम्र में उपन्यास पढ़ना और दूसरा 'तोता-मैना' पढ़ने पर लोहनीजी का।

फिर एक दिन उन्हें जाना ही पड़ा...

जिसका यौवन हमारे गृह में ही बीत गया था, उसका विवश वार्धक्य उन्हें उनकी प्राणप्रिया बामणी के पास खींच ले गया। वह सरला, पतिव्रता बामणी, जिन्हें सत्तर वर्ष की वयस हो जाने पर भी हमने कभी बिना चूँघट के नहीं देखा, मेरे भाई के विवाह के रतजगे में उन्हीं लजीली बामणी का नृत्य देख हम दंग रह गए थे।

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