संस्मरण >> एक थी रामरती एक थी रामरतीशिवानी
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एक जीवन्त पात्र रामरती को लेकर लिखा गया मार्मिक कथात्मक संस्मरण...
स्वरलय नटिनी
प्रत्येक पितृविसर्जनी अमावस्या को मैं उनका श्रद्धापूर्वक स्मरण करती हूँ। ऐसी
पुण्यतिथि वर्ष में एक बार ही आती है, उस दिन हम पितरों को स्मरण अवश्य करते
हैं। जैसे-जैसे उस दिवंगत प्रतिभा को तिरोहित हुए वर्ष बीतते चले जाते हैं,
वैसे-वैसे उनकी अनेक मधुर स्मृतियाँ मानसपटल पर अंकित होकर विह्वल करने लगती
हैं। इस युग में जब धीरे-धीरे संगीत की परिभाषा ही बदलती जा रही है, उनका स्मरण
और भी महत्त्वपूर्ण बन गया है। श्री मल्लिकार्जुन मंसूर ने अपने दूरदर्शनी
साक्षात्कार में एक बड़ी पते की बात कही थी कि पहले से आज श्रोताओं की संख्या
तो बढ़ी है, किन्तु उन मुट्ठी-भर पहले के निष्ठावान जानकार श्रोताओं में और आज
के श्रोताओं में अन्तर अवश्य है। वे दिन, जब हम केवल एक दरी पर बैठ पूरी रात,
किसी प्रख्यात संगीतज्ञ की सुबह की भैरवी सुनने, आँखों-ही-आँखों में काट देते
थे, अब बीत गए हैं।
जब किसी भी देश का शासनतन्त्र, जनतांत्रिक होने लगता है, जो जनसंख्या बल के आधिक्य के कारण जन-संस्कृति कभी-कभी संस्कृति को ही धक्का देकर पीछे कर देती है। इस युग में जनप्रियता को ही, श्रेष्ठ कला का एक लक्षण माना जाने लगा है। आप किसी भी 'ग़ज़ल सन्ध्या' या दूरदर्शन पर आयोजित 'ग़ज़ल मंच' का अवलोकन करें, आप देखेंगे कि ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाने के लिए शैल्पिक प्रौद्योगिक साधनों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया जाने लगा है। ग़ज़ल गायकी अब वह ग़ज़ल गायकी नहीं रही, जब दुलारी, कमला झरिया, “भाई छैला पटियाले वाला' गायक हमारे हृदयों को आलोड़ित कर देते थे। दुलारी का 'नौ बनो है सदमा हाएत्दर्दे दिल-दर्दे दिल' या भाई छैला का, 'तुरबत से आने लगी ये सदा' या मास्टर मदन का कोकिल कंठ, जो गज़ल को प्राणवंत बना अरसिकों को भी रसिक बनाने में समर्थ था, हमारी नवीन पीढ़ी के लिए वह अब स्वप्नवत हो गया है।
अब तो एक पंक्ति के साथ बीसियों कानफोड़ वाद्य-यन्त्र हैं, जिनके अरण्य में गायक या गायिका का सुकंठ ही खोकर रह जाता है, साथ ही ग़ज़ल चयन का नैपुण्य भी अर्थहीन बन जाता है। उस पर बतानेवाली ठुमरी का-सा गायिका का भावदर्शन, गहनों की जगमगाहट, गाते-गाते कूल्हों की मटकन, कटाक्षों का औदार्य कुछ श्रोताओं को भले ही लुभाने में समर्थ होता हो, ग़ज़ल फिर पूर्णनिष्ठा से सुनी जानेवाली चीज़ नहीं रहती। साथ में कभी हरे-भरे वन, झील, झाड़फानूसों के बीच घूमती केश छिटकाए गाती ग़ज़ल गायिका, फिर उस मोहक परिवेश की सृष्टि नहीं कर पाती। इस प्रकार की गायकी से हम कला का अवमूल्यन अवश्य कर रहे हैं।
आज भी हमारे यहाँ दर्द-भरे सुरीले कंठ हैं, किन्तु उन कंठों का हम समुचित प्रयोग करने में असमर्थ ही प्रतीत होते हैं। पुरानी ग़ज़ल गायकी का स्मरण दिलानेवाला एक कंठ अवश्य अब भी उस दर्द-भरे परिवेश की सृष्टि करने में समर्थ है, जगजीतसिंह का। बिना किसी वाद्ययन्त्रों की बैसाखी के वह आपके हृदय का स्पर्श अवश्य करता है। इस ऑटोमेशन से हम कला का जो अवमूल्यन कर रहे हैं, उसका प्रभाव श्रोता के पूर्व की ध्यानमग्नता को, निष्ठा को खंडित अवश्य कर रहा है। पहले का श्रोता पूर्ण ध्यानमग्नता से कला का आस्वादन करता था, यह सोचकर कि पता नहीं फिर वह चीज सुनने को मिले या नहीं, पर आज ऐसी कोई आशंका उसे विचलित नहीं करती। शैल्पिक प्रयक्तियों की धुआँधार अभिवृद्धियों से वह कभी भी कैसेट सुनकर अपने विश्वास के क्षणों को सुखद बना सकता है। सत्यनारायण की कथा से लेकर भजन, ग़ज़ल, भक्ति संगीत, शास्त्रीय-संगीत जैसी चाहें वैसे थाल का ऑर्डर दे दें। यही कारण है कि आज अदृश्य श्रोता की अर्पित निष्ठा आकाश कसमवत होती जा रही है। संगीत पण्यवस्त का रूप धारण करता जा रहा है।
दूसरा कारण है कि हमारी सौन्दर्य चेतना अब मौलिकता पर नहीं. अनुकरण पर निर्भर होती जा रही है। बेगम अख्तर संगीत का एक ऐसा कोहेनूर थीं, जिन्होंने केवल अपनी खरी चमक से ही जनप्रियता भी हासिल की, संगीतविदों की मान्यता भी। कला जैसे उच्च सांस्कृतिक प्रयास को लोकप्रिय बनाने के लिए उनके अपने स्तर से नीचे उतरने का प्रश्न ही नहीं उठ सकता था।
मैंने उनका वह रूप भी देखा है, जब वे सौन्दर्य ऐश्वर्य मंडिता, ख्याति के सोपान पर चढ़ रही थीं। मुझे उनका वह ठसका आज भी दो के पहाड़े-सा कंठस्थ है। मेरे पिता तब रामपुर नवाब रज़ाअली ख़ान के गृहमन्त्री थे। हमारी पर्दा लगी 'ब्यूक' गाड़ी ही उन्हें लेने स्टेशन गई थी। वे पहले हमारे यहाँ ही उतरीं। बैंगनी रंग की जार्जेट की साड़ी, बाँहों में निल लगा ब्लाउज़, जैसा कि उन दिनों चलन था, हाथों में मोती के कंगन, कानों में झिलमिलाते हीरे, अँगुली में दमकता पन्ना, कंठ में मोतियों का मेल खाता कंठा, पान दोख्ने से लाल-लाल अधरों पर भुवनमोहिनी स्मित, ये थीं अख्तरीबाई फैज़ाबादी।
फिर मैंने वर्षों बाद उनकी प्रौढ़ जीवन की वह गोधूलि भी देखी है, जब वे ख्याति के उत्तुंग शिखर पर आसीन थीं। न अहंकार, न आत्मश्लाघी प्रलाप, संगीतानुष्ठानों में भाग लेने वयस की क्लांति को भुला वह अंत तक यायावर बनी कहाँ-कहाँ घूमती रहीं! उनकी वह अक्लान्त वात्सल्यमयी मुख-मुद्रा स्मरण करती हूँ, तो लगता है, मंचीय शिष्टाचार की ऐसी साकार मूर्तियाँ अब किसी अतीत के गह्वर में सदा के लिए विलीन हो गई हैं।
जब किसी भी देश का शासनतन्त्र, जनतांत्रिक होने लगता है, जो जनसंख्या बल के आधिक्य के कारण जन-संस्कृति कभी-कभी संस्कृति को ही धक्का देकर पीछे कर देती है। इस युग में जनप्रियता को ही, श्रेष्ठ कला का एक लक्षण माना जाने लगा है। आप किसी भी 'ग़ज़ल सन्ध्या' या दूरदर्शन पर आयोजित 'ग़ज़ल मंच' का अवलोकन करें, आप देखेंगे कि ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाने के लिए शैल्पिक प्रौद्योगिक साधनों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया जाने लगा है। ग़ज़ल गायकी अब वह ग़ज़ल गायकी नहीं रही, जब दुलारी, कमला झरिया, “भाई छैला पटियाले वाला' गायक हमारे हृदयों को आलोड़ित कर देते थे। दुलारी का 'नौ बनो है सदमा हाएत्दर्दे दिल-दर्दे दिल' या भाई छैला का, 'तुरबत से आने लगी ये सदा' या मास्टर मदन का कोकिल कंठ, जो गज़ल को प्राणवंत बना अरसिकों को भी रसिक बनाने में समर्थ था, हमारी नवीन पीढ़ी के लिए वह अब स्वप्नवत हो गया है।
अब तो एक पंक्ति के साथ बीसियों कानफोड़ वाद्य-यन्त्र हैं, जिनके अरण्य में गायक या गायिका का सुकंठ ही खोकर रह जाता है, साथ ही ग़ज़ल चयन का नैपुण्य भी अर्थहीन बन जाता है। उस पर बतानेवाली ठुमरी का-सा गायिका का भावदर्शन, गहनों की जगमगाहट, गाते-गाते कूल्हों की मटकन, कटाक्षों का औदार्य कुछ श्रोताओं को भले ही लुभाने में समर्थ होता हो, ग़ज़ल फिर पूर्णनिष्ठा से सुनी जानेवाली चीज़ नहीं रहती। साथ में कभी हरे-भरे वन, झील, झाड़फानूसों के बीच घूमती केश छिटकाए गाती ग़ज़ल गायिका, फिर उस मोहक परिवेश की सृष्टि नहीं कर पाती। इस प्रकार की गायकी से हम कला का अवमूल्यन अवश्य कर रहे हैं।
आज भी हमारे यहाँ दर्द-भरे सुरीले कंठ हैं, किन्तु उन कंठों का हम समुचित प्रयोग करने में असमर्थ ही प्रतीत होते हैं। पुरानी ग़ज़ल गायकी का स्मरण दिलानेवाला एक कंठ अवश्य अब भी उस दर्द-भरे परिवेश की सृष्टि करने में समर्थ है, जगजीतसिंह का। बिना किसी वाद्ययन्त्रों की बैसाखी के वह आपके हृदय का स्पर्श अवश्य करता है। इस ऑटोमेशन से हम कला का जो अवमूल्यन कर रहे हैं, उसका प्रभाव श्रोता के पूर्व की ध्यानमग्नता को, निष्ठा को खंडित अवश्य कर रहा है। पहले का श्रोता पूर्ण ध्यानमग्नता से कला का आस्वादन करता था, यह सोचकर कि पता नहीं फिर वह चीज सुनने को मिले या नहीं, पर आज ऐसी कोई आशंका उसे विचलित नहीं करती। शैल्पिक प्रयक्तियों की धुआँधार अभिवृद्धियों से वह कभी भी कैसेट सुनकर अपने विश्वास के क्षणों को सुखद बना सकता है। सत्यनारायण की कथा से लेकर भजन, ग़ज़ल, भक्ति संगीत, शास्त्रीय-संगीत जैसी चाहें वैसे थाल का ऑर्डर दे दें। यही कारण है कि आज अदृश्य श्रोता की अर्पित निष्ठा आकाश कसमवत होती जा रही है। संगीत पण्यवस्त का रूप धारण करता जा रहा है।
दूसरा कारण है कि हमारी सौन्दर्य चेतना अब मौलिकता पर नहीं. अनुकरण पर निर्भर होती जा रही है। बेगम अख्तर संगीत का एक ऐसा कोहेनूर थीं, जिन्होंने केवल अपनी खरी चमक से ही जनप्रियता भी हासिल की, संगीतविदों की मान्यता भी। कला जैसे उच्च सांस्कृतिक प्रयास को लोकप्रिय बनाने के लिए उनके अपने स्तर से नीचे उतरने का प्रश्न ही नहीं उठ सकता था।
मैंने उनका वह रूप भी देखा है, जब वे सौन्दर्य ऐश्वर्य मंडिता, ख्याति के सोपान पर चढ़ रही थीं। मुझे उनका वह ठसका आज भी दो के पहाड़े-सा कंठस्थ है। मेरे पिता तब रामपुर नवाब रज़ाअली ख़ान के गृहमन्त्री थे। हमारी पर्दा लगी 'ब्यूक' गाड़ी ही उन्हें लेने स्टेशन गई थी। वे पहले हमारे यहाँ ही उतरीं। बैंगनी रंग की जार्जेट की साड़ी, बाँहों में निल लगा ब्लाउज़, जैसा कि उन दिनों चलन था, हाथों में मोती के कंगन, कानों में झिलमिलाते हीरे, अँगुली में दमकता पन्ना, कंठ में मोतियों का मेल खाता कंठा, पान दोख्ने से लाल-लाल अधरों पर भुवनमोहिनी स्मित, ये थीं अख्तरीबाई फैज़ाबादी।
फिर मैंने वर्षों बाद उनकी प्रौढ़ जीवन की वह गोधूलि भी देखी है, जब वे ख्याति के उत्तुंग शिखर पर आसीन थीं। न अहंकार, न आत्मश्लाघी प्रलाप, संगीतानुष्ठानों में भाग लेने वयस की क्लांति को भुला वह अंत तक यायावर बनी कहाँ-कहाँ घूमती रहीं! उनकी वह अक्लान्त वात्सल्यमयी मुख-मुद्रा स्मरण करती हूँ, तो लगता है, मंचीय शिष्टाचार की ऐसी साकार मूर्तियाँ अब किसी अतीत के गह्वर में सदा के लिए विलीन हो गई हैं।
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