संस्मरण >> एक थी रामरती एक थी रामरतीशिवानी
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एक जीवन्त पात्र रामरती को लेकर लिखा गया मार्मिक कथात्मक संस्मरण...
तो ऐसी थी गायक की निष्ठा और वैसी ही ईमानदार आलोचना।
वैसी निष्ठा आज नहीं है, ऐसी बात नहीं है, पर कहीं-न-कहीं हम भटके अवश्य हैं। भौतिक सुखों की खोज में, विदेश जाकर अपनी भारतीय संस्कृति की पताका फहराने में हम अधिक पारंगत हुए हैं। यह हम भूल जाते हैं कि पहले अपनी संस्कृति की पताका स्वदेश में फहराना हमारा प्रथम कर्तव्य है। केवल संगीत के व्याकरण की शुद्धता ही उसे नहीं बचा सकती। मनुष्य के हृदय को आपने विजित कर लिया, तो उसके दिमाग को तो आप अनायास ही विजित कर लेंगे। रवीन्द्रनाथ जो विश्व कवि ही नहीं थे, एक सिद्ध संगीतज्ञ भी थे, इस विषय में बड़ी खरी पंक्तियाँ लिख गए हैं। वह लिखते हैं, 'जिस प्रकार एक जीवंत भाषा परिवर्तनशील है और जब तक भाषा जीवित है, परिवर्तन अवश्यंभावी है, जिस प्रकार व्याकरण भाषा को मरने से नहीं बचा सकती, बहत हुआ तो प्राचीन मिस्रवासियों की भाँति उसे मृत ममी बनाकर बचा सकती है।'
संगीत को केवल उसका व्याकरण नहीं बचा सकता, सेंत भर सकता है। मेरे विचार में संगीत को भी कविता की भाँति, व्याकरण की बेड़ियों से मुक्त करना चाहिए। यूँ कि व्याकरण की शुद्धता रहे अवश्य, किन्तु अपनी क्लिष्टता के कारण वह संगीत के रस को बोझिल, शिथिल न बना दे।
भाषा की ही भाँति, संगीत में परिवर्तन तो होता ही रहेगा, प्रयोग भी निरन्तर होंगे, हमें केवल इसी दिशा में सजग रहना चाहिए कि वे प्रयोग हमारी संस्कृति को ही कभी पीछे न धकेल दें।
नथुनिया ने हाय राम...
कभी-कभी अनजाने, जीवन के किसी अनदेखे अनचीन्हे चौराहे पर, वर्षों का पूर्वपरिचित चेहरा देखने पर भी, स्मृति पहचानने से साफ मुकर जाती है, पर उस चेहरे के विलुप्त होते ही, जब स्मृति सहसा चैतन्य होकर, उसे पुकारने को व्याकुल हो उठती है, तब फिर कुछ हाथ नहीं लगता। इतने बड़े विश्व की, किस गली की, भूलभुलैया में, वह बड़े भाग्य से मिला प्रिय चेहरा खो जाता है, हम लाख सिर पटकने पर भी, फिर नहीं जान पाते। मेरे साथ भी, गत माह स्मृति ने ऐसे ही छलावा किया, जिसे, कुछ क्षणों के लिए देखा, और जो सहसा तरकस से निकले, सधे हाथ से छूटे तीर-सी निकल गई, उसे मैं फिर, उस जन-शून्य निभृत जंक्शन के दोनों ओर दृष्टि दौड़ाने पर भी नहीं खोज पाई। धमिल से सिग्नल के नीचे, सिर पर विवर्ण पोटली धरे. वह क्षीण काया, उसी क्षितिज में विलीन हो गई। मैंने उसे पहले पहल देखा, वह लाल अतलस की, चौड़ी पाँचे की शलवार और ऊँचे अबरकी दुपट्टे को, बड़े यत्न से सम्हालती, हमारी गाड़ी से उतरी थीं। पीछे थी उनके ठसकदार बुआ जान। उनके पीछे, उनकी रंग-बिरंगी दासियों की कतार में, कोई उनका गुम्बदनुमा पानदान थामे थी, कोई दशहरी आमों की टोकरी और किसी ने उनका धूल में लुटा जा रहा रेशमी दामन ही थाम लिया था। प्रत्येक वर्ष लखनऊ से आने पर, वे हमारे यहाँ लखनऊ की छोटी-मोटी सौगातें लेकर मिलने आतीं, गुलाबपगी रेवड़ियाँ, दशहरी आम और एक ऐसी मनभावनी सौगात, जिसे अब शायद लखनऊ ने बनाना ही छोड़ दिया है। मौसमी फलों के शत्रु ओलों के आकार के सफ़ेद दूधिया ओले, जिनका एक गोला बर्फ़ डाले हिम शीतल पानी में डालते ही, कलेज़ा ठंडा करनेवाला, सुपेय शरबत तैयार हो जाता था। उसमें चीनी के साथ-साथ, केवड़े की दिलकश खुशबू और पिसी सौंफ की मह-मह महकती मोहिनी सुगन्ध भी मिश्रित रहती। कभी-कभी हम, बिना पानी मिलाए ही ओले के वे मनमोहक गोले चबा डालते। ओलों की ही-सी मिठास भी रहती, जान की बातों में। शरीर भारी होने पर भी चेहरे पर ऐसी दुग्ध धवल स्निग्धता थी. सरमा भरी आँखों की मदभरी चाशनी में कुछ ऐसा अद्भुत आकर्षण था कि जी चाहता घंटों उनके पास बैठे उनकी लच्छेदार बातें सुनते रहें। एक बार मेरी दाढ़ में दर्द था, वे मिलने आईं, तो चट सिरहाने बैठ, मेरा गाल सहलाने लगी, उस गुदगुदी सुकोमल हथेली का स्पर्श, हिना की मदिर सुगन्ध अभी भी उतनी ही ताजी लगने लगी है, जैसे किसी ने दिलपसन्द रेशम का टुकड़ा गाल पर धर दिया हो।
लखनऊ में, उनकी विराट् हवेली थी, शायद अब भी हो, उन्हीं के नाम के साथ संयुक्त 'मंज़िल'। दीवारों पर लगे आदमकद आईने, सफ़ेद झकझक बिछी चाँदनी, गावतकिये, दर्शनीय नग्न मूर्तियाँ, संगमरमर का फव्वारा और सबसे विचित्र कहीं कुछ न जलने पर भी, पूरे कमरे में उठती, कोई अदृश्य अम्बरी सुवासित धूम्ररेखा। महाराज ओरछा की विशेष कृपा उन पर रही। एक दादरा 'चले जाइयो बेदरदा मैं रोय मरी जाऊँ' पर उन्हें महाराज से, एक जागीर पाने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ था। कंठ था मांसल, किन्तु लोच थी अद्भुत! कान पर एक हाथ धरकर उनके गाने की मोहक भंगिमा, बहुत कुछ रसूलन बाई से मिलती थी। उन दिनों, सिद्धेश्वरी, कमला, झरिया, दलारी प्रायः ही दरबार-उत्सवों में आतीं और राजकन्या के साथसाथ हम उनसे मिलने जातीं तो उसे बुरा नहीं समझा जाता था। उठनेबैठने का ढंग, अदब-क़ायदे में निखार, यहाँ तक कि सुपारी काटने की कला सीखने भी हमें उनके पास भेजा जाता। सिद्धेश्वरी, युवराज की सगाई पर आईं, तो उन्होंने हमें सुपारी की दो ख़ास किस्में काटना सिखाया था, 'बाजरा’ और ‘मोतिया'। कभी-कभी आज, जब मेरे पाठक, मुझसे अपने पत्रों में पूछते हैं, एक सम्भ्रान्त गृह में जन्म लेने पर भी आपने अपने विभिन्न उपन्यासों में, रूपाजीवाओं का इतना सजीव वर्णन कैसे किया है, मैं उन्हें कैसे बताऊँ कि तब, वे हमारी निर्दोष दृष्टि में रूपाजीवा नहीं थीं, गृह में माँ से मिलने आई आत्मीय मौसी या बुआ-सी ही प्रिय परिचित थीं। उस बार नसीम, अपनी ख़ाला के साथ पहली बार ओरछा आईं। उनकी शरबती आँखों में अँजे सुरमे की प्रगाढ़ रेखा, उनकी काली भँवर पुतलियों को, और काला बनाकर प्रस्तुत करती थी। हँसने पर दोनों गालों में गड्डों की गहराई, बड़ी देर तक बनी रहती। ‘ख़ाला से कहेंगे, अगली बार भी हमें ले चलें, यहाँ बड़ा अच्छा लगता है हमें!' वह कहती और दिन-दिन भर, हमारे साथ खेलने पर भी उसका जी नहीं भरता। दो-तीन वर्षों तक, फिर वह नहीं आईं, चौथे साल किले के एक उत्सव में वह फिर मिलीं, तो लिपट गईं। उन तीन वर्षों में उसके कंठ को ही उसकी ख़ाला ने नहीं घिसा-माँजा, दुबली-पतली देह को भी न जाने कौन-से यूनानी उबटनों से एकदम ही बदल दिया था। दशहरा दरबार में उसका गाया वह दादरा, जब आज किसी अन्य मधुर कंठ से सुनती हूँ तो मुझे उसके घुटने टेककर बैठी उसी भव्य मुद्रा का स्मरण हो आता है-
वैसी निष्ठा आज नहीं है, ऐसी बात नहीं है, पर कहीं-न-कहीं हम भटके अवश्य हैं। भौतिक सुखों की खोज में, विदेश जाकर अपनी भारतीय संस्कृति की पताका फहराने में हम अधिक पारंगत हुए हैं। यह हम भूल जाते हैं कि पहले अपनी संस्कृति की पताका स्वदेश में फहराना हमारा प्रथम कर्तव्य है। केवल संगीत के व्याकरण की शुद्धता ही उसे नहीं बचा सकती। मनुष्य के हृदय को आपने विजित कर लिया, तो उसके दिमाग को तो आप अनायास ही विजित कर लेंगे। रवीन्द्रनाथ जो विश्व कवि ही नहीं थे, एक सिद्ध संगीतज्ञ भी थे, इस विषय में बड़ी खरी पंक्तियाँ लिख गए हैं। वह लिखते हैं, 'जिस प्रकार एक जीवंत भाषा परिवर्तनशील है और जब तक भाषा जीवित है, परिवर्तन अवश्यंभावी है, जिस प्रकार व्याकरण भाषा को मरने से नहीं बचा सकती, बहत हुआ तो प्राचीन मिस्रवासियों की भाँति उसे मृत ममी बनाकर बचा सकती है।'
संगीत को केवल उसका व्याकरण नहीं बचा सकता, सेंत भर सकता है। मेरे विचार में संगीत को भी कविता की भाँति, व्याकरण की बेड़ियों से मुक्त करना चाहिए। यूँ कि व्याकरण की शुद्धता रहे अवश्य, किन्तु अपनी क्लिष्टता के कारण वह संगीत के रस को बोझिल, शिथिल न बना दे।
भाषा की ही भाँति, संगीत में परिवर्तन तो होता ही रहेगा, प्रयोग भी निरन्तर होंगे, हमें केवल इसी दिशा में सजग रहना चाहिए कि वे प्रयोग हमारी संस्कृति को ही कभी पीछे न धकेल दें।
नथुनिया ने हाय राम...
कभी-कभी अनजाने, जीवन के किसी अनदेखे अनचीन्हे चौराहे पर, वर्षों का पूर्वपरिचित चेहरा देखने पर भी, स्मृति पहचानने से साफ मुकर जाती है, पर उस चेहरे के विलुप्त होते ही, जब स्मृति सहसा चैतन्य होकर, उसे पुकारने को व्याकुल हो उठती है, तब फिर कुछ हाथ नहीं लगता। इतने बड़े विश्व की, किस गली की, भूलभुलैया में, वह बड़े भाग्य से मिला प्रिय चेहरा खो जाता है, हम लाख सिर पटकने पर भी, फिर नहीं जान पाते। मेरे साथ भी, गत माह स्मृति ने ऐसे ही छलावा किया, जिसे, कुछ क्षणों के लिए देखा, और जो सहसा तरकस से निकले, सधे हाथ से छूटे तीर-सी निकल गई, उसे मैं फिर, उस जन-शून्य निभृत जंक्शन के दोनों ओर दृष्टि दौड़ाने पर भी नहीं खोज पाई। धमिल से सिग्नल के नीचे, सिर पर विवर्ण पोटली धरे. वह क्षीण काया, उसी क्षितिज में विलीन हो गई। मैंने उसे पहले पहल देखा, वह लाल अतलस की, चौड़ी पाँचे की शलवार और ऊँचे अबरकी दुपट्टे को, बड़े यत्न से सम्हालती, हमारी गाड़ी से उतरी थीं। पीछे थी उनके ठसकदार बुआ जान। उनके पीछे, उनकी रंग-बिरंगी दासियों की कतार में, कोई उनका गुम्बदनुमा पानदान थामे थी, कोई दशहरी आमों की टोकरी और किसी ने उनका धूल में लुटा जा रहा रेशमी दामन ही थाम लिया था। प्रत्येक वर्ष लखनऊ से आने पर, वे हमारे यहाँ लखनऊ की छोटी-मोटी सौगातें लेकर मिलने आतीं, गुलाबपगी रेवड़ियाँ, दशहरी आम और एक ऐसी मनभावनी सौगात, जिसे अब शायद लखनऊ ने बनाना ही छोड़ दिया है। मौसमी फलों के शत्रु ओलों के आकार के सफ़ेद दूधिया ओले, जिनका एक गोला बर्फ़ डाले हिम शीतल पानी में डालते ही, कलेज़ा ठंडा करनेवाला, सुपेय शरबत तैयार हो जाता था। उसमें चीनी के साथ-साथ, केवड़े की दिलकश खुशबू और पिसी सौंफ की मह-मह महकती मोहिनी सुगन्ध भी मिश्रित रहती। कभी-कभी हम, बिना पानी मिलाए ही ओले के वे मनमोहक गोले चबा डालते। ओलों की ही-सी मिठास भी रहती, जान की बातों में। शरीर भारी होने पर भी चेहरे पर ऐसी दुग्ध धवल स्निग्धता थी. सरमा भरी आँखों की मदभरी चाशनी में कुछ ऐसा अद्भुत आकर्षण था कि जी चाहता घंटों उनके पास बैठे उनकी लच्छेदार बातें सुनते रहें। एक बार मेरी दाढ़ में दर्द था, वे मिलने आईं, तो चट सिरहाने बैठ, मेरा गाल सहलाने लगी, उस गुदगुदी सुकोमल हथेली का स्पर्श, हिना की मदिर सुगन्ध अभी भी उतनी ही ताजी लगने लगी है, जैसे किसी ने दिलपसन्द रेशम का टुकड़ा गाल पर धर दिया हो।
लखनऊ में, उनकी विराट् हवेली थी, शायद अब भी हो, उन्हीं के नाम के साथ संयुक्त 'मंज़िल'। दीवारों पर लगे आदमकद आईने, सफ़ेद झकझक बिछी चाँदनी, गावतकिये, दर्शनीय नग्न मूर्तियाँ, संगमरमर का फव्वारा और सबसे विचित्र कहीं कुछ न जलने पर भी, पूरे कमरे में उठती, कोई अदृश्य अम्बरी सुवासित धूम्ररेखा। महाराज ओरछा की विशेष कृपा उन पर रही। एक दादरा 'चले जाइयो बेदरदा मैं रोय मरी जाऊँ' पर उन्हें महाराज से, एक जागीर पाने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ था। कंठ था मांसल, किन्तु लोच थी अद्भुत! कान पर एक हाथ धरकर उनके गाने की मोहक भंगिमा, बहुत कुछ रसूलन बाई से मिलती थी। उन दिनों, सिद्धेश्वरी, कमला, झरिया, दलारी प्रायः ही दरबार-उत्सवों में आतीं और राजकन्या के साथसाथ हम उनसे मिलने जातीं तो उसे बुरा नहीं समझा जाता था। उठनेबैठने का ढंग, अदब-क़ायदे में निखार, यहाँ तक कि सुपारी काटने की कला सीखने भी हमें उनके पास भेजा जाता। सिद्धेश्वरी, युवराज की सगाई पर आईं, तो उन्होंने हमें सुपारी की दो ख़ास किस्में काटना सिखाया था, 'बाजरा’ और ‘मोतिया'। कभी-कभी आज, जब मेरे पाठक, मुझसे अपने पत्रों में पूछते हैं, एक सम्भ्रान्त गृह में जन्म लेने पर भी आपने अपने विभिन्न उपन्यासों में, रूपाजीवाओं का इतना सजीव वर्णन कैसे किया है, मैं उन्हें कैसे बताऊँ कि तब, वे हमारी निर्दोष दृष्टि में रूपाजीवा नहीं थीं, गृह में माँ से मिलने आई आत्मीय मौसी या बुआ-सी ही प्रिय परिचित थीं। उस बार नसीम, अपनी ख़ाला के साथ पहली बार ओरछा आईं। उनकी शरबती आँखों में अँजे सुरमे की प्रगाढ़ रेखा, उनकी काली भँवर पुतलियों को, और काला बनाकर प्रस्तुत करती थी। हँसने पर दोनों गालों में गड्डों की गहराई, बड़ी देर तक बनी रहती। ‘ख़ाला से कहेंगे, अगली बार भी हमें ले चलें, यहाँ बड़ा अच्छा लगता है हमें!' वह कहती और दिन-दिन भर, हमारे साथ खेलने पर भी उसका जी नहीं भरता। दो-तीन वर्षों तक, फिर वह नहीं आईं, चौथे साल किले के एक उत्सव में वह फिर मिलीं, तो लिपट गईं। उन तीन वर्षों में उसके कंठ को ही उसकी ख़ाला ने नहीं घिसा-माँजा, दुबली-पतली देह को भी न जाने कौन-से यूनानी उबटनों से एकदम ही बदल दिया था। दशहरा दरबार में उसका गाया वह दादरा, जब आज किसी अन्य मधुर कंठ से सुनती हूँ तो मुझे उसके घुटने टेककर बैठी उसी भव्य मुद्रा का स्मरण हो आता है-
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