संस्मरण >> एक थी रामरती एक थी रामरतीशिवानी
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एक जीवन्त पात्र रामरती को लेकर लिखा गया मार्मिक कथात्मक संस्मरण...
मैं उस दृश्य की कल्पना कर सकती थी। द्वार पर बैठा चिड्डा और नन्हा-सा यूँघट
निकाले, दोनों हाथ जोड़े खड़ी रामरती-साहेब, अब बड़ी अबेर हुई गई है, लौटा जाई।
न मैं उस दिन हँस पाई थी, न फिर कभी। पूछा उससे एक दिन अवश्य था, “क्यों री, फिर तेरे साहेब नहीं आए?"
“अब काहे आएँ महतारी, पीपल पानी पाए गए हैं।”
पुत्री के विवाह के पश्चात् उसके सामने कर्तव्य निर्वाह के वे कठिन क्षण एक-एक कर आने लगे जो हर माँ के जीवन में आते हैं। आज खिचड़ी भेजे का है, करवा भेजै परी, दामाद का जोड़ा, आज गुढ़ियाँ है। वह नित्य नवीन फरमाइश लेकर मुझे घेर लेती। मैं कभी-कभी बुरी तरह झुंझला उठती-“खा लिया है तूने, मुझे? मेरे पास क्या रुपयों की खान धरी है! और कहीं क्यों नहीं जाती?"
वह निःशब्द सिर झुकाए खड़ी रहती फिर विवश स्वर में कहती, “अउर कहाँ जाएँ महतारी?” आज गुरुदेव की वे पंक्तियाँ मुझे पश्चात्ताप से विगलित कर देती हैं :
कैनो रे तोर दू हाथ पाता
दान तो चाई ना, चाई जे दाता।
(अरे मेरे मन, तूने माँगने दो हाथ क्यों फैलाए हैं, मुझे दान नहीं चाहिए दाता चाहिए)
शायद मुझमें वह दाता ही पाना चाहती थी, उसने कभी मुझसे दो वचन लिए थे-एक उसकी पुत्री का कन्यादान करूँ, दूसरा हम जब घाट जाएँ दीदी, तो आप ही के पहुँचायें परी। “फलाने के पास तो वा दिन भी पैसा रहे ना रहे! अउर बिटिया-दामाद के करज का कफ़न हम ना ओढ़ब।”
वह मेरी सच्ची सेविका थी। इसी से शायद मैं अपने दोनों वचन निभा पाई। उसकी देह शायद ठंडी भी नहीं पड़ी होगी कि मुझे बहन का फोन मिल गया। तत्काल मैं उसके महाप्रस्थान के आरक्षण का प्रबन्ध कर पाई थी। इस ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को पति का श्राद्ध हुआ तो उसका अभाव खटका। तड़के ही नहा-धोकर, मेरे गृह की देहरी गोबर से लीप, वह गोग्रास खिलाने आ खडी होती। एक बार मेरा पुत्र अपने पिता का श्राद्ध कर रहा था तो मैंने देखा, आँखें पोंछती रामरती उसे एकटक देख रही है। बाद में मैंने पूछा, “रो क्यों रही थी री? क्या फिर साहेब को देखा?"
“नाँही दीदी, भैया कइसन पिरेम से नंगे बदन सराध करत रहें। हमार बिटवा जिया होता तो इत्ता ही बड़ा होता, अब हम मरि जाईं तो कौन देई हमें पानी ?"
"क्यों, तेरी बेटियाँ हैं, बेटियों के बेटे हैं..."
“दीदी की बातें...आपन बिटवा आपन होत। बिटियन केर बिटवा का हमार होई? सुन्यो नहीं-धी का पूत, गधी का मूत!"
मुझे हँसी आ गई थी।
पर आज नहीं हँस पा रही हूँ, जब मेरा पुत्र श्राद्ध सम्पन्न कर एक-एक कर पितामह-मातामह, पितामही-मातामही सबका स्मरण कर तिलांजलि दे रहा था और पंडितजी कह रहे थे, “आपके जो भी प्रिय दिवंगत बंधु-बान्धव हों उन्हें भी स्मरण कर जल दीजिए।" जी में आ रहा था कहूँ, एक तिलांजलि उसे भी दे दे जो इष्ट मित्र न होकर भी मुझे पुत्री-सी ही प्रिय थी। पर कैसे कह सकती थी, हिन्दू धर्म का व्याकरण बड़ा जटिल है। उसमें सामान्य-सी फेरबदल सम्भव नहीं है। मैं स्वयं नारी हूँ, किसी का श्राद्ध सम्पन्न करने के अधिकार से वंचिता। क्या दक्षिणाभिमुख हो, यज्ञोपवीत दाहिने कन्धे पर रख प्राचीनावीती करना सम्भव है मेरे लिए? तिल-जल-शृंगराज एवं तुलसी दल रख उसे वह पूरक पिंड दे सकती हूँ जो उसे प्रेत योनि से मुक्त करे? पर इतना तो कह ही सकती हूँ, 'अनादिनिधनो देव शंख चक्र गदाधरः, अक्षयः पुण्डरीकाक्षो प्रेत मोक्षप्रदो भव।'
न मैं उस दिन हँस पाई थी, न फिर कभी। पूछा उससे एक दिन अवश्य था, “क्यों री, फिर तेरे साहेब नहीं आए?"
“अब काहे आएँ महतारी, पीपल पानी पाए गए हैं।”
पुत्री के विवाह के पश्चात् उसके सामने कर्तव्य निर्वाह के वे कठिन क्षण एक-एक कर आने लगे जो हर माँ के जीवन में आते हैं। आज खिचड़ी भेजे का है, करवा भेजै परी, दामाद का जोड़ा, आज गुढ़ियाँ है। वह नित्य नवीन फरमाइश लेकर मुझे घेर लेती। मैं कभी-कभी बुरी तरह झुंझला उठती-“खा लिया है तूने, मुझे? मेरे पास क्या रुपयों की खान धरी है! और कहीं क्यों नहीं जाती?"
वह निःशब्द सिर झुकाए खड़ी रहती फिर विवश स्वर में कहती, “अउर कहाँ जाएँ महतारी?” आज गुरुदेव की वे पंक्तियाँ मुझे पश्चात्ताप से विगलित कर देती हैं :
कैनो रे तोर दू हाथ पाता
दान तो चाई ना, चाई जे दाता।
(अरे मेरे मन, तूने माँगने दो हाथ क्यों फैलाए हैं, मुझे दान नहीं चाहिए दाता चाहिए)
शायद मुझमें वह दाता ही पाना चाहती थी, उसने कभी मुझसे दो वचन लिए थे-एक उसकी पुत्री का कन्यादान करूँ, दूसरा हम जब घाट जाएँ दीदी, तो आप ही के पहुँचायें परी। “फलाने के पास तो वा दिन भी पैसा रहे ना रहे! अउर बिटिया-दामाद के करज का कफ़न हम ना ओढ़ब।”
वह मेरी सच्ची सेविका थी। इसी से शायद मैं अपने दोनों वचन निभा पाई। उसकी देह शायद ठंडी भी नहीं पड़ी होगी कि मुझे बहन का फोन मिल गया। तत्काल मैं उसके महाप्रस्थान के आरक्षण का प्रबन्ध कर पाई थी। इस ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को पति का श्राद्ध हुआ तो उसका अभाव खटका। तड़के ही नहा-धोकर, मेरे गृह की देहरी गोबर से लीप, वह गोग्रास खिलाने आ खडी होती। एक बार मेरा पुत्र अपने पिता का श्राद्ध कर रहा था तो मैंने देखा, आँखें पोंछती रामरती उसे एकटक देख रही है। बाद में मैंने पूछा, “रो क्यों रही थी री? क्या फिर साहेब को देखा?"
“नाँही दीदी, भैया कइसन पिरेम से नंगे बदन सराध करत रहें। हमार बिटवा जिया होता तो इत्ता ही बड़ा होता, अब हम मरि जाईं तो कौन देई हमें पानी ?"
"क्यों, तेरी बेटियाँ हैं, बेटियों के बेटे हैं..."
“दीदी की बातें...आपन बिटवा आपन होत। बिटियन केर बिटवा का हमार होई? सुन्यो नहीं-धी का पूत, गधी का मूत!"
मुझे हँसी आ गई थी।
पर आज नहीं हँस पा रही हूँ, जब मेरा पुत्र श्राद्ध सम्पन्न कर एक-एक कर पितामह-मातामह, पितामही-मातामही सबका स्मरण कर तिलांजलि दे रहा था और पंडितजी कह रहे थे, “आपके जो भी प्रिय दिवंगत बंधु-बान्धव हों उन्हें भी स्मरण कर जल दीजिए।" जी में आ रहा था कहूँ, एक तिलांजलि उसे भी दे दे जो इष्ट मित्र न होकर भी मुझे पुत्री-सी ही प्रिय थी। पर कैसे कह सकती थी, हिन्दू धर्म का व्याकरण बड़ा जटिल है। उसमें सामान्य-सी फेरबदल सम्भव नहीं है। मैं स्वयं नारी हूँ, किसी का श्राद्ध सम्पन्न करने के अधिकार से वंचिता। क्या दक्षिणाभिमुख हो, यज्ञोपवीत दाहिने कन्धे पर रख प्राचीनावीती करना सम्भव है मेरे लिए? तिल-जल-शृंगराज एवं तुलसी दल रख उसे वह पूरक पिंड दे सकती हूँ जो उसे प्रेत योनि से मुक्त करे? पर इतना तो कह ही सकती हूँ, 'अनादिनिधनो देव शंख चक्र गदाधरः, अक्षयः पुण्डरीकाक्षो प्रेत मोक्षप्रदो भव।'
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